Friday, April 30, 2010

औरों के बहाने




गिरिराज किराडू हमारे समय के जाने माने कवि हैं। 'मेज़' शीर्षक शुरुआती कविता पर ही प्रतिष्ठित 'भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार' मिला। संकोची इतने कि अपना लिखा बहुत कम दिखाते और उससे भी कम छपवाते हैं। शायद इसी वजह से अब तक पहली किताब ने अपने 'नौ महीने' पूरे नहीं किये। बीकानेर, राजस्थान के रहने वाले गिरीराज फ़िलहाल जयपुर में अंग्रेजी के व्याख्याता हैं।


छुपी हुई चीजों का संग्रहालय
गिरिराज किराडू
फ्लाबेयर का उपन्यास 'मादाम बोवारी' एक विवाहिता के तीन पुरुषों से प्रेम की कथा है। तोलस्तोय के 'अन्ना कारेनिना' में अन्ना की प्रेमकथा उसके विवाह के कई बरस बाद तब शुरू होती है जब उसका बेटा बारह बरस का होने को आया है। शरतचंद्र का देवदास अपनी प्रेमिका की ससुराल के बाहर अपनी अंतिम साँस लेता है। गार्सिया मार्केस के 'लव इन टाइम ऑफ़ कॉलरा' का नायक फ्लोरेंतिनो एरिज़ा एक विवाहिता के पति के मरने का इंतजार पचास बरस तक करता है और इन पचास बरसों में ६२१ स्त्रियाँ उसके जीवन में आती हैं। माइकल ओन्दत्ज़ी के दूसरे महायुद्ध की पृष्ठभूमि में घटित हो रहे उपन्यास 'द इंग्लिश पेशेंट' में अल्मासी अपने सहकर्मी की पत्नी से प्रेम करता है और अरुंधती रॉय के 'मामूली चीजों के देवता' में एक दूसरे से प्रेम करने वाले राहेल और एस्था भाई बहन हैं जबकि उनकी माँ अम्मू एक दलित वेलुथा से प्रेम करती है।
१८५६ में पहली बार प्रकाशित 'मादाम बोवारी' से १९९६ में प्रकाशित अरुंधती रॉय के उपन्यास तक लगभग डेढ़ सौ बरसों में, और पहले भी, प्रेमकथाएं बार बार हमें उस इलाके में ले जाती रही हैं जहाँ हमें चेक उपन्यासकार मिलान कुंदेरा के शब्दों में नैतिक निर्णय को स्थगित करना पड़ता है। न्यायालय या धर्मतंत्र के लिए मादाम बोवारी या अन्ना कारेनिना या अल्मासी या राहेल और एस्था का आचरण अनैतिक था और रहेगा। एक आधुनिकतम समाज व्यवस्था और सर्वाधिक न्यायपूर्ण राजनैतिक व्यवस्था भी विवाहित व्यक्तियों के प्रेम या अगम्यागमन को दंडनीय ही मानेगी, लेकिन एक कलाकृति की दृष्टि में उन पात्रों पर नैतिक निर्णय आरोपित करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ और होता है। वह हमें मनुष्य होने के कुछ अधिक संश्लिष्ट अँधेरे-उजाले में आने के लिए उकसाती है। हमारे समाज-नैतिक बोध को असमंजस में डालती है और हमें जीवन की एक सरलीकृत समझ में गर्क होने से बचाने का प्रयास करती है। हमारे समय में समाज-नैतिक दबाव एक तरफ जहाँ कम हुआ है वहीँ दूसरी तरफ प्रेम को किसी सामाजिक या मजहबी या सांस्कृतिक आचार संहिता से दमित करने वाली ये संस्थाएं नियंत्रण करने की पुरुष फंतासी से निकली हुई संरचनाएं ही हैं। कलाकृतियां कभी मुखर और कभी गुपचुप तरीके से वैकल्पिक नैतिकता और वैकल्पिक सामाजिकता का निर्माण करती रही हैं। मुखर तरीके से जब वे ऐसा करती हैं तो उनको लेकर बहुत त्वरित और उत्तेजित प्रतिक्रिया होती है और तब सामान्यतः उन्हें अनैतिक और सनसनीखेज कृति करार दिया जाता है। लेकिन कलाकृतियां हमारे बिना जाने और अक्सर बिना चाहे भी अपना काम करती रहती हैं और हम ये पाते हैं कि कभी अनैतिक ठहरा दी गयी कृति प्रेम और नैतिकता का सबसे मर्मस्पर्शी आख्यान बन गयी है। वो चुपचाप अपना काम करते हुए अस्तित्वा के बारे में हमारी समझ को ही इस तरह बदल देती है कि हम अन्ना या बोवारी को दुराचारिणी स्त्रियों की तरह या राहेल या एस्था को पापपूर्ण और घृणित वासना के शिकार चरित्रों की तरह देखने की बजाय ऐसे मनुष्यों की तरह समझने की कोशिश करते हैं जिनकी आस्त्वित्विक परिस्थिति का समाज-नैतिक पर्यावरण के साथ सम्बन्ध असमंजस या तनाव का होता है। उनकी कथाएँ जितना उनके भीतर के संसार से हमारा परिचय कराती है उतना ही उस पर्यावरण की अपनी संरचना से भी। उन चरित्रों की विडम्बना में हम समाज-नैतिक पर्यावरण की अपनी विडंबनाओं को, उसके छल और उसकी असहिष्णुताओं को झांकता हुआ पाते है।
