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Monday, October 25, 2010

सुधांशु फिरदौस की कवितायेँ!

सुधांशु हिंदी के उभरते युवा कवियों में से हैं. अब तक उनकी कुछ ही कविताएँ प्रकाशित हुई हैं. फिलहाल वे दिल्ली में रहते हैं और जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अंतर्गत कंप्यूटर साइंस में स्नातकोत्तर के छात्र हैं. यहाँ उनकी कुछ कविताएँ...

दवा

दुःख के आकाश में
प्यार का चीरा लगा के
उम्मीद ने पूछा -
अब, कैसा लग रहा है?..


बाज़ार

मैं उड़ रहा हूँ
आसमाँ में,
तू निगल रहा है जमीं पे
मेरी परछाई!

अकेलापन

रात
में
रेत
पे
लेट
के
प्यास
ने
सोचा,
दिन
कितना अच्छा होता है...


उम्मीद

शहतीर से टंगी लालटेन
रात भर जलती रहती है

उसी उम्मीद की तरह
जो छोड़ आया था,
तुम्हारी आँखों में
आखिरी बार...

फ़रिश्ता

उसे पता था
वह कभी नहीं आएगा

फिर भी उसने, उसके आने की अफवा फैलाई
ताकि उम्मीद जिन्दा रहे!

पता

मै वहाँ नहीं रहता
जिस घर का पता मेरे पहचान पत्र में लिखा है
मै वहाँ भी नहीं रहता जहां से ये पंक्तियाँ लिखी जा रही है
मै कहाँ रहता हूँ
यह कोई नहीं जानता
खुद मैं भी नहीं।

दोस्ती

औंधे मुँह लेटे आकाश ने
सीधे मुँह लेटे आदमी से कहा -
‘कितने अकेले हो तुम?’
...
एक फुसफुसाहट हुई -
‘तुम भी तो...’
और दोनों हँसने लगे।

Saturday, May 29, 2010

अंग्रेजी कविता

महिमा का मिथ
(वियतनाम युद्ध से सम्बंधित कविताएँ)
जॉन केंट
अंग्रेजी से अनुवाद : कुमार अनुपम

एक
एक अनाथ लड़का
जिसकी एक ही बांह,
मुझे एकटक घूरता रहता है

घृणा की एक लम्बी उम्र
इन आठ संक्षिप्त सालों में...

दो
हम जीत लेते हैं गाँव के गाँव
वीसी के नाते प्रतिष्ठित है जो
ग्रामीण कपड़ों में लिपटा होने के बावजूद

वे दागते एके ४७
जवाब में हम उन्हें मार डालते

'हुच्च' की आवाज़ सुनते हम चीखते-
अपने हथियार डाल दो, बाहर आओ, अपने हाथ ऊपर उठाए हुए!
(वियतनामी कबूतरों!)

वे जवाब देते अपशब्द और आग के साथ

बारूद से भर देते हम उनकी 'हुच्च'
बस एक ग्रेनेड उछालकर

सन्नाटा...

सावधानी से हम झांकते भीतर
सभी तो मृत...

एक नवयुवती
नवजात शिशु को जकड़े हुए अपनी छाती से
एकमेक
रक्त की नदी में।

तीन
लड़का जो दस से अधिक का नहीं
कुझे चकाचौंध करता अपने कपड़ों तले से
हथियार चमकाता है

मुझे एक उदार आश्वस्ति दो
पूछो मुझसे क्यों
मौत के घाट उतारा मैंने एक दस साल के लड़के को!

Monday, April 26, 2010

हिंदी कविता

गौरव सोलंकी हमारे समय के चुनिन्दा कथाकारों में से हैं। लिखने की शुरुआत कविता लिखने और प्रेम करने से की। तद्भव, ज्ञानोदय, वागर्थ, कथादेश आदि पत्रिकाओं में छप चुके हैं। फिल्मों के खासे शौकीन। जल्दी ही कहानियों की आपकी पहली किताब छपने वाली है। 'भाषासेतु' के पाठकों के लिए पेश है गौरव की कुछ ताज़ातरीन कविताएँ।





