बरगद
ऋत्विक घटक
बांग्ला से अनुवाद : सुशील कान्ति
गाँव के सीवान का वह बरगद का पेड़ बहती नदी में अपना सिर झुकाए खड़ा था।
पेड़ों में वह पेड़, कुछ खास तो नहीं था।
बहुत पुराना पेड़ था, जड़ों में कीड़े लग गये थे, डालियाँ सडऩे लगी थीं। मगर किसी ज़माने में यह पेड़ ताज़ादम हुआ करता था, पर आज नहीं। यह पेड़ लोगों के किसी काम नहीं आता, मगर गाँव में आनेवाले लोग इस पेड़ को भलीभाँति पहचानते थे। वे जानते थे कि इसके बाद वाले मोड़ पर ही हारु लोहार की दुकान है और उसके बाद ही उसका गाँव शुरू हो जाता है।
साल में केवल एकबार इस पेड़ की किस्मत फिरती थी। चड़क (बंगाल का एक पारम्परिक त्यौहार)के वक्त। उस पेड़ की जड़ों में न जाने कौन आकर, तेल-सिन्दूर लगाकर चमका जाता, दूर-दराज गाँवों के लोग आ जुटते। गाँव के मैदान में मेला-सा लग जाता और वह पेड़ लोगों की नज़रों में नुमाया हो जाता। इसके बाद फिर पूरे साल वह पेड़ नदी में झुका रहता। उसके आसपास की परती पड़ी ज़मीन पर गायें चरा करतीं, वहाँ से गुज़रते पथिक उसकी शीतल छाया में बैठकर पोटली खोलते, चिउड़ा-गुड़ खाते और नदी का पानी पीकर आगे अपनी यात्रा शुरू करते। चाँदनी रातों में वह पेड़ मैदान के किनारे खड़े-खड़े अपने आगोश में अँधेरे उजाले का अद्भुत संसार रचता और कुछ ज़्यादा ही झुककर उस चंचला नदी में, न जाने कैसा एक रहस्यभरा स्वप्न देखता।
छह-छह ऋतुएँ उस पेड़ के ऊपर से गुज़र जातीं। नदी से नावों का गुज़रना जारी रहता, नावों पर सवार बच्चे अजब कुतूहल से उस पेड़ को निहारते।
छोटे-छोटे बच्चों की भी अड्डा-स्थली थी इसी पेड़ की तलहटी। पेड़ की टेढ़ी-मेढ़ी डालों पर चढ़कर बच्चे खेलते रहते। डालों से नदी में कूदते, स्कूल से भागकर यहीं जुड़ाते।
गाँव के बड़े बुज़ुर्ग अपने बचपन के दिनों से ही इस पेड़ के नीचे आकर सुस्ताया करते थे। गरमी की ढलती शाम में कोई कोई तो नदी के बिलकुल किनारे, जहाँ पेड़ की जड़ें आपस में गुत्थम-गुत्था होतीं, उस पर बैठकर नदी की कल-कल सुना करते।
वहाँ रहने वाले मछुआरों को मालूम था कि पेड़ की जड़ों में छोटी-बड़ी मछलियाँ फँसी होती हैं। उनके बच्चे स्नान करने आते तो गमछे से छानकर मछली पकड़ते। जाल में भी का$फी मछलियाँ फँसती।
बूढ़े भी इन्हें पहचानते थे। वे भी जड़ों से अपनी पीठ टिकाये इनके खेल देखते, मछुआरों का मछली पकडऩा देखते और मस्ती में अपना सिर हिलाते। शायद अपने जीवन के गाढ़े वक्तों को याद करते।
मगर वे खुद भी नहीं जानते थे कि उनके मन में इस बूढ़े बरगद का क्या स्थान है। वे तो केवल इसे बूढ़े शिव का बरगद कहते। यह हमेशा से यहीं था और रहेगा। इसका अस्तित्व बस इतना कि लोग कहते, ''हारु काका के मोड़ पार करते ही बूढ़े शिव का बरगद है।''
सम्भव था— यह पेड़ कई पीढिय़ों तक यहीं खड़ा रहता और आने वाले यात्रियों के लिए विश्राम स्थल बना रहता मगर अचानक ही एक दिन नया सरकारी फरमान आ पहुँचा। मौजूदा सिंचाई व्यवस्था को बेहतर करने के लिए नदी का पाट चौड़ा करना पड़ेगा। बस, का$फी शोरगुल के बीच अपनी मौन आपत्ति प्रकट करते हुए बूढ़े शिव का बरगद एक दिन धराशायी हो गया। नदी के दोनों किनारों को समान रूप से काटकर नये ढंग की नहर तैयार की गयी।
समूचा गाँव जैसे जाग उठा था। लोगों को उस बरगद के पेड़ का मतलब समझ में आ गया। सबके मन में विरोध का स्वर उमडऩे-घुमडऩे लगा। उन लोगों ने सस्वर आपत्ति भी प्रकट की।
मगर उनका विरोधी स्वर भिनभिनाहट बनकर रह गया। पेड़ को आखिर धराशायी होना ही था...। धीरे-धीरे उस बरगद की याद गाँव वालों के मन से भी विलुप्त होने लगी। नये चेहरे, नये मकान, सब कुछ नया-नया था। बस गाँव के बूढ़े जब वहाँ से गुज़रते तो नदी का किनारा उन्हें बेहद वीरान-सा लगता। इसकी व्याख्या वे लोग अपने हाथ-पाँव हिला-हिलाकर नयी पीढिय़ों से करते। ये उनकी चर्चा का नया विषय बन गया था।
पर, आखिर कितने दिन!
इतने दिनों तक वह बरगद लोगों को विश्राम का सुख देते देते आज सबके मन-मस्तिष्क से बेआवाज अन्तर्धान हो चुका है।
sushil kanti
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