समय में भी प्रेमकथाओं ने अपना काम करने का यह खास ढंग बनाए रखा है। इयान मैकिवान के उपन्यास 'अनटोनमेंट' (2001) के एक दृश्य में एक पुस्तकालय में प्रेम-क्रीडा कर रहे दो पात्रों रोबी और सिसिलिया को तेरह वर्षीया ब्रियोनी देख लेती है। वह सिसिलिया की छोटी बहन है और इस दृश्य को ऐसे समझती है कि साधारण परिवार से आने वाला रोबी उसकी बहन के साथ जबरदस्ती कर रहा है। बाद में ब्रियोनी की गवाही पर रोबी को बच्चों का अपहरण करने के ऐसे अपराध में जेल हो जाती है जो उसने किया ही नहीं। ब्रियोनी को नहीं मालूम कि वह अपराध किसने किया लेकिन पुस्तकालय वाले दृश्य का असर उसके चित्त पर ऐसा है कि वह रोबी को उसके 'मूल अपराध' के लिए दंड देती है। एक तेरह वर्षीया अल्पवयस्क को प्रेम के 'अपराध' को नियंत्रित करने वाली नैतिक और अंशतः एक कानूनी शक्ति की तरह प्रस्तुत करते हुए मैकिवान ने एक ऐसा दृश्य घटित किया है जो हमारी चेतना को एक तरफ ब्रियोनी और दूसरी तरफ रोबी और सिसिलिया की यातनाओं का हिस्सा बना देता है। ब्रियोनी बाद में एक उपन्यासकार बनती है और अपने उपन्यास में युद्ध में अकाल मर चुके रोबी और सिसिलिया के साथ 'न्याय' करती है : उपन्यास में उनका मिलन हो जाता है।
गार्सिया मार्केस के 'माई मेलंकली व्होर्स' (2004) का मुख्य पात्र नब्बे बरस का होने वाला है और अपने जन्मदिन पर वह खुद को एक कुंवारी लड़की का संसर्ग उपहार में देता है। यह अविवाहित अनाम पात्र जो धन के बदले में पांच सौ से अधिक स्त्रियों के साथ संसर्ग कर चूका है, सीधे सीधे एक पतित चरित्र जान पड़ता है और उसकी कामना बहुत विकृत किस्म की वासना। लेकिन मार्केस ने इस चरित्र को इस प्रकार रचा है कि वह प्रेम के सच्चे, परिपूर्ण करने वाले अनुभव से वंचित एक पात्र है। एक गहरे अर्थ में खुद भी एक कुंवारा, जो अपनी मृत्यु का सामना करते हुए अपने 'पहले' प्रेम का आविष्कार करता है।
ये उपन्यास इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे समय में गंभीर कलाकृतियाँ प्रेम को एक सपाट सनसनीखेज किस्से में बदल दिए जाने का एक सर्जनात्मक प्रतिवाद बनी हुई हैं। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की प्रेमकथाओं का कोई भी जिक्र ओरहन पामुक के नवीनतम उपन्यास 'द म्यूजियम ऑफ़ इन्नोसेंस' (२००८) के बिना अधुरा होगा। इस उपन्यास में व्यवसाई कमाल की अपने से बारह बरस छोटी, खुद उसके मुकाबले में बहुत 'गरीब' और दूर की रिश्तेदार फुसुन से प्रेम की कथा तीन बरस के लम्बे वक़्त में फैली हुई है। कमाल फुसुन को जब पहली बार देखता है, वह अपनी मंगेतर सिबिल के साथ है। 'बहुत आसानी से' दोनों के बीच शारीरिक प्रेम घटित होता है। फुसुन की आधुनिकता- स्विम सूत पहनना, ब्यूटी कोंटेस्ट में भाग लेना, विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को लेकर सहज होना- से अचंभित कमाल उससे दूर भागने की, अंततः असफल, कोशिश करता है। वह जब तक फुसुन के जीवन में लौट पाटा है, उसकी शादी हो चुकी है और अब उसकी 'पारम्परिकता' उन्हें एक दूसरे से दूर रखेगी। कमाल हर उस चीज़ का संग्रह करने लग जाता है जिसे फुसुन ने कभी छुआ हो और उसका संग्रह ही 'अबोधता का संग्रहालय' है।
प्रेमकथाएं भी शायद एक तरह का संग्रहालय होती हैं; हमारे और समाज के चेतन-अवचेतन का संग्रहालय, जो प्रदर्शित चीजों से कहीं ज्यादा छुपी हुई चीजों सजा रहता है। अगर आपका कुछ खो गया हो तो एक बार वहां हो आये, हो सकता है मिल जाए।

