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Monday, June 06, 2011

हिंदी कविता







दोस्तो, भाषासेतु और हिंदी साहित्य की दुनिया में पहली बार दाखिल होने वाले ये हैं नफीस खान। ३० नवम्बर १९८६ को बेतिया, बिहार में जन्मे नफीस जेएनयू में चाइनीज भाषा के स्नातक हैं और हिंदी साहित्य से इनका दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था। निहायत ही पहली बार इन्होंने यह कविता लिखी है, जिसमें जेएनयू का लोकेल एक किरदार के रूप में मौजूद है। देखते हैं हिंदी के पाठक नफीस और इनकी इस पहली कविता को कैसे लेते हैं।



नफीस खान


ये अमलतास के पीले फूल



ये अमलतास के पीले फूल

न जाने कब से

महक रहे हैं

बिना खुशबुओं के

इन पत्थरों की वादियों में

अपने होने को उकेरते हुए

हर साल कुछ पीलापन

छोड़ जाते हैं इन लाल पत्थरों के सीनों पर

बीतते हैं ये फूल भी

इतिहास के पन्नों की तरह

एक नए अध्याय की तरफ

एक नए अध्याय के इंतज़ार में

इन पत्थरों की वादियों में
ये अमलतास के पीले फूल

न जाने कब से महक रहे हैं

अपनी खुशबुएँ लुटा के।

Wednesday, March 23, 2011

महेश वर्मा की तीन कवितायेँ

रात

कभी मांसल, कभी धुआँती कभी डूबी हुई पसीने में
खूब पहचानती है रात अपनी देह के सभी रंग

कभी इसकी खडखडाती पसलियों में गिरती रहती पत्तियां
कभी टपकती ठंडी ओस इसके बालों से

यह खुद चुनती है रात अपनी देह के सभी रंग

यह रात है जो खुद सजाती है अपनी देह पर
लैम्प पोस्ट की रोशनी और चांदनी का उजास

ये तारे सब उसकी आँख से निकलते है
या नहीं निकलते जो रुके रहते बादलों की ओट

ये उसकी इच्छाएं हैं अलग अलग सुरों की हवाएं

तुम्हारी वासना उसका ही खिलवाड़ है तुम्हारे भीतर
ऐसे ही तुम्हारी कविता

यह एकांत उसकी सांस है
जिसमें डूबता आया है दिनों का शोर और पंछियों की उड़ान

तुम्हारा दिन उसी का सपना है.

कमीज़

खूंटी पर बेमन पर से टंगी हुई है कमीज़
वह शिकायत करते करते थक चुकी
यही कह रहीं उसकी झूलती बाहें

उसके कंधे घिस चुके हैं पुराना होने से अधिक अपमान से
स्याही का एक पुराना धब्बा बरबस खींच लेता ध्यान

उसे आदत सी हो गई है बगल के
कुर्ते से आते पसीने के बू की
उसे भी सफाई से अधिक आराम चाहिए
इस सहानुभूति के रिश्ते ने आगे आकर खत्म कर दी है उनकी दुश्मनी

लट्टू के प्रकाश के इस कोण से
उसकी लटक आयी जेब में भर आये अँधेरे की तो कोई बात ही नहीं .


छींक

छींक एक मजेदार घटना है अपने आंतरिक विन्यास में और बाहरी शिल्प में . अगर एक व्यक्ति के रूप में आप इसे देखना चाहें तो इसका यह गौरवशाली इतिहास ज़रूर जान जायेंगे कि इसे नहीं रोका जा सकता इतिहास के सबसे सनकी सम्राट के भी सामने। "नाखूनों के समान यह हमारे आदिम स्वभाव का अवशेष रह गया है हमारे भीतर" - यह कहकर गर्व से चारों ओर देखते आचार्य की नाक में शुरू हो सकती है इसकी सुरसुरी.

सभ्य आचरण की कितनी तहें फोडकर यह बाहर आया है भूगर्भ जल की तरह - यह है इसकी स्वतन्त्रता की इच्छा का उद्घोष। धूल जुकाम और एलर्जी तो बस बहाने हैं हमारे गढे हुए. रुमाल से और हाथ से हम जीवाणु नहीं रोकते अपने जंगली होने की शर्म छुपाते है.

कभी दबाते है इसकी दबंग आवाज़
कभी ढकना चाहते अपना आनंद.

Tuesday, March 08, 2011

हिंदी कविता


रविकान्त

युवा कवि रविकान्त हिंदी के चर्चित कवियों में से हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित रविकान्त की कविताओं की अब तक एक किताब 'यात्रा' छाप चुकी है। पेशे से, एक राष्ट्रीय चैनल में वरिष्ठ संवाददाता हैं।

चाय
न जाने कहाँ से आती है पत्ती
हर बार अलग स्वाद की।
कैसा कैसा होता है मेरा पानी!

