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युवा कवयित्री मंजुलिका पाण्डेय 'भाषासेतु' पर पहली बार। बल्कि ब्लॉग की दुनिया में यह मंजुलिका का डेब्यू है। राँची में रहती हैं। पढाई-लिखाई करती हैं। आजकल कहानियां भी लिख रही हैं। जल्दी ही आपकी कहानियां हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में पाठक पढेंगे।
मंजुलिका पाण्डेय
हम मनीप्लांट हैं
हम मनीप्लांट हैं
जड़ तने में होती है
पत्थर, दीवार, छत...
जो भी मिलता है
जकड लेते हैं
फिर फैलने लगते हैं
रौशनी मिले, न मिले
उर्वरता हो, न हो
पर...
फैलते हैं, फैलते जाते हैं
कि हमें
अभिशाप मिला है
बेशर्मी से जीते जाने का।
मैं एक प्रश्न हूँ
मैं एक प्रश्न हूँ
विरोधाभासों से निषेचित
संशयों के गर्भ में पलता हूँ, बढ़ता हूँ
संघर्ष की गोद में प्रसवित हो
आरोपों के आलिंगन में झूलता हूँ
टूटे सपनों से आदर्शों पर आघात करता हूँ
रिश्तों की प्रपंच शिलाओं से
घिसता हूँ, पिसता हूँ
जीवन के खोल में
मृत्यु सा छिपा हूँ
तर्कों की झुर्रियों में
भावों सा मिटा हूँ
जीवन हूँ मैं?
मैं एक प्रश्न हूँ।
5 comments:
मनी पलांट बहुत भायी.....
उम्मीद जगाती कविताएं...बधाई..लिखती रहें...
Achchhi kvitayein...Shubhkamna.
Vijaya Singh
रिश्तों की प्रपंच शिलाओं से
घिसता हूँ, पिसता हूँ.
वाह! अद्भुत!
मंजुलिका की दोनों कवितायेँ अच्छी और सार्थक हैं....बधाई.
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