Monday, April 26, 2010

हिंदी कविता

गौरव सोलंकी हमारे समय के चुनिन्दा कथाकारों में से हैं। लिखने की शुरुआत कविता लिखने और प्रेम करने से की। तद्भव, ज्ञानोदय, वागर्थ, कथादेश आदि पत्रिकाओं में छप चुके हैं। फिल्मों के खासे शौकीन। जल्दी ही कहानियों की आपकी पहली किताब छपने वाली है। 'भाषासेतु' के पाठकों के लिए पेश है गौरव की कुछ ताज़ातरीन कविताएँ।





गौरव सोलंकी

चूमना और रोते जाना
गोल घूमता आकाश,
उजाला और ईमान,
मेरा खत्म होना, शुरू होना, तुम्हारा माँगना पानी,
देर और डर होना,
हम चले आते हैं ऐसे
जैसे जाना जाना न हो, हो श्मशान, ज्वालामुखी, घोड़ा आखिरी या ईश्वर ख़ुद।

बेहतरीन होने की जिद में
चप्पलें घर पर ही भूल जाना,
खींचना सौ किलो साँस, बाँटना शक्कर, देखना अख़बार।
हो जाना अंधा और खराब,
बिगड़ना जैसे कार,
भींचना मुट्ठी और गोली मारना,
सच बोलना और खाना जहर।

करारे परांठे और किताबें खाना,
बेचना दरवाजे, तोड़ना खिड़की,
घर होना या कि शहर,
तुम्हारी बाँहों में नष्ट होना,
जैसे होना स्वर्ग, लेना जन्म, माँगना किताबें, देखना जुगनू और बार बार वही आकाश।

शहर से बाहर आकर
अपने चश्मे और मतलब आँखों में लौट जाना।
माँगना माफ़ी।

चूमना और रोते जाना।


जहाँ से सड़क शुरू होती है
जहां से सड़क शुरू होती थी
वहां पहली दफ़ा मैंने जानी
कोई राह न बचने वाली बात
और यह कि मजबूर होना किसी औरत का नाम नहीं है।
जब सब मेरे सामने थे
तब मैं रुआंसा और कमज़ोर हुआ
और शोर बहुत था
कि गर्मियां आती गईं गाँव के न होने पर भी।

