'भाषासेतु' पर गुलज़ार एक बार फिर।
गुलज़ार
इक नज़्म यह भी
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूंथा करते थे
आँख लगाकर, कान बनाकर
नाक सजा कर
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला
तेरा उपला
अपने अपने जाने पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पर खेला करता था
मेरा उपला सूख गया
उसका उपला टूट गया
रात को आंगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर कर बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आई
किसका उपला राख हुआ
वह पंडित था
वह मास्टर था
इक मुन्ना था
इक दशरथ था
बरसों बाद
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक़्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!
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Thursday, May 06, 2010
Sunday, March 14, 2010
उर्दू नज्में

चेहरे पे दुनिया भर की मलामत और दो चार दिनों की हजामत। गुलज़ार साब का ये ट्रेड मार्क है। जाने माने सिनेमादाँ और उतने ही जाने माने ग़ज़लगो। भाषासेतु के पाठकों के लिए पेश है उनकी कुछ नज्में।
गुलज़ार
बेखुदी
दो सोंधे सोंधे जिस्म जिस वक़्त
एक मुट्ठी में सो रहे थे
लबों की मद्धिम तबील सरगोशियों में साँसें उलझ गयी थीं
मुंदे हुए साहिलों पे जैसे कहीं बहुत दूर
ठंडा सावन बरस रहा था
बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ था?
तुझे ऐसे ही देखा था कि...
तुझे ऐसे ही देखा था कि जैसे सबने देखा है
मगर फिर क्या हुआ जाने...
कि जब मैं लौटकर आया
तेरा चेहरा मेरी आँखों में रोशन था
किसी झक्कड़ के झोंके से गिरी बत्ती
बस एक पल का अँधेरा फिर
अचानक आग भड़की
और हर एक चीज़ जल उठी।
पूर्ण सूर्यग्रहण
कॉलेज के रोमांस में ऐसा होता था
डेस्क के पीछे बैठे बैठे
चुपके से दो हाथ सरकते
धीरे धीरे पास आते...
और फिर एक अचानक पूरा हाथ पकड़ लेता था
मुट्ठी में भर लेता था।
सूरज ने यों ही पकड़ा है चाँद का हाथ फलक में आज।
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम
बहुत जी चाहता है फिर से बो दूँ अपनी आँखें
तुम्हारे ढेर सारे चेहरे उगाऊं, और बुलाऊं बारिशों को
बहुत जी चाहता है कि फुर्सत हो, तसव्वुर हो
तसव्वुर में ज़रा सी बागबानी हो!
मगर जानां
एक ऐसी उम्र में आकर मिली हो तुम
किसी के हिस्से की मिटटी नहीं हिलती
किसी की धूप का हिस्सा नहीं छनता
मगर क्या क्यारी के पौधे पास अपने
अब किसी को पाँव रखने के लिए भी थाह नहीं देते
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम?
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