अन्दाज्ता हूँ चीनी
हाथ खींचकर, पहले थोड़ी
फिर और, लगभग न के बराबर
ज़रा सी!

कभी डालता हूँ गुड ही
चीनी की बजाय
बदलता हूँ जायका
अदरक, लौंग, तुलसी या इलायची से।

मुंह चमकाने के लिए महज़
दूध की
छोड़ता हूँ कोताही।

हर नींद के बाद
खौलता हूँ
अपनी ही आंच पर

हर थकावट के बाद
हर ऊब के बाद।

विद्योत्तामा

एक एक कर
तुम मेरी सब चीज़ें लौटाने लगी
मुझे लगा कि हमारा प्रेम टूट रहा है
जबकि, कभी नहीं किया था हमने प्रेम।

मैं करना चाहता था प्रेम, पूरी शिद्दत से
पर नहीं मिली तुम
तुम दिखी ही नहीं फिर कभी।

मैं दौड़ आना चाहता था तुम्हारी ओर
लिपट जाना चाहता था तुमसे।
अपने ताने बाने में
मैं ऐसा था ही,
तुम क्या
किसी को भी अधिक नहीं रुच सकता था मैं।

तुम न जाने अब, क्या सोचती होगी!
प्रिय और निरीह हूँगा मैं तुम्हारे निकट
शायद, मेरा हाल जान लेने को
उत्कट होती होगी तुम
मेरी ही तरह।

हालाँकि मैं कह नहीं सकता कि तुम गलत थीं...
मैंने जो खुट खुट शुरू की थी
मैं बहुत उलझ गया हूँ इसमें
मेरे रोयें भी बिना गए हैं इन्हीं धागों में
मैं बहुत ढल गया हूँ।

तुम्हारे बिना।

विकृति

गहरे हरे रंग की चाह में
खेतों की जगह
बनाता हूँ
घास के मैदान।

सौंदर्य को हर कहीं
नमूने की तरह देखता हुआ
किसी विकत सुन्दरता की आस में भटकता हूँ।

हर परदे में झाँक कर देखता हूँ
छुप कर डायरियों को पढता हूँ जरूर
किसी भव्य रहस्य की प्यास में
चीरता हूँ छिलके, मांस, गुठलियाँ और शून्य।

सीधे से कही गयी कोई बात
सीधी सी नहीं लगती
बहुत सारे सरल अर्थों को तोड़कर
खोजता हूँ, कोई गहरा अर्थ।

Wednesday, February 23, 2011

सुधांशु फिरदौस की तीन कवितायेँ

पश्चिम बंगाल से कुछ तस्वीरों की पोस्ट के बाद, भाषासेतु अपने वायदे के मुताबिक़ एक बार फिर से हाज़िर है। सिलसिले में इस बार कोमल अभिव्यक्ति से सराबोर कविताओं वाले बिलकुल युवा कवि सुधांशु फिरदौस। सुधांशु की तीन कवितायेँ।

अप्रैल में

सोंधी गंध
गिरे हैं महुए
टप!
टप!

कूके-
रातों को कोयल
जैसे एक बेचैनी
और तुम!

उजाड़ दिन
निचाट रातें
उड़े सेमल की रुई
बेतरतीब
जैसे एक बेअख्तियारी
और तुम!

कागज पे लिखना
लिखके पढना
पढके फाड़ना
फाड़के फिर जोड़ना
जोड़ के फिर - फिर से पढना
जैसे एक बेकारी
और तुम!

चाँद क्या करेगा

जब सारे तारे चले जायेंगे
न जाते जाते
रात भी चली जायेगी
तो चाँद क्या करेगा

जब दुःख की चादर
इतनी फ़ैल जायेगी
कि बाहर निकलने की कोई सूरत नहीं बचेगी
जब समूचे आकाश का भार
अकेले उठाना मुश्किल हो जायेगा
जब लम्बे से भी लम्बा होता जायेगा
किसी के आने का इंतजार
आँखें दिए के कोर की तरह
स्याह से स्याह्तर होती चली जायेंगी
तो चाँद क्या करेगा

मेरा प्यार

मेरा प्यार
तुम्हारे दिल में
गोया दीवार पे टंगा
एक पुराना कैलेंडर
त्यक्त - भूला - ठुकराया सा
बस इस गरज से कि
उसमें लगी तसवीर को
भुला न पायी तुम

मेरा प्यार
तुम्हारे बेडरूम के कोने में पड़ा
लाफिंग बुद्धा
देखता तुम्हारे आंसुओं को ढलकते
निर्जीव सी हँसी
चस्पा उस पर

