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Wednesday, April 14, 2010

बांग्ला कविता


१९५४ में जन्मे जय गोस्वामी के अबतक लगभग २५ कविता संग्रह बांग्ला में प्रकाशित हो चुके हैं। आनंद पुरस्कार समेत कई महत्वपूर्ण पुरस्कार पा चुके हैं। फिलहाल बांग्ला अखबार 'प्रतिदिन' से जुड़े हुए हैं।
1४ मार्च २००७ को नंदीग्राम का भयावह ऐतिहासिक हादसे के बाद जय गोस्वामी ने 'शासक के प्रति' नाम से यह कविता लिखी- सुशील कान्ति


शासक के प्रति

आप जो कहेंगे मैं बिलकुल वही करूँगा
वही खाऊंगा -पियूँगा, वही पहनूंगा ,
मल के वही देह में निकलूंगा बहार
ज़मीन अपनी छोड़
चला जाऊंगा बिना एक भी शब्द कहे
कहेंगे- गले में रस्सी बांध लटके रहो रात भर
वैसा ही करूँगा
सिर्फ अगले दिन जब कहेंगे-
अब उतर आओ
तब लेकिन किसी और की ज़रूरत पड़ेगी
अपने से उतर नहीं पाउँगा
इतना भर
जो न कर सका
उसे न मानें आप
मेरी बेअदबी।


जय गोस्वामी
मोब 0993710969

रूपांतर
संजय भारती
मोब 09330887131

Wednesday, March 10, 2010

उपन्यास अंश

देवदास

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

अनुवाद : कुणाल सिंह

रात का कोई एक बजे का समय। बिस्तर की चादर को अपनी देह से भली-भाँति लपेटकर पारो सीढिय़ाँ उतरी और नीचे आँगन में आ गयी। चारों तरफ चाँदनी छिटक रही थी। आँगन में खटिया डाले दादी सोई थीं। पारो बेआवाज़ दरवाज़े तक आयी और जैसे घाव से पट्टियाँ उतारते हैं, इतने हल्के हाथों किवाड़ खोला। बाहर सुनसान। चरिन्द-परिन्द का नामोनिशान नहीं। एक पल के लिए हिचकी, फिर जैसे कुछ सोचकर उसने आगे कदम बढ़ा दिया।

मुकर्जी साहब की कोठी चाँदनी में दूध धुली लग रही थी। सेहन में बूढ़ा दरबान किशन सिंह अपनी खटिया पर बैठा रामचरितमानस का सस्वर पाठ कर रहा था। सिर झुकाये ही पूछा, ''कौन?'' पारो ने कहा, ''मैं!'' इतने भर से किशन सिंह ने पता नहीं क्या समझा, सिर उठाकर आगे दरियाफ्त करने की भी ज़रूरत महसूस नहीं की उसने, जहाँ छोड़ा था आगे से पाठ करने लगा। सोचा होगा, कोई नौकरानी होगी या ऐसा ही कुछ! पारो भीतर पहुँच गयी। गरमी का मौसम होने के कारण अधिकांश नौकर-चाकर बरामदे में ही सोये थे। उनमें से किसी ने पारो को जाते देखा या नहीं, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। घर के भूगोल से पारो भली-भाँति परिचित थी, सो सीढिय़ाँ चढ़कर देवदास के कमरे तक पहुँचने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। दरवाज़ा यों ही भिड़ा दिया गया था, वह भीतर आ गयी।

देवदास कुर्सी पर बैठकर पढ़ते-पढ़ते सो गया था। मेज़ पर रखा लैम्प धीमी लौ में जल रहा था। पारो ने उसकी लौ तेज़ कर दी। नींद में गाफिल देव का चेहरा रोशन हो उठा। एक पल के लिए मन्त्रमुग्ध-सी पारो उसे देखती रही, फिर वहीं फर्श पर उसके पैरों के पास बैठ गयी। देवदास के घुटनों पर हौले से हाथ रखकर हिलाया, फुसफुसाकर बोली, ''देव दा!''