भूल जाऊँ मैं अँधेरा, हँसी और डिश एंटिने,
पक्षियों से मोहब्बत हो तो जिया जाए,
हवास खोकर पानी ढूँढ़ें, मर जाएँ
और किसी बस में न जाना हो हमेशा अकेले।

वे सराय, जिनमें हम रुकते किसी साल
अगर हम जाते कहीं और रात होती,
वे पहाड़, जिन पर टूटते हमारे पैर,
वे चैनल, जिन्हें प्रतिबंधित किया जाता और हम करते इंतज़ार,
वे चूहे, जो घूमते मूर्तियों पर सुनहरे मन्दिर में,
वे शहर, जिनमें रंग और सूरज हों, रिक्शों के बिना,
हम अगले साल धान बोते तुम्हारे खेत में
और उनमें वे सब हमारे दुख के साथ उगते।

अकाल हो विधाता!

Saturday, April 24, 2010

জীবনগীতিকা

মৃনালেন্দু দাশ

এইখানে বসে আছি রোজকার মতো
তুমি এসে পাশটিতে বসতেই শুরু
হয় সন্ধ্যার কাকলি, চারপাশ চুপ
আলো ছায়া খেলা করে নীল ক্যানভাসে
ট্রেন থামে, ট্রেন চলে যায়, কথা চলে
অগুনতি কথা, কথারা শরীরী হয়
ভাষায় এমন জাদু, নিরিবিলি ছায়া
হয়ে, মায়া হয়ে স্বপ্নের ডানায় উড়ে
চলে বনপথ ছুঁয়ে ছুঁয়ে দূরে, আরো
দূরে, বহুদূরে থাকে অজানা প্রকৃতি
মানুষ জানেনা কিছু, জানে না বলেই
এত কোলাহল, ভুল বোঝাবুঝি, ভুল
দিয়ে গাঁথা ঘরগেরস্থালি রোজ রোজ
টুং টাং বাসনকোসন, জীবনগীতিকা

Mrinalendu Das
57, Abdul Jabbar Road
Post. Kancharapara, Dist. (N) 24 Parganas
Pin : 743145, West Bengal
Mob : 09831263065

Thursday, April 22, 2010

हिंदी कविता




युवा कवयित्री मंजुलिका पाण्डेय 'भाषासेतु' पर पहली बार। बल्कि ब्लॉग की दुनिया में यह मंजुलिका का डेब्यू है। राँची में रहती हैं। पढाई-लिखाई करती हैं। आजकल कहानियां भी लिख रही हैं। जल्दी ही आपकी कहानियां हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में पाठक पढेंगे।





मंजुलिका पाण्डेय
हम मनीप्लांट हैं
हम मनीप्लांट हैं
जड़ तने में होती है
पत्थर, दीवार, छत...
जो भी मिलता है
जकड लेते हैं
फिर फैलने लगते हैं
रौशनी मिले, न मिले
उर्वरता हो, न हो
पर...
फैलते हैं, फैलते जाते हैं
कि हमें
अभिशाप मिला है
बेशर्मी से जीते जाने का।



मैं एक प्रश्न हूँ
मैं एक प्रश्न हूँ
विरोधाभासों से निषेचित
संशयों के गर्भ में पलता हूँ, बढ़ता हूँ
संघर्ष की गोद में प्रसवित हो
आरोपों के आलिंगन में झूलता हूँ
टूटे सपनों से आदर्शों पर आघात करता हूँ
रिश्तों की प्रपंच शिलाओं से
घिसता हूँ, पिसता हूँ
जीवन के खोल में
मृत्यु सा छिपा हूँ
तर्कों की झुर्रियों में
भावों सा मिटा हूँ
जीवन हूँ मैं?
मैं एक प्रश्न हूँ।