तुम्हारी घुलती - कठुआयी खीझ
पुरानी दीवार के चूने सरीखी
चेहरे से झड़ती तुम्हारी तड़प
बार बार पोंछना उसको तौलिये से
देखना सूजी आंखों को आईने में
फिर चुपके से
घोंट जाना मुँह में आए थूक को
अनचाही उम्मीद को ठुकराती
एक मलानत
इतने सालों बाद भी
तुम्हारे दिल में दबा
हाय...
...मेरा प्यार

Wednesday, January 26, 2011

भगवत रावत की लंबी कविता : देश एक राग है

छब्बीस जनवरी के अवसर पर भाषासेतु के विशेष अनुरोध पर वरिष्ट कवि भगवत रावत ने अपनी यह कविता हमारे लिए प्रकाशनार्थ उपलब्ध कराई। भाषासेतु की तरफ से उनका आभार। भगवत जी फिलहाल भोपाल में रहते हैं। हाल ही में 'सुराजे हिंद' और 'कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबोहवा और' नामक लम्बी कविताएँ विशेष रूप से चर्चित हुई हैं। लम्बी कविताओं को उन्होंने जिस खूबी के साथ साधने का दुष्कर कार्य किया है, दर्शनीय है। उम्मीद है आगे भी हम उनकी कविताएँ 'भाषासेतु' के पाठकों के लिए उपलब्ध कराते रहेंगे।

देश एक राग है


इस बार छब्बीस जनवरी पर
मैं देश के नाम सन्देश देना चाहता था
राष्ट्र के नाम नहीं
देश के नाम
जानता हूँ ऐसे सन्देश केवल
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समय समय पर देते रहे हैं
जो राष्ट्र के नाम प्रसारित किये जाते हैं
इन संदेशों की कोइ विवशता होगी
तभी तो उनकी भाषा ऐसी तयशुदा होती है की
उनमें कहीं कोई उतार-चढ़ाव नहीं होता
न कहीं मार्मिक स्पर्श

होश संभालने के बाद पिछले पचास वर्षों से
सुनता आ रहा हूँ ऐसे सन्देश और किसी का कोई एक
वाक्य भी ठीक से याद नहीं
मजेदार बात यहाँ है कि 'देशवासियों'-जैसे
आत्मीय संबोधनों से प्रारंभ होने वाले ये सन्देश
देश को भूलकर राष्ट्र-राष्ट्र कहते नहीं थकते
राष्ट्र की मजबूती, राष्ट्र की गरिमा
राष्ट्र की संप्रभुता, रार्ष्ट्रोत्थान जैसे विशेषण वाची
अलंकरणों से से मंडित
ये आत्ममुग्धता और आत्मश्लाघा
के उदाहरण बनकर रहा जाते हैं
मुझे कुछ समझ में नहीं आता
मेरी उलझन बढ़ती ही जाती है
कि देश के भीतर राष्ट्र है या राष्ट्र के भीतर देश
दोनों में कौन किससे छोटा, बड़ा
सर्वोपरि या गौण है
इस विवाद में न पड़ें तो भी
दोनों एक ही हैं यह मानने का मन नहीं करता

अव्वल तो कोई किसी का पर्याय नहीं होता
फिर भी सुविधा के लिए मान ही लें तो
देश का पर्याय राष्ट्र कैसे हो गया
अर्थात देश में सेंध लगाकर काबा राष्ट्र घुस आया
इसका पुख्ता कोई ना कोई कारण और इतिहास
होगा ही, परा मेरा कवी मन आज ताका
उसको स्वीकार नहीं कर पाया
और यदि इसका उलटा ही माना लें,
कि सबसे पुराना राष्ट्र ही है तो
हज़ारों सालों से कहाँ गायब हुआ पड़ा था
तत्सम शब्दावली की कहीं कहीं पोथियों- पुराणों के अलावा

देश-देशान्तरों की मार्मिक कथाओं से भरा पडा है
सारी दुनिया का इतिहास
राष्ट्रों की कहानियां कौन सुनता-सुनाता है
अब आप ही बताइये
कि क्या कोई ठीक-ठीक बता सकता है कि कब
देश कि जगह राष्ट्र और राष्ट्र की जगह देश
कहा जा सकता है

हमारे जवान देश की सीमानों की रक्षा करते हैं
हम देश का इतिहास और भूगोल पढ़ते-पढ़ाते हैं
सना सैंतालीस में हमारा देश आजाद हुआ था
मैं भारत देश का नागरिक हूँ
ऐसे सैकड़ों वाक्य पढ़ते पढ़ाते बीत गयी उम्र
जब-जब, जहां-जहां तक आँखें फैलाई
दूर दूर तक देश ही देश नजर आया
राष्ट्र कहीं दिखा नहीं