गौरव सोलंकी

चूमना और रोते जाना
गोल घूमता आकाश,
उजाला और ईमान,
मेरा खत्म होना, शुरू होना, तुम्हारा माँगना पानी,
देर और डर होना,
हम चले आते हैं ऐसे
जैसे जाना जाना न हो, हो श्मशान, ज्वालामुखी, घोड़ा आखिरी या ईश्वर ख़ुद।

बेहतरीन होने की जिद में
चप्पलें घर पर ही भूल जाना,
खींचना सौ किलो साँस, बाँटना शक्कर, देखना अख़बार।
हो जाना अंधा और खराब,
बिगड़ना जैसे कार,
भींचना मुट्ठी और गोली मारना,
सच बोलना और खाना जहर।

करारे परांठे और किताबें खाना,
बेचना दरवाजे, तोड़ना खिड़की,
घर होना या कि शहर,
तुम्हारी बाँहों में नष्ट होना,
जैसे होना स्वर्ग, लेना जन्म, माँगना किताबें, देखना जुगनू और बार बार वही आकाश।

शहर से बाहर आकर
अपने चश्मे और मतलब आँखों में लौट जाना।
माँगना माफ़ी।

चूमना और रोते जाना।


जहाँ से सड़क शुरू होती है
जहां से सड़क शुरू होती थी
वहां पहली दफ़ा मैंने जानी
कोई राह न बचने वाली बात
और यह कि मजबूर होना किसी औरत का नाम नहीं है।
जब सब मेरे सामने थे
तब मैं रुआंसा और कमज़ोर हुआ
और शोर बहुत था
कि गर्मियां आती गईं गाँव के न होने पर भी।

भूल जाऊँ मैं अँधेरा, हँसी और डिश एंटिने,
पक्षियों से मोहब्बत हो तो जिया जाए,
हवास खोकर पानी ढूँढ़ें, मर जाएँ
और किसी बस में न जाना हो हमेशा अकेले।

वे सराय, जिनमें हम रुकते किसी साल
अगर हम जाते कहीं और रात होती,
वे पहाड़, जिन पर टूटते हमारे पैर,
वे चैनल, जिन्हें प्रतिबंधित किया जाता और हम करते इंतज़ार,
वे चूहे, जो घूमते मूर्तियों पर सुनहरे मन्दिर में,
वे शहर, जिनमें रंग और सूरज हों, रिक्शों के बिना,
हम अगले साल धान बोते तुम्हारे खेत में
और उनमें वे सब हमारे दुख के साथ उगते।

अकाल हो विधाता!

Thursday, April 22, 2010

हिंदी कविता




युवा कवयित्री मंजुलिका पाण्डेय 'भाषासेतु' पर पहली बार। बल्कि ब्लॉग की दुनिया में यह मंजुलिका का डेब्यू है। राँची में रहती हैं। पढाई-लिखाई करती हैं। आजकल कहानियां भी लिख रही हैं। जल्दी ही आपकी कहानियां हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में पाठक पढेंगे।





मंजुलिका पाण्डेय
हम मनीप्लांट हैं
हम मनीप्लांट हैं
जड़ तने में होती है
पत्थर, दीवार, छत...
जो भी मिलता है
जकड लेते हैं
फिर फैलने लगते हैं
रौशनी मिले, न मिले
उर्वरता हो, न हो
पर...
फैलते हैं, फैलते जाते हैं
कि हमें
अभिशाप मिला है
बेशर्मी से जीते जाने का।



मैं एक प्रश्न हूँ
मैं एक प्रश्न हूँ
विरोधाभासों से निषेचित
संशयों के गर्भ में पलता हूँ, बढ़ता हूँ
संघर्ष की गोद में प्रसवित हो
आरोपों के आलिंगन में झूलता हूँ
टूटे सपनों से आदर्शों पर आघात करता हूँ
रिश्तों की प्रपंच शिलाओं से
घिसता हूँ, पिसता हूँ
जीवन के खोल में
मृत्यु सा छिपा हूँ
तर्कों की झुर्रियों में
भावों सा मिटा हूँ
जीवन हूँ मैं?
मैं एक प्रश्न हूँ।