Sunday, April 18, 2010

तालिबान का देसी संस्करण

पिछले दिनों जब मनोज और बबली की हत्या करने वालों को करनाल सत्र न्यायालय ने सजा सुनाई तो ऐसा लगा कि सभ्यता की बर्बरता को सिरे से ख़त्म करने की दिशा में यह पहला क़दम है। विदित हो कि हरयाणा की खाप पंचायत ने वर्ष २००७ में मनोज और बबली की इसलिए हत्या कर दी थी कि उन्होंने खाप के कानून का उल्लंघन कर सगोतिया होने के बावजूद शादी कर ली थी। सिर्फ मनोज और बबली ही क्यों, पिछले कुछ वर्षों में न जाने कितने मनोजों और बबलियों को इसलिए मार दिया गया कि एक ही गोत्र के होने के बाद भी उन्होंने प्रेम विवाह कर लिया था। ऐसे में अगर पहली बार खाप पंचायतों की संप्रभुता को भारतीय संविधान चैलेन्ज करता है तो निश्चित रूप से यह ख़ुशी की बात होनी चाहिए।

लेकिन पिछले दिनों चार राज्यों- हरयाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों ने एक महासभा की और मनोज व बबली की हत्या के आरोप में दण्डित सात अभियुक्तों को बचाने की जंग छेड़ने का ऐलान किया। पांच हज़ार से ज्यादा लोगों ने इस महासभा में यह निर्णय लिया कि वे मनोज-बबली के हत्यारों को बचाने के लिए हाई कोर्ट से लगा कर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ेंगे। तय हुआ कि हर घर से दस दस रुपये चंदा लेकर यह 'धर्मयुद्ध' लड़ा जाएगा। विदित हो कि इस महासभा में भारतीय किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत और हरयाणा के एक पूर्व डीजीपी महेंद्र सिंह मलिक भी शिरक़त करने पंहुचे थे।

आश्चर्य होता है कि ये खाप के सदस्य आखिर किस दुनिया में जीते हैं! क्या अफगानिस्तान-पाकिस्तान के तालिबानों और खाप के सदस्यों में कोई असमानता है? अगर नहीं है तो फिर सर्कार उनके साथ वही सलूक क्यों नहीं करती जो उसने दंतेवाडा में कथित माओवादियों के साथ किया? पी चिदंबरम ने अभी हाल में पश्चिम बंगाल का दौरा करने के बाद कहा था कि यहाँ की कानून व्यवस्था ठीक नहीं है। तो क्या सिर्फ इसलिए कि वहां वामपंथी सरकार है और हरयाणा में नहीं? याद करें पाकिस्तान की रीढ़हीन सरकार ने भी तालिबानों को पहले उतनी गंभीरता से नहीं लिया था और नतीजा वे आज तक भुगत रहे हैं। तो क्या यह खाप महासभा हमें एक चेतावनी नहीं देता?

कुणाल सिंह

Wednesday, April 14, 2010

बांग्ला कविता


१९५४ में जन्मे जय गोस्वामी के अबतक लगभग २५ कविता संग्रह बांग्ला में प्रकाशित हो चुके हैं। आनंद पुरस्कार समेत कई महत्वपूर्ण पुरस्कार पा चुके हैं। फिलहाल बांग्ला अखबार 'प्रतिदिन' से जुड़े हुए हैं।
1४ मार्च २००७ को नंदीग्राम का भयावह ऐतिहासिक हादसे के बाद जय गोस्वामी ने 'शासक के प्रति' नाम से यह कविता लिखी- सुशील कान्ति


शासक के प्रति

आप जो कहेंगे मैं बिलकुल वही करूँगा
वही खाऊंगा -पियूँगा, वही पहनूंगा ,
मल के वही देह में निकलूंगा बहार
ज़मीन अपनी छोड़
चला जाऊंगा बिना एक भी शब्द कहे
कहेंगे- गले में रस्सी बांध लटके रहो रात भर
वैसा ही करूँगा
सिर्फ अगले दिन जब कहेंगे-
अब उतर आओ
तब लेकिन किसी और की ज़रूरत पड़ेगी
अपने से उतर नहीं पाउँगा
इतना भर
जो न कर सका
उसे न मानें आप
मेरी बेअदबी।


