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Thursday, November 11, 2010

उपन्यास अंश

देह
मिलान कुन्देरा
अनुवाद : कुणाल सिंह

मिलान
कुन्देरा मेरे प्रिय उपन्यासकार रहे हैं। पिछले दिनों उनके शुरुआती उपन्यासों में से ए Immortility को फिर से पढ़ रहा था। मिलान में ऐसा क्या है जो उन्हें जितनी बार पढ़ो मन नहीं भरता। वे ए ऐसे लेख हैं जिनसे मुझे ईर्ष्या होती है। मार्केस, काल्विनो भी मुझे पसन्द हैं, नये लेखकों में रोबेर्तो बोलान्यो (हालाँकि यदि वे होते तो पचास पार कर गये होते) का भी जवाब नहीं, लेकिन रश्क सिर्फ कुंदेरा से होता है। ‘इम्मॉर्टैलिटी’ वस्तुत: दो बहनों एग्नेस और लॉरा की हानी है, जो सगी होते हुए भी स्वभाव के दो अतिछोरों पर खड़ी हैं। पेश है इस उपन्यास का एक छोटा सा अंश। प्रसंगवश, इस अंश के शुरुआती हिस्से में दाली दम्पती का जो वर्णन है, मुझे बारहाँ उस पगले बंगाली संत की याद दिलाता है जो श्री रामकृष्ण परमहंस के समकालीन थे और माँ काली के अनन्य भक्त। वे कहते थे कि काली से वे इतना प्रेम करते हैं कि उनका जी करता है वे काली को खा जाएँ— ‘ए बार काली तोमाय खाबो।’
यारो, मेरा भी मन
करता है कि मैं कुंदेरा को मार कर खा जाऊँ। कसम से...
कुणाल सिंह