आज भी बड़े-बड़े शहरों से मेहनत-मजदूरी करके जब
अपने-अपने घर-गाँव लौटते हैं लोग तो एक दूसरे से
यही कहते हैं कि वे अपने देश जा रहे हैं
वे अपने पशुओं-पक्षियों, खेतों-खलिहानों
नदियों-तालाबों, कुओं-बावडियों, पहाड़ों-जंगलों,
मैदानों-रेगिस्तानों,
बोली- बानियों, पहनावों-पोशाकों, खान-पान
रीति-रिवाज और नाच गानों से इतना प्यार करते हैं
किकुछ न होते हुए गाँठ में
भागे चले जाते हैं हज़ारों मेला ट्रेन में सफ़र करते
बीडी फूंकते हुए

वे सच्चे देश भक्त हैं
वे नहीं जानते राष्ट्र-भक्त कैसे हुआ जाता है
आजादी की लड़ाई में हंसते-हँसते फांसी के फंदों पर
झूलने वाले देश-भक्ति के गीत गाते-गाते
शहीद हो जाते थे
ऊपर कही गही बातों में से देशा की जगह राष्ट्र रखकर
कोई बोलकर तो देखे
राष्ट्र-राष्ट्र कहते-कहते जुबान न लडखडाने लगे
तो मेरा नाम बदल देना
वहीं एक वाक्य में दस बार भी आये देश तो
मीठा ही लगेगा शहद की तरह

देश एक राग है
सुवासित-सुभाषित सा फैलता हुआ धीरे-धीरे
स्नेहित तरंगों की तरह बाहर से भीतर तक
भीतर से बाहर तक
स्वयं अपनी सीमाएं लांघता
सुगन्धित मंद-मंद पवन की तरह
सारी दुनिया को शीतल करता धीरे धीरे
सारी दुनिया का हिस्सा हो जाता है

कितना भी पुराना और पवित्र रहा हो राष्ट्र शब्द का इतिहास
पर आज पता नहीं क्यों बार-बार
यह शब्द एक भारी भरकम बनायी गयी ऐसी अस्वाभाविक
डरावनी आवाज लगता है जो सत्ता और शक्ति के
अहंकार में न जाने किसको
ललकारने के लिए उपजी है
अपना बिगुल खुद बजाती जिससे एक ही शब्द
ध्वनित होता सुनायी देता है
सावधान!
सावधान!
सावधान!

मैं देश के नाम सन्देश देने के बारे में कह रहा था
और कहाँ से कहाँ निकल गया
यह सही है कि मैं न देश का राष्ट्रपति हूँ
न प्रधानमंत्री, नाकोई सांसद, न विधायक
यहाँ तक कि किसी नगरपालिका का कोई
निर्वाचित सदस्य तक नहीं हूँ

पर सभी ये कहते हैं कि ये जो अच्छे-बुरे जो भी हैं
सब मेरे ही कारण हैं
मैंने ही बनाया है उन्हें
तो इसी नागरिक अधिकार के साथ मेरा देश के नाम सन्देश
क्यों प्रसारित नहीं किया जा सकता
की स्वतन्त्र भारत न गढ़ पाने की कोई दबी-छिपी रह गयी
गुलाम मानसिकता
या परायों के तंत्र से मुक्त न हो पाए की कोई
विवशता

आप जो भी कहें
और आप पूरी तरह मुझे गलत भी साबित कर दें
और जो आप कर भी सकते हैं
कहाँ-कहाँ से पुरानो और पोथियों से प्रमाण
खोजकर ला सकते हैं और मुझे चारो खाने चित्त कर सकते हैं
पर जो सामजिक इतिहास मुझे दिखाई देता है
राष्ट्रों का वह कतई आत्मीय नहीं है

अपने ही भारत देश के बारे में सोचकर देखिये
की भारत में महाभारत कभी नहीं होता
यदि उसका सम्राट ध्रितराष्ट्र न होता जिसे
अपने सिंहासन के अलावा
कुछ भी दिखाई नहीं देता था
इतना ही नहीं उसकी रानी ने भी आँखों पर
पट्टी बाँध राखी थी ताकि उसे भी कुछ दिखाई न दे अपने पुत्रों के मोह के अलावा
भारत में महाभारत कुछ अतापता नहीं लगा आपको
और क्या ध्वनी निकलती है इस वाक्य से सत्ता के आतंक, दंभ, हिंसा और
युद्ध के अलावा
जिस-जिस शब्द से जुदा यह 'महा' उपसर्ग
शब्द की सूरत बदल कर रख दी
उदाहरण देने से क्या लाभ
आप ही जोड़कर देख ले सीधे-सादे शब्दों
के आगे यह उपसर्ग
मैं किसी 'शब्द और 'नाम'' का अपमान नहीं
कर रहा हूँ
और 'महाभारत' जैसे आदिग्रंथ का तो बिलकुल नहीं
वह न लिखा गया होता तो
युद्ध की विभीषिका और निरर्थकता का कैसे पता चलता
कैसे पता चलता की युद्ध में हार ही हार होती है
कोइ जीतता नहीं