Wednesday, April 14, 2010

बांग्ला कविता


१९५४ में जन्मे जय गोस्वामी के अबतक लगभग २५ कविता संग्रह बांग्ला में प्रकाशित हो चुके हैं। आनंद पुरस्कार समेत कई महत्वपूर्ण पुरस्कार पा चुके हैं। फिलहाल बांग्ला अखबार 'प्रतिदिन' से जुड़े हुए हैं।
1४ मार्च २००७ को नंदीग्राम का भयावह ऐतिहासिक हादसे के बाद जय गोस्वामी ने 'शासक के प्रति' नाम से यह कविता लिखी- सुशील कान्ति


शासक के प्रति

आप जो कहेंगे मैं बिलकुल वही करूँगा
वही खाऊंगा -पियूँगा, वही पहनूंगा ,
मल के वही देह में निकलूंगा बहार
ज़मीन अपनी छोड़
चला जाऊंगा बिना एक भी शब्द कहे
कहेंगे- गले में रस्सी बांध लटके रहो रात भर
वैसा ही करूँगा
सिर्फ अगले दिन जब कहेंगे-
अब उतर आओ
तब लेकिन किसी और की ज़रूरत पड़ेगी
अपने से उतर नहीं पाउँगा
इतना भर
जो न कर सका
उसे न मानें आप
मेरी बेअदबी।


जय गोस्वामी
मोब 0993710969

रूपांतर
संजय भारती
मोब 09330887131

Thursday, April 08, 2010

बेलारूस से एक कविता






1981 में बेलारूस में जन्मीं वाल्झीना मोल्त की अब तक दो किताबें 'I am as thin as your eyelashes' और 'Factory of Tears' प्रकाशित हो चुकी हैं। फ़िलहाल USA में रहती हैं, University of Baltimore में राईटर-इन-रेजिडेंट हैं। 'भाषासेतु' पर पहली बार।


वाल्झीना मोल्त
अंग्रेजी से अनुवाद : कुणाल सिंह

यह यकीन करना कितना मुश्किल है
यह यकीन करना कितना मुश्किल है
कि आज हम जितने हैं
कभी इससे भी कमसिन हुआ करते थे
कि हमारी खाल इतनी पारदर्शी हुआ करती थी
कि नसों शिराओं की नीली स्याही झांकती थी उससे होकर
जैसे स्कूल कि कॉपिओं के ज़र्द पन्ने पे खिंची हों नीली लाइनें

कि यह दुनिया एक यतीम कुत्ते की मानिंद थी
जो छुट्टी के बाद हमारे साथ खेला करता था
और हम सोचते थे कि एक दिन इसे हम अपने घरों में लिए जाएँगे
हम ले जाते, इससे पेश्तर कोई और बाज़ी मार ले गया
उसे एक नाम दिया
प्रशिक्षित किया कि अजनबियों को देखो तो भौंको
और अब हम भी अजनबियों के घेरे में आते थे

और इसी वजह से देर रात हम जाग पड़ते
और अपनी टीवी सेट की मोमबत्तियों को जला देते
और उनकी गर्म रौशनी की आंच में हमने पहचानना सीखा
चेहरों और शहरों को
और सुबहिया हिम्मत से लैश होकर
फ्राइंग पैन से उतार फेंकना सीखा ओम्लेट को

लेकिन हमारा कुत्ता किसी और के फीते से बंधा बड़ा होता रहा
और हमारी माँओं ने अचानक हमें मर्दों के साथ सोने
और आज की तारीख में देखने से मना कर दिया

किसी बेदाग़ कल्पना में खोने की सोचना कितना आसान होता है।

Sunday, March 28, 2010

हिंदी कविता


विमलेश त्रिपाठी कलकत्ते में रहते हैं। एक ज़माने में खूब कविताएँ व कहानियां लिखीं। रवीन्द्र कालिया ने २००४ में 'वागर्थ' का जो ऐतिहासिक नवलेखन अंक निकला था, उसमें राकेश मिश्र, मनोज पाण्डेय, चन्दन पाण्डेय, कुणाल सिंह, विमलचंद्र पाण्डेय आदि के साथ विमलेश की भी कहानी छपी थी। आजकल बीवी बच्चों और नौकरी में कुछ इतना व्यस्त हैं कि मित्रों के बार बार कहने पर ही कुछ लिखते है। भाषासेतु उन्हें कुछ और टोकने वाले मित्र प्रदान करे, इसी उम्मीद में ये कविता पोस्ट की जा रही है। प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।



