Wednesday, March 30, 2011

कुमार अनुपम की कवितायेँ

कला के बहुरूप में माहिर युवा साथी 'कुमार अनुपम' हमारे समय के महत्त्वपूर्ण और चर्चित कवि। चित्रकला में भी सिद्धहस्त। भाषासेतु पर प्रस्तुत हो रही ये कवितायेँ, उनके काव्य संग्रह 'बारिश मेरा घर है' में संकलित हैं। कुमार अनुपम को हाल ही में 'कविता समय' के युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें बधाई।


प्रेम

पृथ्वी के ध्रुवों पर

हमारी तलाश

एक दूसरे की प्रतीक्षा में है

अपने अपने हिस्से का नेह सँजोए

नदी-सी बेसाख्ता भागती तुम्हारी कामना

आएगी मेरे समुद्री धैर्य़ के पास

एक--एक दिन

हमारी उम्मीदें

सृष्टि की तरह फूले-फलेंगी।


अंतरण


तुम्हें छूते हुए

मेरी उँगलियाँ

भय की गरिमा से भींग जाती हैं


कि तुम

एक बच्चे का खिलौना हो

तुम्हारा स्पर्श

जबकि लपेट लेता है मुझे जैसे कुम्हड़े की वर्तिका

लेकिन तुम्हारी आँखों में जो नया आकाश है इतना शालीन

कि मेरे प्रतिबिम्ब की भी आहट

भंग कर सकती है तुम्हारी आत्म-लीनता

कि तुम्हारा वजूद

दूध की गन्ध है

एक माँ के सम्पूर्ण गौरव के साथ

अपनाती हो

तो मेरा प्रेम

बिलकुल तुम्हारी तरह हो जाता है

ममतामय।


दोनों

दोनों में कभी

रार का कारण नहीं बनी

एक ही तरह की कमी

- चुप - रहे दोनों

फूल की भाषा में

शहर नापते हुए

रहे इतनी... दूर... इतनी... दूर

जितनी विछोह की इच्छा


बाहर का तमाम धुआँ-धक्कड़

और तकरार सहेजे नहाए रंगों में

एक दूसरे के कूड़े में बीनते हुए उपयोगी चीज

खुले संसार में एक दूसरे को

समेटते हुए चुम्बनों में

पड़ा रहा उनके बीच

एक आदिम आवेश का पर्दा

यद्य़पि वह उतना ही उपस्थित था

जितनानहींके वर्णयुग्म मेंहै


कई रंग बदलने के बावजूद

रहे इतना... पास... इतना... पास जितना प्रकृति।

Wednesday, March 23, 2011

महेश वर्मा की तीन कवितायेँ

रात

कभी मांसल, कभी धुआँती कभी डूबी हुई पसीने में
खूब पहचानती है रात अपनी देह के सभी रंग

कभी इसकी खडखडाती पसलियों में गिरती रहती पत्तियां
कभी टपकती ठंडी ओस इसके बालों से

यह खुद चुनती है रात अपनी देह के सभी रंग

यह रात है जो खुद सजाती है अपनी देह पर
लैम्प पोस्ट की रोशनी और चांदनी का उजास

ये तारे सब उसकी आँख से निकलते है
या नहीं निकलते जो रुके रहते बादलों की ओट

ये उसकी इच्छाएं हैं अलग अलग सुरों की हवाएं

तुम्हारी वासना उसका ही खिलवाड़ है तुम्हारे भीतर
ऐसे ही तुम्हारी कविता

यह एकांत उसकी सांस है
जिसमें डूबता आया है दिनों का शोर और पंछियों की उड़ान

तुम्हारा दिन उसी का सपना है.

कमीज़

खूंटी पर बेमन पर से टंगी हुई है कमीज़
वह शिकायत करते करते थक चुकी
यही कह रहीं उसकी झूलती बाहें

उसके कंधे घिस चुके हैं पुराना होने से अधिक अपमान से
स्याही का एक पुराना धब्बा बरबस खींच लेता ध्यान

उसे आदत सी हो गई है बगल के
कुर्ते से आते पसीने के बू की
उसे भी सफाई से अधिक आराम चाहिए
इस सहानुभूति के रिश्ते ने आगे आकर खत्म कर दी है उनकी दुश्मनी

लट्टू के प्रकाश के इस कोण से
उसकी लटक आयी जेब में भर आये अँधेरे की तो कोई बात ही नहीं .