अपने बुढ़ापे में मशहूर चित्रकार सल्वादोर दाली और उसकी बीवी गाला ने एक खरगोश को पाला। कुछ ही दिनों में वह खरगोश दाली दम्पती से काफी घुल-मिल गया, उन्हीं के बिस्तर में सोता, वे जहाँ कहीं जाते पीछे-पीछे लग लेता। पति-पत्नी भी उससे बहुत प्यार करते थे, बल्कि कहें कि उनकी जान बसती थी उस खरगोश में।
एक बार लम्बे अरसे के लिए उन्हें कहीं बाहर जाना था। रात में सोने से पेश्तर उनके बीच इस बात को लेकर देर तक बहस हुई कि इस दौरान खरगोश का क्या किया जाए। उसे साथ लिये जाना मुश्किल था और उतना ही मुश्किल यह भी था कि इस बीच के लिए उसे किसी और को सिपुर्द कर दिया जाए, क्योंकि अजनबियों के साथ उस खरगोश की क्या हालत होती थी, पति-पत्नी से यह छिपा न था। दूसरे दिन निकलने से पहले गाला ने भोजन तैयार किया। निहायत ही सुस्वाद भोजन था और दाली ने खूब चाव से खाया। इस बात का उसे बाद में पता चलना था कि वह जो खा रहा है, कुछ और नहीं उसी खरगोश का गोश्त है। जब गाला ने बताया, वह मेज़ से उठकर बाथरूम की तरफ भागा, कै करने लगा। सामने बेसिन में उस अजीज खरगोश के चन्द लोथड़े पड़े थे।
दूसरी तरफ गाला खुश थी। वह खुश थी कि उसने जिस खरगोश को इतना प्यार दिया था, उस लाडले ने कहीं और नहीं, अन्तत: उसके पेट में शरण पायी। अब वह खुद उसकी देह का हिस्सा है, अमर्त्य होकर शिराओं-धमनियों में उसके लहू के साथ बहता हुआ, उसके हृदय में धड़कता हुआ। कहना न होगा, गाला के लिए प्यार की इससे बढ़कर और कोई तृप्ति न थी कि जिसे प्यार किया जाए उसे खा लिया जाए, पूरी तरह अपने अमाशय में पचा लिया जाए। दो देहों का यह जो एकमेक होना था, उसे फिलवक्त वैसे ही गुदगुदा रहा था जैसे वह संसर्ग कर रही हो।
लॉरा का स्वभाव गाला की तरह था, जबकि एग्नेस की तबीयत दाली से मिलती-जुलती थी। यह ठीक था कि लोगों से मिलना, बातें करना, दोस्ती इत्यादि की शमूलियत एग्नेस की पसन्द में थी, लेकिन वह सोचती थी कि एक बार अगर किसी व्यक्ति से उसकी प्रगाढ़ता हो गयी तो इस मैत्री की पूर्वशर्त है कि आइन्दा वह उस व्यक्ति की सेवाटहल करे, मसलन उसे उसकी बहती हुई नाक को पोंछना होगा। इसलिए वह इस झंझट से दूर ही रहना चाहती थी। दूसरी तरफ लॉरा के लिए यह सब सहज स्वीकार्य था। वह देह को, अपनी और उस ‘दूसरे’ की देह को नकारना नहीं जानती थी। वह एग्नेस से पूछा करती थी : जब तुम्हें कोई आकर्षित करे तो तुम्हारे लिए इसका क्या मतलब होगा? ऐसी भावनाओं को महसूस करते वक्त तुम देह को, देह की शर्तों को क्यों दरकिनार कर देती हो? एक व्यक्ति, जिसकी देह की स्मृतियों को तुम पूरी तरह से मिटा दो, वह एक व्यक्ति के तौर पर आखिर कितना बचा-खुचा रह सकेगा?
हाँ, लॉरा एकदम गाला की तरह थी। वह अपनी देह को अपनी पहचान में शामिल रखती थी। देह उसके लिए एक घर था जहाँ उसकी आत्मा की रहनवारी होती थी और वह बखूबी जानती थी कि आईने के आगे खड़े होने से उसमें जो अक्स दिखता है, महज उतने भर के आयतन में ही देह नहीं होती, देह जितनी बाहर छलकी पड़ रही होती है उतनी भीतर भी धँसी हुई। इसी वजह से उसकी दैनन्दिन बातचीत में आंगिक प्रत्ययों और सन्दर्भों की भरमार होती है। अगर उसे कहना हो कि गयी रात उसे उसके प्रेमी ने निराश किया तो वह कहेगी कि वह मेरे अंग-अंग में आग लगाकर चला गया। यहाँ तक कि वह अक्सर उल्टी या दस्त के बारे में बेधड़क बातें छेड़ देती, भले (एग्नेस को लगता था) उसे उन दिनों उल्टियाँ आती हों या नहीं। उल्टी आये या नहीं, क्या फर्क पड़ता है! लॉरा के लिए कै करने के बारे में कहना कै करने की सचाई का मुहताज नहीं, उसके लिए यह ‘तथ्य’ नहीं, ‘काव्य’ है, एक रूपक है, उसकी पीड़ा और घृणा जैसी भावनाओं की एक प्रगीतात्मक छवि है।
एक बार दोनों बहनें एक दुकान में गयीं जहाँ उन्हें अपने लिए कुछ अधोवस्त्र खरीदने थे। एग्नेस ने देखा कि लॉरा उस ब्रेसरी को बहुत दुलार से सहला रही है जिसे दुकान पर बैठी हुई औरत दिखा रही थी। यह उन कुछ दुर्लभ क्षणों में से एक था जब एग्नेस को, उसकी बहन और उसमें क्या अन्तर है, प्रत्यक्षत: दिख जाता है। एग्नेस के लिए ब्रेसरी एक ऐसी चीज है जिसका आविष्कार औरतों की देह में किसी कुदरती कमी को दुरुस्त करने के लिए हुआ है— मसलन घाव के लिए बैंडेज या किसी लँगड़े के लिए नकली पाँव, मसलन नजर का चश्मा या गरदन में मोच आने के बाद लोगों द्वारा पहना जाने वाला मोटा कॉलर। एग्नेस यह मानती थी कि ब्रेसरी को महज इसलिए पहनना चाहिए कि वे उस अंग को सँभाले रखे जो भूलवश अपना प्राकृतिक आकार विद्रूप कर चुका है, ठीक वैसे जैसे किसी गलत तरीके से निर्मित परछत्ती को सँभाले रखने के लिए मेहराबों की जरूरत पड़े।
देह के मामले में एग्नेस को अपने पति पॉल से ईर्ष्या होती थी। पुरुष होने के नाते उसे दफ्फातन अपनी देह की फिक्र में जुते नहीं रहना पड़ता था। वह बेलौस अपने फेफड़ों में साँसें भरता था, जम्हुआई लेता था, कहें खुशी-खुशी अपनी देह को भूले रहता था। न ही एग्नेस ने उसके मुँह से कभी सुना कि उसे कोई शारीरिक तकलीफ है। उसका स्वभाव भी कुछ ऐसा था कि वह बीमारी को किसी शारीरिक अपूर्णता की तरह लेता था। वर्षों से उसके पेट में अल्सर था लेकिन एग्नेस को इस बाबत तब पता चला जब एक दिन उसके दुआर पर एम्बुलेंस आकर रुका। एग्नेस को प्रतीत होता था कि यद्यपि इस मामले में पॉल को दूसरे मर्दों के बनिस्पत अपवाद माना जाए, फिर भी उसका यह ‘अभिमान’ बहुत कुछ जतला देता है कि एक मर्द और स्त्री की देहों के विभेद क्या और कैसे हैं! एक स्त्री अपनी दैहिक तकलीफों के बारे में अक्सर बतियाती रहती है, उसे यह वरदान नहीं मिला कि एक क्षण के लिए भी वह अपनी देह को बिसार सके। वय:सन्धि से ही इस चौकन्नेपन की शुरुआत हो जाती है जब पहली बार अपनी देह का खून उसे लिजलिजे सन्दर्भ से रिसता दिखता है। वहीं से देह अपनी विकरालता के साथ उसके समक्ष उपस्थित हो जाता है और उसकी हालत उतनी ही दयनीय हो उठती है जितनी किसी उस मरियल मजदूर की हो जिसे अकेले ही एक कारखाना चलाने के लिए छोड़ दिया जाए। हर महीने पट्टियों को बदलते रहना, गर्भ निरोधक गोलियों को निगलना, ब्रेसरी को सुव्यवस्थित रूप से गाँठना, बच्चे जनने के लिए तैयार होना। शायद इसी वजह से एग्नेस बूढ़े लोगों को ईर्ष्या की नजरों से देखती है। उसे लगता है कि बूढ़े किसी और जहान में रहते हैं। खुद उसके पिता बढ़ती उम्र के साथ अपनी ही प्रतिछाया में सिमट कर रह गये थे। यह किसी भौतिक का अभौतिक में रूपान्तरित हो जाना था, यह कुछ वैसे था जैसे दुनिया में एक आत्मा विचर रही हो जिससे उसकी देह का विसर्जन हो चुका हो। इसके विपरीत, औरतें जैसे-जैसे बुढ़ाती जाती है वैसे-वैसे उनकी आत्मा में देहतत्त्व और से और चस्पाँ होता जाता है। उसकी देह भारी और बोझिल होती जाती है—जैसे कोई पुराना कारखाना अपनी विनष्टि के कगार पर है और विडम्बना देखिए कि खुद उस औरत को किसी केयरटेकर की मानिन्द उस कारखाने का समूल उजडऩा देखना होता है—अन्त तक।