नींद के आवेश में लथपथ देव इतना सुनकर, बिना आँखें खोले ही, अनायास हुँकारी भर बैठा। पारो चुप रही। फिर थोड़ी देर बाद उसने देव के घुटनों को हिलाया। उसकी चूडिय़ाँ खनक उठीं। रात के सुनसान में उसकी चूडिय़ों की खनखनाहट प्रमुख होकर सुनायी पड़ी। पारो ने फिर से पुकारा, ''देव दा, उठो!''
देव ने आँखें खोलीं। लैम्प की रोशनी सीधे उसकी आँखों पर पड़ी, सो एक पल के लिए वह चौंधिया गया। घुटने पर रखे हाथ को पारो ने हटा लिया। उस पर देव की नज़र पड़ी। तत्काल ही उसे समय का अन्दाज़ा हुआ। उसने कलाई घड़ी पर नज़र डालते हुए पूछा, ''पारो तुम! ... इस वक्त!'' वह कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सचेत हो गया। ''क्या बात हो गयी पारो?''

''हाँ देव दा, यह मैं हूँ।'' इतना कहकर पारो चुप हो गयी। देव ठीक से बैठ गया। वह इन्तज़ार कर रहा था कि पारो कुछ और बोलेगी, लेकिन जब वह चुप ही रही तो देव ने पूछा, ''इतनी रात गये? सब ठीक तो है न!''पारो फिर भी चुप रही। देव उठा और कमरे के दरवाज़े तक आया। किवाड़ खोलकर सरसरी नज़र से बाहर देखा, फिर किवाड़ को भिड़ा दिया। बन्द नहीं किया। पारो खड़ी हो चुकी थी। देव ने हैरत में पड़कर पूछा, ''अकेली आयी हो?''

''हूँ।'' पारो का चेहरा नीचे की ओर था।

''डर नही लगा?''

पारो ने चेहरा उठाया। मुस्करायी। बोली, ''मैं भूतों से नहीं डरती।''

''...और आदमी से?''

पारो चुप। देव को क्या वाकई इस बात का अन्दाज़ा नहीं कि इस संकट की घड़ी में पारो को आदमियों से भी डर नहीं लगेगा?

''अच्छा छोड़ो, बताओ बात क्या है?''

पारो फिर चुप! क्या वाकई देव को अन्दाज़ा नहीं? उसे जानना चाहिए कि इतनी रात गये पारो क्यों आयी है? वह वाकई नहीं जानता या न जानने का अभिनय कर रहा है? क्या वह पारो को तोल रहा है?

''तुम्हें आते किसी ने देखा तो नहीं?''

''किशन सिंह ने देखा था।''

''और किसी ने?''

''शायद बाहर बरामदे में सोये नौकरों में से किसी ने देखा हो।''

देवदास चुप। उसके चेहरे के नकूश एकबारगी बदल गये। ''क्या किसी ने तुम्हें पहचाना?''उसकी परेशानी से पारो को किंचित निराशा हुई भी हो तो भी उसने ज़ाहिर नहीं किया। सहजता से बोली, ''सभी तो मुझे जानते हैं। हो सकता है जिसने देखा हो वह पहचान भी गया हो!''

देवदास की सिट्टी-पिट्टी गुम गयी। समझ में नहीं आया क्या कहे! सकपकायी-सी आवाज़ में इतना ही पूछ सका, ''आखिर क्यों पारो! क्यों यह सब! ...बात क्या थी जो इतनी रात गए तुम्हें...?''वह आगे कुछ न कह सका और धम्म से बिस्तर पर बैठ गया। पारो चुपचाप उसे देख रही थी।

''मैं अपने लिए नहीं...! तुम तो इन नौकर-चाकरों की आदत से वाकिफ हो। ज़रा-सी बात का भी बतंगड़ बना देते हैं। तुम्हारे यहाँ आने की बात सुबह होते ही चारों तरफ फैल जाएगी। फिर क्या सफाई दोगी तुम? कैसे मुँह दिखा सकोगी?''

पारो तिलमिला गयी, ''देव दा, इसकी चिन्ता करने की तुम्हें ज़रूरत नहीं।'' उसने सिर झुका लिया।
देव अब तक संयत हो चुका था। बोला, ''पारो बात अब पहले-सी नहीं रही। तुम अब बड़ी हो चुकी हो। यहाँ आते तुम्हें लाज नहीं आयी?''

''देव दा, इसमें लाज आने की तो कोई बात नहीं।''

''जब लोगों को पता चलेगा तो...? क्या जवाब दोगी?''