'राष्ट्र' ही सर्वोपरि है तो एक ही राष्ट्र के भीतर
कई राष्ट्रेयाताओं की धारणा से आज भी
मुक्त नहीं हुए आप
व्यर्थ गयी हजारों वर्षों की यात्रा आपकी
बर्बर तंत्र से प्रजातंत्र तक की
तो फिर जाइए वापस अपने-अपने
राष्ट्रों में
लौट जाइए अंधेरी खाइयों-गुफाओं में
यही तो चाहते हैं आज भी
नए चेहरों वाले आपके पुराने विस्तारवादी
माई-बाप
कभी जो नेशन का सिद्धांत लेकर आये थे और बढाते रहे
अपना साम्राज्य

इतने वर्षों की दासता से कुछ सबक सीखा नहीं आपने
धर्म के नाम परा बांटा गया
खुशी-खुशी बाँट गए
भाषाओं के नाम पर अलग-अलग किया गया
अलग-अलग हो लिए
अब अपनी-अपनी जातियों के नाम पर भी बना लीजिये अपने- अपने, अलग-अलग राष्ट्र
और अब इस बार डूबे तो कोइ किसी को
नहीं बचा पाएगा

मैं फिर कहता हूँ की मैं किसी शब्द और किसी
नाम का अपमान नहीं कर रहा हूँ
केवल उस मानसिकता की तरफ संकेत कर रहा हूँ
जो अपनी कुलीनता के दंभ में अपने ही देश में
अपने ही बर्चस्व का
अलग राष्ट्र हो जाना चाहती है
और धीरे धीरे सारे देश को
इकहरा राष्ट्र बनाना चाहती हैं
आज भी इक्कीसवीं सदी में
ज्ञान-विज्ञान सब एक तरफ रख कर ताक में
रक्त की शुद्धता, पवित्रता की दुहाई देकर
भोले-भाले लोगों को जिन गुफाओं में ले जाकर
ज़िंदा दफन कर देना चाहते हैं वे
इतिहास गवाह है उन गुफाओं से नकलने में
सदियाँ बीत जाती हैं

आप समझ ही गए होंगे बात महज शब्दों की नहीं, प्रवृत्तियों की है
और कठिनाई यही है की उनके बारे में
शब्दों को छोड़कर बात की नहीं जा सकती
भाषा में इस प्रवृत्ति को
'तद्भव' को 'तत्सम' में जबरदस्ती रूपांतरित
करने का शीर्षासन कह सकते हैं
सभी जानते हैं की यह अस्वाभाविक प्रक्रिया है
'फज़ल' ने किस सादगी से कहा था
'पहाड़ तक तो कोइ भी नदी नहीं जाती'

यह मानसिकता देश की बहुरंगी संस्कृति को
पहले राष्ट्र की संस्कृति कहकर इकहरा बनाती है
फिर देश को एक तरफ फेंक
सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का नारा लगाती है
मैं किसकी कसम खाऊँ
मुझे भाषा के किसी शब्द से चिढ़ नहीं है
चिढ़ है तो उस मानसिकता से जो शब्दों को
मनुष्य के विरुद्ध खड़ा कर देती है
जो सिर्फ मनुष्य को दिए गए नामों से पहचानती है
उनकी जातियों से पहचानती है,
उनके रंगों से पहचानती है
और उनकी भाषा में कभी दिए गये ‘ईश्वर’
के नाम के लिए उनके अलग-अलग शब्दों से
पहचानती है

देश देशजों से बनता है
उनकी बहुरंगी छटा देशों का इन्द्रधनुष बनती है
जो सबको अपने-अपने आसमान में दिखाई देता है
कौन होगा जिसका मन इन्द्रधनुष देखकर
इन्द्रधनुष जैसा न हो जाए

मान लिया
मान लिया कि अंग्रेजी के ‘नेशन’ शब्द के लिए हिंदी में
फिर से पैदा हुआ ‘राष्ट्र’
तो ‘नेशन’ शब्द में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं
पश्चिमी दुनिया की लगभग सभी भाषाओं में
कितना प्यारा है ‘कन्टरी’ शब्द अर्थात ‘देशज’
कब और कैसे दबोच लिया
‘कन्टरी’ जैसे आत्मीय शब्द को ‘नेशन’ ने
यह खोज का विषय होना चाहिए
जरूर उसके पीछे कोई बर्बरता छिपी होगी

इस सबके बाद भी
आपको अपना राष्ट्र मुबारक
मुझे तो अपना देश चाहिए
आपको इक्कीस तोपों की सलामी मुबारक
मुझे आसमान में मेरा लहराता तिरंगा चाहिए
बुरा लगा हो तो माफ करना
मैं तो अपने लोकतंत्र में अपनी छोटी सी
नागरिक इच्छा पूरी करना चाहता था
कि इस बार छब्बीस जनवरी पर
मैं देश के नाम सन्देश देना चाहता था