छींक

छींक एक मजेदार घटना है अपने आंतरिक विन्यास में और बाहरी शिल्प में . अगर एक व्यक्ति के रूप में आप इसे देखना चाहें तो इसका यह गौरवशाली इतिहास ज़रूर जान जायेंगे कि इसे नहीं रोका जा सकता इतिहास के सबसे सनकी सम्राट के भी सामने। "नाखूनों के समान यह हमारे आदिम स्वभाव का अवशेष रह गया है हमारे भीतर" - यह कहकर गर्व से चारों ओर देखते आचार्य की नाक में शुरू हो सकती है इसकी सुरसुरी.

सभ्य आचरण की कितनी तहें फोडकर यह बाहर आया है भूगर्भ जल की तरह - यह है इसकी स्वतन्त्रता की इच्छा का उद्घोष। धूल जुकाम और एलर्जी तो बस बहाने हैं हमारे गढे हुए. रुमाल से और हाथ से हम जीवाणु नहीं रोकते अपने जंगली होने की शर्म छुपाते है.

कभी दबाते है इसकी दबंग आवाज़
कभी ढकना चाहते अपना आनंद.

Tuesday, March 08, 2011

हिंदी कविता


रविकान्त

युवा कवि रविकान्त हिंदी के चर्चित कवियों में से हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित रविकान्त की कविताओं की अब तक एक किताब 'यात्रा' छाप चुकी है। पेशे से, एक राष्ट्रीय चैनल में वरिष्ठ संवाददाता हैं।

चाय
न जाने कहाँ से आती है पत्ती
हर बार अलग स्वाद की।
कैसा कैसा होता है मेरा पानी!

अन्दाज्ता हूँ चीनी
हाथ खींचकर, पहले थोड़ी
फिर और, लगभग न के बराबर
ज़रा सी!

कभी डालता हूँ गुड ही
चीनी की बजाय
बदलता हूँ जायका
अदरक, लौंग, तुलसी या इलायची से।

मुंह चमकाने के लिए महज़
दूध की
छोड़ता हूँ कोताही।

हर नींद के बाद
खौलता हूँ
अपनी ही आंच पर

हर थकावट के बाद
हर ऊब के बाद।

विद्योत्तामा

एक एक कर
तुम मेरी सब चीज़ें लौटाने लगी
मुझे लगा कि हमारा प्रेम टूट रहा है
जबकि, कभी नहीं किया था हमने प्रेम।

मैं करना चाहता था प्रेम, पूरी शिद्दत से
पर नहीं मिली तुम
तुम दिखी ही नहीं फिर कभी।

मैं दौड़ आना चाहता था तुम्हारी ओर
लिपट जाना चाहता था तुमसे।
अपने ताने बाने में
मैं ऐसा था ही,
तुम क्या
किसी को भी अधिक नहीं रुच सकता था मैं।

तुम न जाने अब, क्या सोचती होगी!
प्रिय और निरीह हूँगा मैं तुम्हारे निकट
शायद, मेरा हाल जान लेने को
उत्कट होती होगी तुम
मेरी ही तरह।

हालाँकि मैं कह नहीं सकता कि तुम गलत थीं...
मैंने जो खुट खुट शुरू की थी
मैं बहुत उलझ गया हूँ इसमें
मेरे रोयें भी बिना गए हैं इन्हीं धागों में
मैं बहुत ढल गया हूँ।

तुम्हारे बिना।

विकृति

गहरे हरे रंग की चाह में
खेतों की जगह
बनाता हूँ
घास के मैदान।

सौंदर्य को हर कहीं
नमूने की तरह देखता हुआ
किसी विकत सुन्दरता की आस में भटकता हूँ।

हर परदे में झाँक कर देखता हूँ
छुप कर डायरियों को पढता हूँ जरूर
किसी भव्य रहस्य की प्यास में
चीरता हूँ छिलके, मांस, गुठलियाँ और शून्य।

सीधे से कही गयी कोई बात
सीधी सी नहीं लगती
बहुत सारे सरल अर्थों को तोड़कर
खोजता हूँ, कोई गहरा अर्थ।