पारो धीमे कदमों से देव के पास आयी। उसकी आँखों में एक अजीब परस्तिश-सी तैर रही थी। मीठी आवाज़ में बोली, ''क्या मैं नहीं जानती यह सब? ...लेकिन इन सबसे ऊपर मैं यह भी जानती हूँ कि तुम मेरी लाज रख लोगे। अगर इसका मुझे यकीन न होता देव दा तो मैं हरगिज यहाँ पाँव न धरती।''

''लेकिन मैं भी तो...'' देव रुक गया।

पारो उसकी तरफ प्रश्नार्थक नज़रों से घूर रही थी। उसकी सीधी आँखों की आँच देव से झेला न गया। उसने नज़रें फेर लीं।''तुम्हारा क्या है देव दा!'' पारो की आवाज़ में घुली मिठाई हवा होने लगी। ''बोलो न देव दा, रुक क्यों गये?''

लेकिन देव चुप ही रहा। पारो ही बोली, ''तुम्हारा क्या है, तुम तो मरद मानुष ठहरे। आज अगर मेरा यहाँ आना सब पर ज़ाहिर भी हो गया तो एक दिन, दो दिन, एक सप्ताह, हद-से-हद एक महीने में लोग भूल जाएँगे कि आधी रात कोई दुखियारी पारो अपने देव दा से मिलने उसके कमरे में चली आयी थी। और मेरी वजह से...'' पारो की आवाज़ दरकने लगी। उसने अपनी ठोढ़ी देव के घुटनों पर रख दी।

देव ने उसके बालों में उँगली फेरते हुए पुकारा, ''पारो!''

''अगर मेरी वजह से तुम्हारी ज़रा भी बदनामी होती है देव दा तो मैं गले में घड़ा बाँधकर पोखर में कूद...!''देव ने अपना हाथ पारो के होंठो पर रखकर आगे कुछ कहने से बरज दिया। पारो का चेहरा अँधेरे में था इसलिए देव को पता नहीं था वह रो रही है। जब उसके हाथों पर बूँदे गिरीं तो वह जैसे मचल गया, ''पारो! क्या तुम रो रही हो?''पारो की हिचकियाँ बँध गयीं। देव उसके कन्धे को थपथपाने लगा, ''ना पारो ना!''

पारो नहीं मानी, पूर्ववत रोती रही। देव ने कन्धे से पकड़कर उसे उठाना चाहा, ''पारो, ऊपर आओ। बगल में बैठो। आओ।''''नहीं देव दा, मुझे यहीं रहने दो। मुझे सारी जि़न्दगी यहीं रहना है, तुम्हारे चरणों के पास। बोलो देव दा, मुझे यहाँ थोड़ी-सी जगह दोगे?''

''मेरे अलावा क्या तुम किसी और से ब्याह नहीं कर सकती?''

पार्वती ने कुछ नहीं कहा। देव भी चुप। कमरे में शान्ति। दूर कहीं कुत्ते के भौंकने की आवाज़ कट-पिटकर आ रही थी। जब दीवार-घड़ी ने दो बजने का गजर दिया तो दोनों की तन्द्रा टूटी। सोच के बिखरे सिरों को समेटते हुए देव ने वहीं से कहना शुरू किया, जहाँ बातचीत खत्म हुई थी।''...तुम्हें पता है कि मेरे घरवाले इस रिश्ते के खिलाफ हैं?''

''सुना ऐसा ही है देव दा!''

देव चुप हो गया। थोड़ा साहस बटोरकर पूछा, ''फिर यह सब करने से क्या फायदा पारो? ...सुनो, इधर आओ।''

लेकिन पारो जैसे बीच मँझधार में हो और देव के पाँव पकड़कर ही किनारे पर पहुँचा जा सकता है, ऐसे उसने कसकर पाँव पकड़ रखा था और रोये जा रही थी। बोली, ''इतना सब मैं नहीं जानती।''

''लेकिन माँ-बाबूजी की मर्जी के बगैर...?''

''इसमें हर्ज ही क्या है?''

''लेकिन वे मुझे इस घर से बाहर निकाल देंगे, और ऐसा न भी हो तो वे बहू के रूप में तुम्हें यहाँ रहने नहीं देंगे। ...फिर मैं तुम्हें रखूँगा कहाँ?''