Friday, September 17, 2010

हिंदी कविता


कुणाल सिंह
नोकिया 6300

नाईन एट थ्री वन जीरो...

मैंने जोर से सटा लिया कानों पर और सुनने लगा
रिंग टोन
जैसे कम्बल में लिपटी आवाज़
गझिन, गर्म-गुदाज़
सुदूर बजती जाने कौन से स्वर में
सचमुच की आवाज़ के बदले, तब तक के लिए
आवाज़ की प्रतिकृति- हैलो ट्यून
तब तक के लिए उतावली प्रतीक्षा में एक तुतलाता ढाढस

तब तक के लिए घिर आते हैं बादल
अपने अक्ष पर दौड़ते दौड़ते थम जाती है पृथ्वी
एक चिड़िया का चहचहाना रुक जाता है कहीं
कहीं एक फूल का खिलना स्थगित हो जाता है तब तक के लिए
ट्रैफिक की बत्ती पीली है और अब तक अवरुद्ध सा कुछ
मचल पड़ता है खुल पड़ने को, चारों तरफ
मेरी सांस तेज तेज चलती है
शिराओं-धमनियों में दौड़ता है लहू तेज तेज
रोमकूपों में समा जाते हैं रोमांच के छोटे छोटे दाने अनगिन

यह सब एकदम शुरू शुरू का होना है
ऊपर के सख्त परत के एक बार हटते ही
गरगर बहने लगता है भीतर का तरल
लेकिन यह हर बार का होना है, ऐसे ही
हर बार का यह प्रतीक्षित, रुका सा
हर बार ऐसे ही पुनर्नवा

एकाएक चुकने लगेंगे सारे शब्द, सारी ध्वनियाँ, अर्थ सारे
भाषा का पृष्ठ जैसे कोरा हो चलेगा एकाएक
पृथ्वी नयी नकोर

अभी थोड़ी देर में
छटेंगे यही बादल
यहीं से निकलेगा जाना पहचाना सूरज रोज का
यहीं से विकसेगी सभ्यता, संतति के बीज अन्खुवायेंगे यहीं से
अभी थोड़ी देर में शुरू होगा सब, फिर से
एक भाषा का निर्माण होगा
और पहली बार हव्वा कहेगी आदम से
भाषा का पहला पवित्र शब्द- हैलो!