Wednesday, January 12, 2011

हिंदी कविता

जैसा कि 'भाषासेतु' के पाठकों से हमारा वायदा था कि अब से हम हर हफ्ते बुधवार के दिन एक नए पोस्ट के साथ हाजिर होंगे, तो इस बार आपके समक्ष हैं हिंदी के जाने माने कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव की चन्द कविताएँ। 'इन दिनों हालचाल', 'अनभै कथा', 'असुंदर सुन्दर' नामक तीन संग्रहों के 'मालिक' जितेन्द्र पेशे से प्राध्यापक हैं। कविता के अलावा आलोचना पर भी समान अधिकार। भारत भूषण अग्रवाल सम्मान, कृति सम्मान, भारतीय भाषा परिषद के युवा पुरस्कार समेत कई महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाजे गए जितेन्द्र की प्रेम कविताओं का एक संग्रह 'बिलकुल तुम्हारी तरह' जल्दी ही प्रकाशित होने वाला है। पेश है इसी संग्रह से कुछ प्रेम कविताएँ।

जितेन्द्र श्रीवास्तव
पहचानना हथेली की तरह

तुम्हें पहचानता हूँ
अपनी हथेली की तरह

तुम्हारे माथे पर
उभर आईं रेखाएँ
मेरे हाथ की लकीरों की तरह हैं।

तुम्हारे नाम


भीगी सी शाम
तुम्हारे नाम

पात पात पर पानी फिसले
आँखों में कुछ आये मचले
इधर उधर की बातें प्यारी
सुबह सांझ में कैसी यारी

वह देखो बेवक्त
निकला है घाम।

पहाड़

ये पहाड़ हैं प्रिये
देश की देह पर ढाल से

यहाँ गाती हैं युवतियां मौसम के गीत
करते हुए काम
गाती हैं मेरे गाँव के पहाड़ कितने सुन्दर हैं
इन दिनों दृश्य कितना मनोरम है
ऐसे में फौजी पिया घर आ जा
दिल के करार आ जा
जीवन के बहार आ जा।

इन दिनों हालचाल
काँप रहा है दिन
और धुप भी पियराई है
न जाने
कौन ऋतु आई है!

उजास
तुम्हें फूल होना था
तुम पत्ती हुई

मुझे रंग होना था
मैं पानी हुआ

पानी-पानी जवानी-जिंदगानी हुई!

Monday, November 08, 2010

हिंदी कविता


विपिन चौधरी
हिंदी की चर्चित युवा कवयित्री। दिल्ली में रहनवारी। मीडियाकर्मी। 'भाषासेतु' पर पहली बार प्रकाशित हो रही हैं।


एक रिश्ता

एक रिश्ता जिसके पायदान पर कदम रखने से ही तस्वीर अपना पुराना अक्स खोने लगी
निश्चित समय के बाद वह रिश्ता डसने लगा बार- बार
हर बार जैसे मैं अजगर के मुँह से घायल हो कर बाहर निकली

बदलाव से इंकार करते हुये मै बदली
ठीक वैसे ही जैसे
पानी में जमा धूल-मिटटी तलछटी में जमा हो जाती है
मेरा भीतर भी पाक-साफ हो कर
मुझे मरियम की तरह बेधडक हो कर
जीना एक बार तो सीख ही गयी

इंसान बनने की प्रक्रिया में
किसी रिश्ते ने शैतान बनने पर मजबूर किया
तो किसी ने देवत्व की राह दिखाई
सिर्फ आदमी ही रिश्ते बना सकता है
यह धारणा पक्की होने से पहले ही धूमिल हो गयी
जब पेड-पौधों, हवा-पानी से भी बेनाम सा रिश्ता सहजता से बना
इसी क्रम में सबसे नज़दीक का रिश्ते को सबसे दूर जाते हुए भी देखा

एक रिश्ता जो हमने बडे मनोयोग से बनाया
उनमें नमक कुछ ज्यादा था
जब वो रिश्ता टूटा
तो दिल में ही नहीं, आँखों तक में
नमक उतर आया

जिन रिश्तों में खाली जगह थी
झाडियाँ बेशुमार उग आयी
बारिश के मोसम मै खरपतवारें बढती गयी
और हमारे नजदीक आने की संभावना
कम होती गई

एक वक्त था जब मैं रिश्ते जोड सकती थी
आज सिर्फ तोड सकती हूँ
सावधानी वश कुछ पुराने रिश्ते
दीमक और सीलन से बचने के लिये धूप में सुखाने के लिये रख दिए
और कुछ को दुनिया की टेढी नज़र से बचाने के लिये ऐयर टाईट डिब्बे में कस के बंद कर दिये

रिश्तो की इसे उहापोह में
एक अनोखे रिश्ते की डोर मेरे हाथ से छूट कर पंतग की तरह आसमान में जा अटकी
उसी को तलाशती मै आज तक आकाश मै गोते लगा रही हूँ।

Friday, September 17, 2010

हिंदी कविता


कुणाल सिंह
नोकिया 6300

नाईन एट थ्री वन जीरो...