''मुझे बस यहीं रहना है, तुम्हारे चरणों में।''

फिर चुप्पी। लम्बी चुप्पी। लेकिन दोनों चुप रहकर भी जैसे एक निष्कर्ष तक पहुँच रहे थे। पारो हताश थी, देव शर्मसार।

घड़ी ने सुबह के चार बजाए। नौकर-चाकर उठने को होंगे। गरमियों में सुबहें जल्दी हो जाया करती हैं।

देवदास ने पारो को कन्धे से उठाते हुए कहा, ''पार्वती! चलो। आओ मैं तुम्हें घर तक पहुँचा आऊँ।''पारो के आँसू सूख चुके थे। चेहरे पर दृढ़ता। बोली, ''...और जो किसी ने देख लिया तो तुम्हारी बदनामी नहीं होगी?''

पारो के तंजिया तेवर की अनदेखी करते हुए देव ने कहा, ''अगर थोड़ी-बहुत बदनामी भी होती है तो कोई हर्ज नहीं।''

''ठीक है, तो चलो, छोड़ आओ।''

दोनों चुपचाप चल दिये।

कुणाल सिंह द्वारा मूल बंगला से किया गया 'देवदास' का यह अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ से पुस्तकाकार प्रकाशित है.

Tuesday, March 09, 2010

बांग्ला कविता




बुद्धदेब दासगुप्ता
मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह

टेलीफोन
फोन करते करते रविरंजन सो गया है
चेन्नई में टेलीफोन के चोंगे के भीतर
रवि की पत्नी पुकार रही है कोलकाता से- रवि रवि
सात बरस का बेटा और तीन बरस की बेटी
पुकारते हैं- रवि रवि
अँधेरे बादलों से होकर, नसों शिराओं से होकर
आती उस पुकार को सुनते सुनते
रवि पहुँच गया है अपने
पिछले जनम की पत्नी, बच्चों के नंबर पे
याद है? याद नहीं?
पिछले जनम के टेलीफोन नंबर से तैरती आती है आवाज़
याद नहीं रवि? रवि?
मंगल ग्रह के उस पार से
सन्न सन्न करती उडती आती है
पिछले के भी पिछले जनम की पत्नी की आवाज़।
रवि तुम्हें नहीं भूली आज भी
याद है मैंने ही तुम्हें सिखाया था पहली बार
चूमना। रवि याद नहीं तुम्हें?

टेलीफोन के तार के भीतर से
रिसीवर तक आ जाती है एक गौरैय्या
रवि के होठों के पास आकर सबको कहती है
याद है, याद है। रवि को सब याद है।
जरा होल्ड कीजिये प्लीज़, रवि अभी दूसरे नंबर पर बातें कर रहा है
अपने एकदम पहले जनम के पत्नी बच्चों से
जिसने उसे सिखाया था कि कैसे किसी को प्यार करते हें
सात सात जन्मों तक।


हैंगर
जब भी उसके पास करने को कुछ नहीं होता था
या नींद नहीं आती थी लाखी कोशिशों के बावजूद
तो वह अलमारी खोल के खड़ा हो जाता था।
अलमारी खोल के घंटों वह देखता रहता था
अलमारी के भीतर का संसार।
दस जोड़ी कमीजें, पतलून उसे देखते थे, यहाँ तक कि
अलमारी के दोनों पल्ले भी अभ्यस्त हो गए थे उसके देखने के।
अंततः, धीरे धीरे अलमारी को उससे प्यार हो गया। एकदिन ज्यों ही उसने
पल्ले खोले, भीतर से एक कमीज़ की आस्तीन ने उसे पकड़ लिया
खींच लिया भीतर, अपने आप बंद हो गए अलमारी के पल्ले, और
विभिन्न रंगों की कमीजों ने उसे सिखाया कि कैसे
महीने दर महीने
साल दर साल, एक जनम से दूसरे जनम तक
लटका रहा जाता है
सिर्फ एक हैंगर के सहारे।