नाटक
सियालदह से लास्ट लोकल के छूटने में अभी देर है
खिड़की वाली सीट पर बैठे बैठे रमापद
सो गया है या केवल सोने का नाटक करता है कौन जाने

1989 में जब रमापद छोटा था
मोहल्ले के लोगों के बीच बहुत फेमस था
लोग कहते थे कालोशशि तुम्हारा छोटा लड़का
क्या ही खूब नाटक करता है मरने का
जान डाल देता बस!
दुर्गापूजा में बारीपाडा हाईस्कूल माठ में
नाटक खेला जाता था तो रमापद को
रोल दिया जाता था मरने का
कालोशशि तब मन ही मन जरूर डर जाती थी
लेकिन उसे और भी ज्यादा डर लगता था रमापद के बाप हरिपद से
अपनी छाती से सटाकर कहती थी क्या बताऊँ रमा
तुम्हारे बाप की अंतड़ी में दो घूँट शराब के पड़ते ही
वह जैसे शैतान का रूप धर लेता है
वास्तव में रमापद का बाप हरिपद शैतान था
या शैतान होने का नाटक करता था कौन जाने

1989 नहीं रहा, रमापद का बाप
हरिपद कभी का मर गया ज़हरीली शराब से
कालोशशि भी एक बार मर ही गयी थी लेकिन
फिर यह कहकर जी उठी कि रमापद की शादी हो जाये
बहू का मुंह देख ले फिर मारेगी चैन से
अभी कौन सी लास्ट लोकल छूटी जा रही है- हाँ तो!
यही सब सोचता है रमापद नींद में
खिड़की वाली सीट पर बैठकर

रमापद की बीवी मुनमुन ने
लौकी की डंठल और रोहू की एक साबुत मूडी डालकर
दाल बनायीं है क्या ही स्वादिष्ट
पोस्ते का दाना भूनेगी रोटी सेंकेगी गरमागरम
रमापद के आ जाने के बाद
रमापद की बीवी मुनमुन
लौकी कि डंठल और रोहू की मूडी डली दाल बनाकर
'स्वीट ड्रीम्स' कढ़े तकिये पर सर रखकर
सो गयी है या सोने का नाटक करती है कौन जाने

1989 में मुनमुन ने प्रेम किया था
नागा घोष के मंझले लड़के सन्नी देओल से
मोहल्ले में क्या ही हो-हल्ला मचाया था मुनमुन के बाप सुमन सरकार ने
स्कूल से पीठ पर बस्ता टाँगे लौटती मुनमुन को
अपनी साईकिल के कैरियर पर बिठाकर
भाग चलने को कहा था सन्नी देओल ने बहुत दूर सूरत को जहाँ
उसका ममेरा भाई राजू नौकरी करता था किसी कपड़ा मिल में
रिजर्वेशन, कोर्ट मैरिज, जेरोक्स, एसटीडी कॉल-
उस उम्र में मुनमुन डर के मारे थर थर कांपने लगी थी यह सब सुनकर
'जमाने की दीवार', 'अरमान', 'मियां-बीवी राजी',
'दो दिलों का बिछड़ना सदा सदा के लिए', 'बर्दाश्त से बाहर'
और अपनी बांहों की मछलियाँ दिखाने के बाद भी निराश
साईकिल के कैरियर पर बिठाकर
छोड़ गया था सन्नी देओल उसे उसके बाप के घर
कई दिनों तक रोती-सुबकती रही थी मुनमुन
सन्नी देओल के बनाए दिल और उसमें बिंधे तीर को देख देख
कई दिनों तक सुनती रही थी लोगों के बोल-
साली नाटक करती है!

1989 नहीं रहा, नागा घोष सुमन सरकार मर-खप-बिला गए
सन्नी देओल बहुत दूर सूरत में, या कि दिल्ली में
नौकरी करता है या नौकरी का नाटक कौन जाने
यही सब सोचती है रमापद कि बीवी मुनमुन
'स्वीट ड्रीम्स' कढ़े तकिये पर सर रखकर सोते हुए

हुर्र हुर्र भागती है लास्ट लोकल
रमापद खटखटाता है घर का दरवाज़ा
खूब चाव से खाता है रमापद, मुनमुन के
हाथ के बने खाने की तारीफ़ करता है खूब
बिस्तर पर पड़ते ही सो जाता है, आधी रात
झकझोड़कर जगाती है मुनमुन रमापद को
1989 1989 1989 -हुर्र हुर्र भागता है 1989
खूब प्यार करती है मुनमुन रमापद को- देर तक।