विमलेश त्रिपाठी

कविता से लंबी उदासी

कविताओं से बहुत लंबी है उदासी
यह समय की सबसे बड़ी उदासी है
जो मेरे चेहरे पर कहीं से उड़ती हुई चली आई है

मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ

मेरे पास शब्दों की जगह
एक किसान पिता की भूखी आंत है
बहन की सूनी मांग है
कपनी से निकाल दिया गया मेरा बेरोजगार भाई है
राख की ढेर से कुछ गरनी उधेड़ती
मां की सूजी हुई आँखें हैं
मैं जहाँ बैठकर लिखता हूँ कविताएँ
वहाँ तक अन्न की सुरीली गंध नहीं पहुंचती

यह मार्च के शुरूआती दिनों की उदासी है
जो मेरी कविताओं पर सूखे पत्ते की तरह झर रही है
जबकि हरे रंग हमारी जिंदगी से गायब होते जा रहे हैं
और चमचमाती रंगीनियों के शोर से
होने लगा है नादान शिशुओं का मनोरंजन
संसद में वहस करने लगे हैं हत्यारे

क्या मुझे कविता के शुरू में इतिहास से आती
लालटेनों की मद्धिम रोशनियों को याद करना चाहिए
मेरी चेतना को झंकझोरती
खेतों की लंबी पगडंडियों के लिए
मेरी कविता में कितनी जगह है

कविता में कितनी बार दुहराऊँ
कि जनाब हम चले तो थे पहुँचने को एक ऐसी जगह
जहाँ आसमान की ऊँचाई हमारे खपरैल के बराबर हो
और पहुँच गए एक ऐसे पाताल में
जहाँ से आसमान को देखना तक असंभव

(वहाँ कितनी उदासी होगी
जहाँ लोग शिशुओं को चित्र बनाकर
समझाते होंगे आसमान की परिभाषा
तोरों को मान लिया गया होगा एक विलुप्त प्रजाति)

कविता में जितनी बार लिखता हूँ आसमान
उतनी ही बार टपकते हैं माँ के आँसू
उतनी ही बार पिता की आंत रोटी-रोटी चिल्लाती है
जितने समय में लिखता हूँ एक शब्द
उससे कम समय में
मेरा बेरोजगार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय में
बहन औरत से धर्मशाला में तब्दील हो जाती है

क्या करूँ कि कविता से लंबी है समय की उदासी
और मैं हूँ समय का सबसे कम जादुई कवि
क्या आप मुझे क्षमा कर सकेंगे ??