हाथ
अपने हाथों के बारे में हमेशा तुम सोचते थे
फिर एकदिन सचमुच ही तुम्हारा हाथ तुमसे गुम गया।
हाय, जिसे लेकर तुमने बहुत कुछ करने के सपने पाले थे गालों पे हाथ धरकर
पागलों की तरह दौड़ धूप किया, न जाने कितने दिन कितने महीने कितने साल-
पागलों की तरह सर पीटते पीटते फिर एक दिन तुम्हें नींद आ गयी।
बहुत रात गए तुम नींद से जागकर खिड़की के आगे आ खड़े हुए
खिड़की के पल्ले खुल गए
अद्भुत चांदनी में तुमने देखा एक विशाल मैदान में सोए हें
तुम्हारे दोनों हाथ। एकसार बारिस हो रही है हाथों के ऊपर, और
धीमी धीमी आवाज़ करते हुए घास उग रहे हें हाथों के इर्द गिर्द।


कान
एक कान देखना चाहता है अपने जोड़ीदार दूसरे कान को
एक कान कहना चाहता है दूसरे कान से न जाने कितनी बातें।
कभी मुलाक़ात नहीं होती दोनों की, बातें एक कान में बहुत गहरे धंसकर
दूसरे कान की गहराई से निकल पड़ती है, और अंततः
हवाओं में घुल मिल जाती है। दुःख और शर्म से
कुबरे होते होते एक दिन कान झड जाते हें, गिर पड़ते हें रास्तों में कहीं। पृथ्वी पे
इस तरह शुरू होती है कानहीन मनुष्यों की प्रजाति।
आज एक कानहीन आदमी का एक कानहीन लड़की से शादी है,
पसरकर बैठे हें देखो, उनके कानहीन दोस्त यार
कानी ऊँगली डुबाकर दही खाते खाते
न जाने कौन सी बात पे
हंस हंस कर दोहरे हुए जा रहे हें
रो रहे हें, सो रहे हें बिस्तरों पर।


(बुद्धदेब दासगुप्ता : ११ फ़रवरी १९४४ को जन्मे बुद्धदेब जाने माने फिल्मकार हैं। बाघ बहादुर, ताहादेर कथा, चराचर, उत्तरा, मंदों मेयेर उपाख्यान, कालपुरुष आदि फिल्मों के निर्देशक। देश विदेश में कई पुरस्कार। कविताए लिखते हैं। दो-चार कहानियां भी लिखी हैं।)

Monday, March 08, 2010

पूर्वसूचना

भाषासेतु के पाठकों के लिए एक खुशखबरी। बांग्ला के प्रख्यात फिल्मकार बुद्धदेब दासगुप्ता को कौन नहीं जनता होगा। बुद्धदेब जितने बड़े सिनेमादां हैं, लगभग उतने ही कद्दावर कवि भी। जल्दी ही हम उनकी कुछ अनूदित कविताओं के साथ हाजिर होंगे।

