Friday, April 30, 2010

औरों के बहाने




गिरिराज किराडू हमारे समय के जाने माने कवि हैं। 'मेज़' शीर्षक शुरुआती कविता पर ही प्रतिष्ठित 'भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार' मिला। संकोची इतने कि अपना लिखा बहुत कम दिखाते और उससे भी कम छपवाते हैं। शायद इसी वजह से अब तक पहली किताब ने अपने 'नौ महीने' पूरे नहीं किये। बीकानेर, राजस्थान के रहने वाले गिरीराज फ़िलहाल जयपुर में अंग्रेजी के व्याख्याता हैं।


छुपी हुई चीजों का संग्रहालय
गिरिराज किराडू
फ्लाबेयर का उपन्यास 'मादाम बोवारी' एक विवाहिता के तीन पुरुषों से प्रेम की कथा है। तोलस्तोय के 'अन्ना कारेनिना' में अन्ना की प्रेमकथा उसके विवाह के कई बरस बाद तब शुरू होती है जब उसका बेटा बारह बरस का होने को आया है। शरतचंद्र का देवदास अपनी प्रेमिका की ससुराल के बाहर अपनी अंतिम साँस लेता है। गार्सिया मार्केस के 'लव इन टाइम ऑफ़ कॉलरा' का नायक फ्लोरेंतिनो एरिज़ा एक विवाहिता के पति के मरने का इंतजार पचास बरस तक करता है और इन पचास बरसों में ६२१ स्त्रियाँ उसके जीवन में आती हैं। माइकल ओन्दत्ज़ी के दूसरे महायुद्ध की पृष्ठभूमि में घटित हो रहे उपन्यास 'द इंग्लिश पेशेंट' में अल्मासी अपने सहकर्मी की पत्नी से प्रेम करता है और अरुंधती रॉय के 'मामूली चीजों के देवता' में एक दूसरे से प्रेम करने वाले राहेल और एस्था भाई बहन हैं जबकि उनकी माँ अम्मू एक दलित वेलुथा से प्रेम करती है।
१८५६ में पहली बार प्रकाशित 'मादाम बोवारी' से १९९६ में प्रकाशित अरुंधती रॉय के उपन्यास तक लगभग डेढ़ सौ बरसों में, और पहले भी, प्रेमकथाएं बार बार हमें उस इलाके में ले जाती रही हैं जहाँ हमें चेक उपन्यासकार मिलान कुंदेरा के शब्दों में नैतिक निर्णय को स्थगित करना पड़ता है। न्यायालय या धर्मतंत्र के लिए मादाम बोवारी या अन्ना कारेनिना या अल्मासी या राहेल और एस्था का आचरण अनैतिक था और रहेगा। एक आधुनिकतम समाज व्यवस्था और सर्वाधिक न्यायपूर्ण राजनैतिक व्यवस्था भी विवाहित व्यक्तियों के प्रेम या अगम्यागमन को दंडनीय ही मानेगी, लेकिन एक कलाकृति की दृष्टि में उन पात्रों पर नैतिक निर्णय आरोपित करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ और होता है। वह हमें मनुष्य होने के कुछ अधिक संश्लिष्ट अँधेरे-उजाले में आने के लिए उकसाती है। हमारे समाज-नैतिक बोध को असमंजस में डालती है और हमें जीवन की एक सरलीकृत समझ में गर्क होने से बचाने का प्रयास करती है। हमारे समय में समाज-नैतिक दबाव एक तरफ जहाँ कम हुआ है वहीँ दूसरी तरफ प्रेम को किसी सामाजिक या मजहबी या सांस्कृतिक आचार संहिता से दमित करने वाली ये संस्थाएं नियंत्रण करने की पुरुष फंतासी से निकली हुई संरचनाएं ही हैं। कलाकृतियां कभी मुखर और कभी गुपचुप तरीके से वैकल्पिक नैतिकता और वैकल्पिक सामाजिकता का निर्माण करती रही हैं। मुखर तरीके से जब वे ऐसा करती हैं तो उनको लेकर बहुत त्वरित और उत्तेजित प्रतिक्रिया होती है और तब सामान्यतः उन्हें अनैतिक और सनसनीखेज कृति करार दिया जाता है। लेकिन कलाकृतियां हमारे बिना जाने और अक्सर बिना चाहे भी अपना काम करती रहती हैं और हम ये पाते हैं कि कभी अनैतिक ठहरा दी गयी कृति प्रेम और नैतिकता का सबसे मर्मस्पर्शी आख्यान बन गयी है। वो चुपचाप अपना काम करते हुए अस्तित्वा के बारे में हमारी समझ को ही इस तरह बदल देती है कि हम अन्ना या बोवारी को दुराचारिणी स्त्रियों की तरह या राहेल या एस्था को पापपूर्ण और घृणित वासना के शिकार चरित्रों की तरह देखने की बजाय ऐसे मनुष्यों की तरह समझने की कोशिश करते हैं जिनकी आस्त्वित्विक परिस्थिति का समाज-नैतिक पर्यावरण के साथ सम्बन्ध असमंजस या तनाव का होता है। उनकी कथाएँ जितना उनके भीतर के संसार से हमारा परिचय कराती है उतना ही उस पर्यावरण की अपनी संरचना से भी। उन चरित्रों की विडम्बना में हम समाज-नैतिक पर्यावरण की अपनी विडंबनाओं को, उसके छल और उसकी असहिष्णुताओं को झांकता हुआ पाते है।