मैंने जोर से सटा लिया कानों पर और सुनने लगा
रिंग टोन
जैसे कम्बल में लिपटी आवाज़
गझिन, गर्म-गुदाज़
सुदूर बजती जाने कौन से स्वर में
सचमुच की आवाज़ के बदले, तब तक के लिए
आवाज़ की प्रतिकृति- हैलो ट्यून
तब तक के लिए उतावली प्रतीक्षा में एक तुतलाता ढाढस

तब तक के लिए घिर आते हैं बादल
अपने अक्ष पर दौड़ते दौड़ते थम जाती है पृथ्वी
एक चिड़िया का चहचहाना रुक जाता है कहीं
कहीं एक फूल का खिलना स्थगित हो जाता है तब तक के लिए
ट्रैफिक की बत्ती पीली है और अब तक अवरुद्ध सा कुछ
मचल पड़ता है खुल पड़ने को, चारों तरफ
मेरी सांस तेज तेज चलती है
शिराओं-धमनियों में दौड़ता है लहू तेज तेज
रोमकूपों में समा जाते हैं रोमांच के छोटे छोटे दाने अनगिन

यह सब एकदम शुरू शुरू का होना है
ऊपर के सख्त परत के एक बार हटते ही
गरगर बहने लगता है भीतर का तरल
लेकिन यह हर बार का होना है, ऐसे ही
हर बार का यह प्रतीक्षित, रुका सा
हर बार ऐसे ही पुनर्नवा

एकाएक चुकने लगेंगे सारे शब्द, सारी ध्वनियाँ, अर्थ सारे
भाषा का पृष्ठ जैसे कोरा हो चलेगा एकाएक
पृथ्वी नयी नकोर

अभी थोड़ी देर में
छटेंगे यही बादल
यहीं से निकलेगा जाना पहचाना सूरज रोज का
यहीं से विकसेगी सभ्यता, संतति के बीज अन्खुवायेंगे यहीं से
अभी थोड़ी देर में शुरू होगा सब, फिर से
एक भाषा का निर्माण होगा
और पहली बार हव्वा कहेगी आदम से
भाषा का पहला पवित्र शब्द- हैलो!


नाटक
सियालदह से लास्ट लोकल के छूटने में अभी देर है
खिड़की वाली सीट पर बैठे बैठे रमापद
सो गया है या केवल सोने का नाटक करता है कौन जाने

1989 में जब रमापद छोटा था
मोहल्ले के लोगों के बीच बहुत फेमस था
लोग कहते थे कालोशशि तुम्हारा छोटा लड़का
क्या ही खूब नाटक करता है मरने का
जान डाल देता बस!
दुर्गापूजा में बारीपाडा हाईस्कूल माठ में
नाटक खेला जाता था तो रमापद को
रोल दिया जाता था मरने का
कालोशशि तब मन ही मन जरूर डर जाती थी
लेकिन उसे और भी ज्यादा डर लगता था रमापद के बाप हरिपद से
अपनी छाती से सटाकर कहती थी क्या बताऊँ रमा
तुम्हारे बाप की अंतड़ी में दो घूँट शराब के पड़ते ही
वह जैसे शैतान का रूप धर लेता है
वास्तव में रमापद का बाप हरिपद शैतान था
या शैतान होने का नाटक करता था कौन जाने

1989 नहीं रहा, रमापद का बाप
हरिपद कभी का मर गया ज़हरीली शराब से
कालोशशि भी एक बार मर ही गयी थी लेकिन
फिर यह कहकर जी उठी कि रमापद की शादी हो जाये
बहू का मुंह देख ले फिर मारेगी चैन से
अभी कौन सी लास्ट लोकल छूटी जा रही है- हाँ तो!
यही सब सोचता है रमापद नींद में
खिड़की वाली सीट पर बैठकर

रमापद की बीवी मुनमुन ने
लौकी की डंठल और रोहू की एक साबुत मूडी डालकर
दाल बनायीं है क्या ही स्वादिष्ट
पोस्ते का दाना भूनेगी रोटी सेंकेगी गरमागरम
रमापद के आ जाने के बाद
रमापद की बीवी मुनमुन
लौकी कि डंठल और रोहू की मूडी डली दाल बनाकर
'स्वीट ड्रीम्स' कढ़े तकिये पर सर रखकर
सो गयी है या सोने का नाटक करती है कौन जाने