Saturday, January 30, 2010



बरगद
ऋत्विक घटक
बांग्ला से अनुवाद : सुशील कान्ति

गाँव के सीवान का वह बरगद का पेड़ बहती नदी में अपना सिर झुकाए खड़ा था।
पेड़ों में वह पेड़, कुछ खास तो नहीं था।
बहुत पुराना पेड़ था, जड़ों में कीड़े लग गये थे, डालियाँ सडऩे लगी थीं। मगर किसी ज़माने में यह पेड़ ताज़ादम हुआ करता था, पर आज नहीं। यह पेड़ लोगों के किसी काम नहीं आता, मगर गाँव में आनेवाले लोग इस पेड़ को भलीभाँति पहचानते थे। वे जानते थे कि इसके बाद वाले मोड़ पर ही हारु लोहार की दुकान है और उसके बाद ही उसका गाँव शुरू हो जाता है।
साल में केवल एकबार इस पेड़ की किस्मत फिरती थी। चड़क (बंगाल का एक पारम्परिक त्यौहार)के वक्त। उस पेड़ की जड़ों में न जाने कौन आकर, तेल-सिन्दूर लगाकर चमका जाता, दूर-दराज गाँवों के लोग आ जुटते। गाँव के मैदान में मेला-सा लग जाता और वह पेड़ लोगों की नज़रों में नुमाया हो जाता। इसके बाद फिर पूरे साल वह पेड़ नदी में झुका रहता। उसके आसपास की परती पड़ी ज़मीन पर गायें चरा करतीं, वहाँ से गुज़रते पथिक उसकी शीतल छाया में बैठकर पोटली खोलते, चिउड़ा-गुड़ खाते और नदी का पानी पीकर आगे अपनी यात्रा शुरू करते। चाँदनी रातों में वह पेड़ मैदान के किनारे खड़े-खड़े अपने आगोश में अँधेरे उजाले का अद्भुत संसार रचता और कुछ ज़्यादा ही झुककर उस चंचला नदी में, न जाने कैसा एक रहस्यभरा स्वप्न देखता।
छह-छह ऋतुएँ उस पेड़ के ऊपर से गुज़र जातीं। नदी से नावों का गुज़रना जारी रहता, नावों पर सवार बच्चे अजब कुतूहल से उस पेड़ को निहारते।
छोटे-छोटे बच्चों की भी अड्डा-स्थली थी इसी पेड़ की तलहटी। पेड़ की टेढ़ी-मेढ़ी डालों पर चढ़कर बच्चे खेलते रहते। डालों से नदी में कूदते, स्कूल से भागकर यहीं जुड़ाते।
गाँव के बड़े बुज़ुर्ग अपने बचपन के दिनों से ही इस पेड़ के नीचे आकर सुस्ताया करते थे। गरमी की ढलती शाम में कोई कोई तो नदी के बिलकुल किनारे, जहाँ पेड़ की जड़ें आपस में गुत्थम-गुत्था होतीं, उस पर बैठकर नदी की कल-कल सुना करते।
वहाँ रहने वाले मछुआरों को मालूम था कि पेड़ की जड़ों में छोटी-बड़ी मछलियाँ फँसी होती हैं। उनके बच्चे स्नान करने आते तो गमछे से छानकर मछली पकड़ते। जाल में भी का$फी मछलियाँ फँसती।
बूढ़े भी इन्हें पहचानते थे। वे भी जड़ों से अपनी पीठ टिकाये इनके खेल देखते, मछुआरों का मछली पकडऩा देखते और मस्ती में अपना सिर हिलाते। शायद अपने जीवन के गाढ़े वक्तों को याद करते।
मगर वे खुद भी नहीं जानते थे कि उनके मन में इस बूढ़े बरगद का क्या स्थान है। वे तो केवल इसे बूढ़े शिव का बरगद कहते। यह हमेशा से यहीं था और रहेगा। इसका अस्तित्व बस इतना कि लोग कहते, ''हारु काका के मोड़ पार करते ही बूढ़े शिव का बरगद है।''
सम्भव था— यह पेड़ कई पीढिय़ों तक यहीं खड़ा रहता और आने वाले यात्रियों के लिए विश्राम स्थल बना रहता मगर अचानक ही एक दिन नया सरकारी फरमान आ पहुँचा। मौजूदा सिंचाई व्यवस्था को बेहतर करने के लिए नदी का पाट चौड़ा करना पड़ेगा। बस, का$फी शोरगुल के बीच अपनी मौन आपत्ति प्रकट करते हुए बूढ़े शिव का बरगद एक दिन धराशायी हो गया। नदी के दोनों किनारों को समान रूप से काटकर नये ढंग की नहर तैयार की गयी।
समूचा गाँव जैसे जाग उठा था। लोगों को उस बरगद के पेड़ का मतलब समझ में आ गया। सबके मन में विरोध का स्वर उमडऩे-घुमडऩे लगा। उन लोगों ने सस्वर आपत्ति भी प्रकट की।
मगर उनका विरोधी स्वर भिनभिनाहट बनकर रह गया। पेड़ को आखिर धराशायी होना ही था...। धीरे-धीरे उस बरगद की याद गाँव वालों के मन से भी विलुप्त होने लगी। नये चेहरे, नये मकान, सब कुछ नया-नया था। बस गाँव के बूढ़े जब वहाँ से गुज़रते तो नदी का किनारा उन्हें बेहद वीरान-सा लगता। इसकी व्याख्या वे लोग अपने हाथ-पाँव हिला-हिलाकर नयी पीढिय़ों से करते। ये उनकी चर्चा का नया विषय बन गया था।
पर, आखिर कितने दिन!
इतने दिनों तक वह बरगद लोगों को विश्राम का सुख देते देते आज सबके मन-मस्तिष्क से बेआवाज अन्तर्धान हो चुका है।
sushil kanti
Mob- 06868303104, email: sushil.kanti@gmail.com