समय में भी प्रेमकथाओं ने अपना काम करने का यह खास ढंग बनाए रखा है। इयान मैकिवान के उपन्यास 'अनटोनमेंट' (2001) के एक दृश्य में एक पुस्तकालय में प्रेम-क्रीडा कर रहे दो पात्रों रोबी और सिसिलिया को तेरह वर्षीया ब्रियोनी देख लेती है। वह सिसिलिया की छोटी बहन है और इस दृश्य को ऐसे समझती है कि साधारण परिवार से आने वाला रोबी उसकी बहन के साथ जबरदस्ती कर रहा है। बाद में ब्रियोनी की गवाही पर रोबी को बच्चों का अपहरण करने के ऐसे अपराध में जेल हो जाती है जो उसने किया ही नहीं। ब्रियोनी को नहीं मालूम कि वह अपराध किसने किया लेकिन पुस्तकालय वाले दृश्य का असर उसके चित्त पर ऐसा है कि वह रोबी को उसके 'मूल अपराध' के लिए दंड देती है। एक तेरह वर्षीया अल्पवयस्क को प्रेम के 'अपराध' को नियंत्रित करने वाली नैतिक और अंशतः एक कानूनी शक्ति की तरह प्रस्तुत करते हुए मैकिवान ने एक ऐसा दृश्य घटित किया है जो हमारी चेतना को एक तरफ ब्रियोनी और दूसरी तरफ रोबी और सिसिलिया की यातनाओं का हिस्सा बना देता है। ब्रियोनी बाद में एक उपन्यासकार बनती है और अपने उपन्यास में युद्ध में अकाल मर चुके रोबी और सिसिलिया के साथ 'न्याय' करती है : उपन्यास में उनका मिलन हो जाता है।
गार्सिया मार्केस के 'माई मेलंकली व्होर्स' (2004) का मुख्य पात्र नब्बे बरस का होने वाला है और अपने जन्मदिन पर वह खुद को एक कुंवारी लड़की का संसर्ग उपहार में देता है। यह अविवाहित अनाम पात्र जो धन के बदले में पांच सौ से अधिक स्त्रियों के साथ संसर्ग कर चूका है, सीधे सीधे एक पतित चरित्र जान पड़ता है और उसकी कामना बहुत विकृत किस्म की वासना। लेकिन मार्केस ने इस चरित्र को इस प्रकार रचा है कि वह प्रेम के सच्चे, परिपूर्ण करने वाले अनुभव से वंचित एक पात्र है। एक गहरे अर्थ में खुद भी एक कुंवारा, जो अपनी मृत्यु का सामना करते हुए अपने 'पहले' प्रेम का आविष्कार करता है।
ये उपन्यास इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे समय में गंभीर कलाकृतियाँ प्रेम को एक सपाट सनसनीखेज किस्से में बदल दिए जाने का एक सर्जनात्मक प्रतिवाद बनी हुई हैं। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की प्रेमकथाओं का कोई भी जिक्र ओरहन पामुक के नवीनतम उपन्यास 'द म्यूजियम ऑफ़ इन्नोसेंस' (२००८) के बिना अधुरा होगा। इस उपन्यास में व्यवसाई कमाल की अपने से बारह बरस छोटी, खुद उसके मुकाबले में बहुत 'गरीब' और दूर की रिश्तेदार फुसुन से प्रेम की कथा तीन बरस के लम्बे वक़्त में फैली हुई है। कमाल फुसुन को जब पहली बार देखता है, वह अपनी मंगेतर सिबिल के साथ है। 'बहुत आसानी से' दोनों के बीच शारीरिक प्रेम घटित होता है। फुसुन की आधुनिकता- स्विम सूत पहनना, ब्यूटी कोंटेस्ट में भाग लेना, विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को लेकर सहज होना- से अचंभित कमाल उससे दूर भागने की, अंततः असफल, कोशिश करता है। वह जब तक फुसुन के जीवन में लौट पाटा है, उसकी शादी हो चुकी है और अब उसकी 'पारम्परिकता' उन्हें एक दूसरे से दूर रखेगी। कमाल हर उस चीज़ का संग्रह करने लग जाता है जिसे फुसुन ने कभी छुआ हो और उसका संग्रह ही 'अबोधता का संग्रहालय' है।
प्रेमकथाएं भी शायद एक तरह का संग्रहालय होती हैं; हमारे और समाज के चेतन-अवचेतन का संग्रहालय, जो प्रदर्शित चीजों से कहीं ज्यादा छुपी हुई चीजों सजा रहता है। अगर आपका कुछ खो गया हो तो एक बार वहां हो आये, हो सकता है मिल जाए।

3 comments:

Anonymous said...

uttam lekh. vicharottejak. dharmendra kumar

सागर said...

Agree with Mr. Anonymous.

Anonymous said...

Akath kahani prem ki...itna kuch kahne-sunne ke bad v kuch na kuch vilakshan hum ji rhe hote hai.Bahut-2 kahane k bad anek kuch baki.Mahatwapurna, sargarvit aalekh.BADHAYI.
Vijaya Singh.