बहुत दिनों से चाहता था अपने ब्लॉग पे पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब अहमद फ़राज़ की कुछ ग़ज़लें पेश करूँ। सबसे पहले मेहंदी हसन साब की गायी वो मशहूर ग़ज़ल 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ' से ही मैंने फ़राज़ के बारे में जाना। फिर सिलसिला निकल पड़ा। कौन नहीं बार बार सुनना चाहता है मेहंदी साब की ही गायी फ़राज़ की वो एक और मशहूर ग़ज़ल 'ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं'? बहरहाल चूँकि ये दोनों ग़ज़लें बहुत बार सुनी गयी हैं, इसलिए यहाँ दो दूसरी ग़ज़लें पेश हैं।
अहमद फ़राज़ की चन्द ग़ज़लें
एक
बरसों के बाद देखा एक शख्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा
अबरू खिंचे खिंचे से ऑंखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा
अल्फाज़ थे के जुगनू आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा
ख्वाबों में ख्वाब उसके यादों में याद उसकी
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा
पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा
अगली मुहब्बतों ने वो नामुरादियाँ दी
ताज़ा रफ़ाक़तों से दिल था डरा डरा सा
अब सच कहें तो यारो हमको खबर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत एक वाकिया ज़रा सा
तेवर थे बेरुखी के अंदाज़ दोस्ती का
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा
हमने भी उसको देखा कल शाम इत्तेफाक़न
अपना भी हाल है अब लोगो 'फ़राज़' का सा
दो
इससे पहले के बेवफा हो जाएँ
क्यों न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल क्या से क्या हो जाएँ
हम भी मजबूरियों का उज्र करें
और कहीं और मुब्तला हो जाएँ
इश्क भी खेल है नसीबों का
खाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ
अबके गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ
बंदगी हमने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ
अहमद फ़राज़ की चन्द ग़ज़लें
एक
बरसों के बाद देखा एक शख्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा
अबरू खिंचे खिंचे से ऑंखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा
अल्फाज़ थे के जुगनू आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा
ख्वाबों में ख्वाब उसके यादों में याद उसकी
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा
पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा
अगली मुहब्बतों ने वो नामुरादियाँ दी
ताज़ा रफ़ाक़तों से दिल था डरा डरा सा
अब सच कहें तो यारो हमको खबर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत एक वाकिया ज़रा सा
तेवर थे बेरुखी के अंदाज़ दोस्ती का
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा
हमने भी उसको देखा कल शाम इत्तेफाक़न
अपना भी हाल है अब लोगो 'फ़राज़' का सा
दो
इससे पहले के बेवफा हो जाएँ
क्यों न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल क्या से क्या हो जाएँ
हम भी मजबूरियों का उज्र करें
और कहीं और मुब्तला हो जाएँ
इश्क भी खेल है नसीबों का
खाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ
अबके गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ
बंदगी हमने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ
6 comments:
vah bhai vah kaya ghzal pesh ki hai aplogon ne. bhai kunalji ap to kamaal kar rahen hain, maijanta hun yeh blog ekdin sabse upar rahega, vibhinn tarah ke test dene k liye shukriya.
Virendra Prasad, Kolkata
very nice
Regards,
Vijaya Singh.
nice peice of ghazal. ummid hai aage v aap faraz ki aur ghazalen denge. 'ranjis' aur 'zindagi men to sav' v den to kya harja hai?
dharmendra kumar
BAHUT HI ACHI GAZAL HAI.
बंदगी हमने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ
waah!
फ़राज़ साहब की गज़लें हर दिल में उतर जाती हैं.
अबके गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ
Bahut hi umda sher hai..
Kam se kam paanch ghazal dejiye
Faraz ji ko padna bahut hi acha laga.
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