Tuesday, March 16, 2010

हिंदी कविता

प्रसिद्ध कथाकार रवीन्द्र कालिया एक संस्मरण अक्सर सुनाया करते हैं. जालंधर के दिनों की बात है. एक बार कुछ दोस्तों के साथ देर रात तक मयनोशी हुई. सुबह सकारे जब लोगों की आँख खुली तो पाया गया कि सुदर्शन फाकिर बिस्तरे पर ही उकडू हो बैठे हैं और दनादन यके बाद दीगर ग़ज़लें लिखे जा रहे हैं. लोगों ने पूछा कि या खुदाया ये माजरा क्या है, तो फाकिर ने कहा कि यारो ये बताओ कि रात में जो पी गयी थी उस व्हिस्की का नाम क्या था. सुबह से ही जैसे मुझ पर दौरा सा पड़ा है और बिना किसी मशक्क़त के मेरी कलम से क्या खूब ग़ज़लें निकल रही हैं. मित्रों ने फरमाइश की कि मियां कुछ हमें भी सुनाओ. फिर जब फाकिर ने लिखी गयी ग़ज़लों के एकाध शेर पढ़े, तो लोगों ने अपना सर पीट लिया. दरअसल फाकिर ने जो कुछ लिखा था, वो ग़ालिब की ग़ज़लें थीं.
जो लोग लिखते हैं, और पढ़ते भी हैं (ज्यादातर लोग सिर्फ लिखना पसंद करते हैं) वे सहमत होंगे कि ऐसा अक्सर होता है. कभी का कुछ पढ़ा मन के कहीं इतने गहरे पैठ जाता है कि कई बार हमें पता ही नहीं चलता कि अवचेतन से निकली कोई लाइन सबसे पहले कहाँ पढ़ी थी. खैर ग़ालिब वाली बात तो नहीं, लेकिन एक बार मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. कथाकार मित्र चन्दन पाण्डेय दिल्ली आये हुए थे और कुछ दिनों हमने साथ साथ बिताया. उन दिनों मैं अपने उपन्यास पर काम कर रहा था. लिखने के क्रम में अचानक दो पंक्तियाँ कौंधी और मैं खुद चकित रह गया. दोनों लाइनें इतनी ग़ज़ब की फर्निश्ड थीं कि मैं सहसा डर गया. चन्दन सामने पड़ा तो मैंने उससे इस बाबत पूछा कि ये बताओ कि ये पंक्तियाँ कहीं पढ़ी सुनी है पहले? चन्दन को एकाएक कुछ याद नहीं आया तो मैंने समझा मेरे मन का भ्रम होगा. मैं आगे लिखने लगा. कुछ घंटों बाद चन्दन का फोन आया कि ये लाइनें युवा कवि सौमित्र की एक कविता से बहुत हद तक मिलती जुलती हैं जिसका मित्रों के बीच मैं अक्सर पाठ किया करता था. सौमित्र की यह कविता (पुनर्जन्म) मुझे बहुत प्रिय है. न जाने कितनी दफे मैं इसे पढ़ सुना चुका हूँ.
अभी पिछले दिनों सौमित्र का फोन आया. USA में रहते हैं, कविताएँ बड़ी प्यारी लिखते हैं. मैंने इस घटना का जिक्र किया तो देर तक हँसते रहे. मैंने भाषासेतु के लिए कुछ कविताएँ मांगीं तो आश्वस्त किया कि जल्दी ही भेजेंगे. तब तक मैंने इस बात की इजाज़त ले ली कि 'पुनर्जन्म' समेत उनकी कुछ ऐसी कविताएँ मैं भाषासेतु के पाठकों के लिए मुहैय्या करूँगा, जो मुझे अत्यंत प्रिय हैं। कुणाल सिंह

सौमित्र सक्सेना

नाम
उन सबके नाम बहुत अच्छे हैं
जार्ज, सैंडी,
अहकितिन, मुबारक
गोमेज...
माँ-बाप ने
जब उनके नाम रखे होंगे
तो कुछ अच्छा सोचकर ही
रखे होंगे.
मैं जब भी उन्हें
उनके नाम से बुलाता हूँ
लगता है
कि कुछ
अच्छा काम किया.

आधार
वे सब सोचते हैं-
पक्षी उड़ने से पहले
हवा खोजते हैं.

रकीब
एक बादल टिक गया है
आसमान में
भूमि के एक टुकड़े पर रीझकर
मेरे पास
धुआँ करने को कुछ भी नहीं है
मैं अब ओझल करके सबकुछ
उस मिटटी को भीगने से
नहीं बचा पाऊंगा.
वह धूल भी अब पसीज गयी है
उसी बादल के छींटों से
जिसे उड़ाकर मैं
उसकी आँखों में
झोंक देता.

सीढियां
जितनी सीढ़ियों से मैं नीचे उतरता हूँ
उतनी ही दीवारें मुझे
अलग रंगी दिखाई देती हैं.
छत का उजला आकाश और
पक्षियों की हलचल
जीने में उतरते ही खो जाती हैं
सीढी दर सीढी
मेरा क़द कम होने लगता है और
मेरी दृष्टि
हर निचली जगह पर आकर
ठहर जाती है-
ईमारत के उन हिस्सों पर
जो ऊपर की सतहों को
लादे खड़े हुए हैं.