जय गोस्वामी
मोब 0993710969

रूपांतर
संजय भारती
मोब 09330887131

Saturday, April 10, 2010

ग़ज़ल


बहुत दिनों से चाहता था अपने ब्लॉग पे पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब अहमद फ़राज़ की कुछ ग़ज़लें पेश करूँ। सबसे पहले मेहंदी हसन साब की गायी वो मशहूर ग़ज़ल 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ' से ही मैंने फ़राज़ के बारे में जाना। फिर सिलसिला निकल पड़ा। कौन नहीं बार बार सुनना चाहता है मेहंदी साब की ही गायी फ़राज़ की वो एक और मशहूर ग़ज़ल 'ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं'? बहरहाल चूँकि ये दोनों ग़ज़लें बहुत बार सुनी गयी हैं, इसलिए यहाँ दो दूसरी ग़ज़लें पेश हैं।

अहमद फ़राज़ की चन्द ग़ज़लें
एक
बरसों के बाद देखा एक शख्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा

अबरू खिंचे खिंचे से ऑंखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा

अल्फाज़ थे के जुगनू आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा

ख्वाबों में ख्वाब उसके यादों में याद उसकी
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा

अगली मुहब्बतों ने वो नामुरादियाँ दी
ताज़ा रफ़ाक़तों से दिल था डरा डरा सा

अब सच कहें तो यारो हमको खबर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत एक वाकिया ज़रा सा

तेवर थे बेरुखी के अंदाज़ दोस्ती का
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा

हमने भी उसको देखा कल शाम इत्तेफाक़न
अपना भी हाल है अब लोगो 'फ़राज़' का सा

दो
इससे पहले के बेवफा हो जाएँ
क्यों न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज्र करें
और कहीं और मुब्तला हो जाएँ

इश्क भी खेल है नसीबों का
खाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ

अबके गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ

Thursday, April 08, 2010

बेलारूस से एक कविता






1981 में बेलारूस में जन्मीं वाल्झीना मोल्त की अब तक दो किताबें 'I am as thin as your eyelashes' और 'Factory of Tears' प्रकाशित हो चुकी हैं। फ़िलहाल USA में रहती हैं, University of Baltimore में राईटर-इन-रेजिडेंट हैं। 'भाषासेतु' पर पहली बार।


वाल्झीना मोल्त
अंग्रेजी से अनुवाद : कुणाल सिंह

यह यकीन करना कितना मुश्किल है
यह यकीन करना कितना मुश्किल है
कि आज हम जितने हैं
कभी इससे भी कमसिन हुआ करते थे
कि हमारी खाल इतनी पारदर्शी हुआ करती थी
कि नसों शिराओं की नीली स्याही झांकती थी उससे होकर
जैसे स्कूल कि कॉपिओं के ज़र्द पन्ने पे खिंची हों नीली लाइनें

कि यह दुनिया एक यतीम कुत्ते की मानिंद थी
जो छुट्टी के बाद हमारे साथ खेला करता था
और हम सोचते थे कि एक दिन इसे हम अपने घरों में लिए जाएँगे
हम ले जाते, इससे पेश्तर कोई और बाज़ी मार ले गया
उसे एक नाम दिया
प्रशिक्षित किया कि अजनबियों को देखो तो भौंको
और अब हम भी अजनबियों के घेरे में आते थे

और इसी वजह से देर रात हम जाग पड़ते
और अपनी टीवी सेट की मोमबत्तियों को जला देते
और उनकी गर्म रौशनी की आंच में हमने पहचानना सीखा
चेहरों और शहरों को
और सुबहिया हिम्मत से लैश होकर
फ्राइंग पैन से उतार फेंकना सीखा ओम्लेट को

लेकिन हमारा कुत्ता किसी और के फीते से बंधा बड़ा होता रहा
और हमारी माँओं ने अचानक हमें मर्दों के साथ सोने
और आज की तारीख में देखने से मना कर दिया

किसी बेदाग़ कल्पना में खोने की सोचना कितना आसान होता है।