1989 में मुनमुन ने प्रेम किया था
नागा घोष के मंझले लड़के सन्नी देओल से
मोहल्ले में क्या ही हो-हल्ला मचाया था मुनमुन के बाप सुमन सरकार ने
स्कूल से पीठ पर बस्ता टाँगे लौटती मुनमुन को
अपनी साईकिल के कैरियर पर बिठाकर
भाग चलने को कहा था सन्नी देओल ने बहुत दूर सूरत को जहाँ
उसका ममेरा भाई राजू नौकरी करता था किसी कपड़ा मिल में
रिजर्वेशन, कोर्ट मैरिज, जेरोक्स, एसटीडी कॉल-
उस उम्र में मुनमुन डर के मारे थर थर कांपने लगी थी यह सब सुनकर
'जमाने की दीवार', 'अरमान', 'मियां-बीवी राजी',
'दो दिलों का बिछड़ना सदा सदा के लिए', 'बर्दाश्त से बाहर'
और अपनी बांहों की मछलियाँ दिखाने के बाद भी निराश
साईकिल के कैरियर पर बिठाकर
छोड़ गया था सन्नी देओल उसे उसके बाप के घर
कई दिनों तक रोती-सुबकती रही थी मुनमुन
सन्नी देओल के बनाए दिल और उसमें बिंधे तीर को देख देख
कई दिनों तक सुनती रही थी लोगों के बोल-
साली नाटक करती है!

1989 नहीं रहा, नागा घोष सुमन सरकार मर-खप-बिला गए
सन्नी देओल बहुत दूर सूरत में, या कि दिल्ली में
नौकरी करता है या नौकरी का नाटक कौन जाने
यही सब सोचती है रमापद कि बीवी मुनमुन
'स्वीट ड्रीम्स' कढ़े तकिये पर सर रखकर सोते हुए

हुर्र हुर्र भागती है लास्ट लोकल
रमापद खटखटाता है घर का दरवाज़ा
खूब चाव से खाता है रमापद, मुनमुन के
हाथ के बने खाने की तारीफ़ करता है खूब
बिस्तर पर पड़ते ही सो जाता है, आधी रात
झकझोड़कर जगाती है मुनमुन रमापद को
1989 1989 1989 -हुर्र हुर्र भागता है 1989
खूब प्यार करती है मुनमुन रमापद को- देर तक।

Tuesday, July 20, 2010

स्पहानी कविता


फेदेरिको गार्सिया लोर्का
अलविदा

बीच चौराहे पर
कहूंगा
अलविदा
चल निकलने के लिए
अपनी आत्मा की रहगुजर।

स्मृतियों और बीत चुके कठिन दौर को
जगाता हुआ
पहुचूंगा
अपने (सफेद से)
उदास गीत के
छोटे से बगीचे में
और कांपने लगूंगा
भोर के तारे जैसा।

भाषासेतु के लिए इस कविता का खासतौर से अनुवाद किया है युवा कवि कथाकार श्रीकांत दुबे नेकविता का अनुवाद कितना कठिन होता है, ये कौन नहीं जानता, तिस पर श्रीकांत मूल स्पहानी से अनुवाद का कार्य करते हैं. तस्वीर लोर्का की है

Monday, June 14, 2010

हिंदी कविता


मंजुलिका पाण्डेय

'भाषासेतु' के हमारे दोस्तों को याद होगा, अभी हाल ही में हमने युवा कवयित्री-कथाकार मंजुलिका पाण्डेय की दो कविताएँ प्रकाशित की थीं। इस बीच 'नया ज्ञानोदय' के युवा पीढ़ी विशेषांक में मंजुलिका की एक कहानी 'उस दिन' प्रकाशित हो चुकी है। एक बार फिर मंजुलिका की दो कविताएँ यहाँ दी जा रही हैं। प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।


कही अनसुनी

एक दूसरे के कन्धों पर झुके
हम तुम हैं बिलकुल पास पास
(लगता सचमुच ऐसा ही है देखकर)
एक दूसरे के कानों में बोलते हुए
बिलकुल एक जैसे लगते शब्द
मैं सोचता हूँ...
तुम थाम रहे हो मेरे शब्द
और कर रहे हो अर्थों की बुनाई

तुम्हें लगता है मैं पी रहा हूँ तुम्हारे शब्द
और भर रहा हूँ उसके भावों से
पर...
एक सी आवाज़ एक सी ध्वनि, एक से अक्षरों वाले
शब्दों की भाषा ऐसी
कि मेरे लिए तुम्हारे शब्द
सिर्फ एक आकारहीन चित्र
तुम्हारे लिए मेरे शब्द
सिर्फ एक शोर।

नयी फसल
हवा में टंगे हुए धड
उड़ रहे हैं
फर्लांग रहे हैं सीमायें
जूझ रहे हैं खूब
हवा की गति को पछाड़ने के लिए
धकिया रहे हैं एक दूसरे को
चाँद पे ज़मीन हथियाने के लिए

और धरती पर हो रही है खेती
उखडे हुए टांगों की।