हर मंजिल पर रास्ता घूमता है
कुछ दरवाज़े दिखाई देते हैं
न जाने क्यों
मुझे लगता है कि उस जगह
मैंने अगर दस्तक दी तो
जो भी आदमी निकलेगा
वह मुझे ऊपरवाला समझकर
सहम जाएगा.
मैं अक्सर
सबसे नीचेवाले घर में पहुंचकर
सब तरफ की खिड़कियाँ
साफ करना चाहता हूँ
मुझे उन पक्षियों के लिए वहां
घोंसले रखने का मन होता है
जो ऊपर के उजाले से
आगे नहीं सोच पाते.

पुनर्जन्म
भूल होती है
तो दुबारा काम करना पड़ता है.
जो कहानी अच्छी लगती है
उसे दुबारा पढता हूँ.
जहाँ से भी मन जुड़ जाता है
दुबारा जाता हूँ वहां.
गर्भवती औरतें एक बार हंसती हैं
पर आवाज़ दो बार आती है-
ऐसा जाने उन्हें क्या अच्छा लगता है
जिसे वे दुबारा सुनना चाहती हैं!

ওসমান বেন্দা ও আমার রাত
কালো ছায়া কেটে
সিড়িপথ উঠেছে ওপরে
চিলে কোঠার ঘরে
মশারির খুট বেয়ে নেমে আসে
পৌষের রাত
কুড়ে খায় স্তব্ধতা
ইদুরের দাঁত
শীতল সিসের মতো পৌষের রাত
নেমে আসে চোখের পাতায়
রাত বাড়ে ঘুমে অঘুমে
রাত বাড়ে উত্তরে দক্ষিনে
ঘুমের ফাঁদে আটকে পড়ে রাত
রাত যত বাড়ে বাড়ে ইদুরের দাঁত


चन्दन सेनगुप्ता
युवा कवि, हालाँकि पहले खूब कवितायेँ लिखते थे, फिलहाल चित्रकारी में व्यस्त रहते हैं
रहनवारी: कम्पा, kancharapara , उत्तर २४ परगना, पश्चिम बंगाल, मोब : 09830475376

Tuesday, March 09, 2010

बांग्ला कविता




बुद्धदेब दासगुप्ता
मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह

टेलीफोन
फोन करते करते रविरंजन सो गया है
चेन्नई में टेलीफोन के चोंगे के भीतर
रवि की पत्नी पुकार रही है कोलकाता से- रवि रवि
सात बरस का बेटा और तीन बरस की बेटी
पुकारते हैं- रवि रवि
अँधेरे बादलों से होकर, नसों शिराओं से होकर
आती उस पुकार को सुनते सुनते
रवि पहुँच गया है अपने
पिछले जनम की पत्नी, बच्चों के नंबर पे
याद है? याद नहीं?
पिछले जनम के टेलीफोन नंबर से तैरती आती है आवाज़
याद नहीं रवि? रवि?
मंगल ग्रह के उस पार से
सन्न सन्न करती उडती आती है
पिछले के भी पिछले जनम की पत्नी की आवाज़।
रवि तुम्हें नहीं भूली आज भी
याद है मैंने ही तुम्हें सिखाया था पहली बार
चूमना। रवि याद नहीं तुम्हें?

टेलीफोन के तार के भीतर से
रिसीवर तक आ जाती है एक गौरैय्या
रवि के होठों के पास आकर सबको कहती है
याद है, याद है। रवि को सब याद है।
जरा होल्ड कीजिये प्लीज़, रवि अभी दूसरे नंबर पर बातें कर रहा है
अपने एकदम पहले जनम के पत्नी बच्चों से
जिसने उसे सिखाया था कि कैसे किसी को प्यार करते हें
सात सात जन्मों तक।


हैंगर
जब भी उसके पास करने को कुछ नहीं होता था
या नींद नहीं आती थी लाखी कोशिशों के बावजूद
तो वह अलमारी खोल के खड़ा हो जाता था।
अलमारी खोल के घंटों वह देखता रहता था
अलमारी के भीतर का संसार।
दस जोड़ी कमीजें, पतलून उसे देखते थे, यहाँ तक कि
अलमारी के दोनों पल्ले भी अभ्यस्त हो गए थे उसके देखने के।
अंततः, धीरे धीरे अलमारी को उससे प्यार हो गया। एकदिन ज्यों ही उसने
पल्ले खोले, भीतर से एक कमीज़ की आस्तीन ने उसे पकड़ लिया
खींच लिया भीतर, अपने आप बंद हो गए अलमारी के पल्ले, और
विभिन्न रंगों की कमीजों ने उसे सिखाया कि कैसे
महीने दर महीने
साल दर साल, एक जनम से दूसरे जनम तक
लटका रहा जाता है
सिर्फ एक हैंगर के सहारे।


हाथ
अपने हाथों के बारे में हमेशा तुम सोचते थे
फिर एकदिन सचमुच ही तुम्हारा हाथ तुमसे गुम गया।
हाय, जिसे लेकर तुमने बहुत कुछ करने के सपने पाले थे गालों पे हाथ धरकर
पागलों की तरह दौड़ धूप किया, न जाने कितने दिन कितने महीने कितने साल-
पागलों की तरह सर पीटते पीटते फिर एक दिन तुम्हें नींद आ गयी।
बहुत रात गए तुम नींद से जागकर खिड़की के आगे आ खड़े हुए
खिड़की के पल्ले खुल गए
अद्भुत चांदनी में तुमने देखा एक विशाल मैदान में सोए हें
तुम्हारे दोनों हाथ। एकसार बारिस हो रही है हाथों के ऊपर, और
धीमी धीमी आवाज़ करते हुए घास उग रहे हें हाथों के इर्द गिर्द।


कान
एक कान देखना चाहता है अपने जोड़ीदार दूसरे कान को
एक कान कहना चाहता है दूसरे कान से न जाने कितनी बातें।
कभी मुलाक़ात नहीं होती दोनों की, बातें एक कान में बहुत गहरे धंसकर
दूसरे कान की गहराई से निकल पड़ती है, और अंततः
हवाओं में घुल मिल जाती है। दुःख और शर्म से
कुबरे होते होते एक दिन कान झड जाते हें, गिर पड़ते हें रास्तों में कहीं। पृथ्वी पे
इस तरह शुरू होती है कानहीन मनुष्यों की प्रजाति।
आज एक कानहीन आदमी का एक कानहीन लड़की से शादी है,
पसरकर बैठे हें देखो, उनके कानहीन दोस्त यार
कानी ऊँगली डुबाकर दही खाते खाते
न जाने कौन सी बात पे
हंस हंस कर दोहरे हुए जा रहे हें
रो रहे हें, सो रहे हें बिस्तरों पर।


(बुद्धदेब दासगुप्ता : ११ फ़रवरी १९४४ को जन्मे बुद्धदेब जाने माने फिल्मकार हैं। बाघ बहादुर, ताहादेर कथा, चराचर, उत्तरा, मंदों मेयेर उपाख्यान, कालपुरुष आदि फिल्मों के निर्देशक। देश विदेश में कई पुरस्कार। कविताए लिखते हैं। दो-चार कहानियां भी लिखी हैं।)

Monday, March 08, 2010

पुरा पड़ोस

इजिप्ट से एक कविता
गिर्गिस शौकरी
अंग्रेजी से अनुवाद : कुणाल सिंह

प्यार
खिड़की को देखकर बादल हंस पड़ा है
दोनों बिस्तरे पर निढाल हो पड़ते हैं
धीरे धीरे अपने कपड़े उतारते हैं
देखो
बिस्तरे की सिलवटों में वे टूट गिरे हैं
बिस्तर उनकी निझूम नींद को अगोर रहा है
बरजता है अलमारी में रह रहे कपड़ों को
कि आवाज़ मत करो
दीवारें पडोसिओं से चुगली कर
भीतर का भेद बताती हैं
और छतें नयोता देती हैं आकाश को
कि आओ घर के सब मिल जुल बैठें, बातें हों

दीवारों की देह से एक बहुत बड़ी हंसी छूटकर भाग रही है
जल्दी से पकड़ो
हमें उसे पकड़ लाना ही होगा
वरना पूरी दुनिया हँसते हँसते फट पड़ेगी।

Monday, January 18, 2010

बोधि


कुमार अनुपम की कविता

अपना ही डमी हूँ
कि
आदमी हूँ।




বোধি

আমি আমারই ডামী

কেননা

আমী মানুষ.


(অনুবাদ : পিঙ্কি মাহাতো)