Saturday, May 29, 2010

अंग्रेजी कविता

महिमा का मिथ
(वियतनाम युद्ध से सम्बंधित कविताएँ)
जॉन केंट
अंग्रेजी से अनुवाद : कुमार अनुपम

एक
एक अनाथ लड़का
जिसकी एक ही बांह,
मुझे एकटक घूरता रहता है

घृणा की एक लम्बी उम्र
इन आठ संक्षिप्त सालों में...

दो
हम जीत लेते हैं गाँव के गाँव
वीसी के नाते प्रतिष्ठित है जो
ग्रामीण कपड़ों में लिपटा होने के बावजूद

वे दागते एके ४७
जवाब में हम उन्हें मार डालते

'हुच्च' की आवाज़ सुनते हम चीखते-
अपने हथियार डाल दो, बाहर आओ, अपने हाथ ऊपर उठाए हुए!
(वियतनामी कबूतरों!)

वे जवाब देते अपशब्द और आग के साथ

बारूद से भर देते हम उनकी 'हुच्च'
बस एक ग्रेनेड उछालकर

सन्नाटा...

सावधानी से हम झांकते भीतर
सभी तो मृत...

एक नवयुवती
नवजात शिशु को जकड़े हुए अपनी छाती से
एकमेक
रक्त की नदी में।

तीन
लड़का जो दस से अधिक का नहीं
कुझे चकाचौंध करता अपने कपड़ों तले से
हथियार चमकाता है

मुझे एक उदार आश्वस्ति दो
पूछो मुझसे क्यों
मौत के घाट उतारा मैंने एक दस साल के लड़के को!

Thursday, May 20, 2010

फिलिस्तीनी कविता


बहुत दिनों के बाद 'भाषासेतु' के पाठकों से रू ब रू हुआ जा रहा है। दरअसल इन कुछ दिनों पढाई लिखी को लेकर कुछ व्यस्तता रही और हमारे दूसरे संपादक सुशील जी ने कलकत्ते में नयी नयी नौकरी संभाली है तो इत्तेफकान वे भी व्यस्त ही रहे।
बहरहाल, देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पे इस बार पेश है फिलिस्तीन के कवि ताहा मुहम्मद अली की कविता। इसका अनुवाद किया है मेरी एक 'प्राचीन' दोस्त विजया सिंह ने। विजया कलकत्ता विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रही हैं। खुश्कमिजाज़ (खुशमिजाज़ पढने की गलती मत कीजियेगा) विजया खुद बहुत अच्छी कवयित्री हैं। तो आइए पढ़ते हैं ताहा मुहम्मद अली की कविता। -कुणाल सिंह

ताहा मुहम्मद अली
अनुवाद : विजया सिंह

पेट्रोलियम की नसों में जमा खून
मैं बचपन में अतल गड्ढे में गिर पड़ा लेकिन
मैं नहीं मरा
जवानी में पोखर में डूब कर भी मैं नहीं मरा
और अब ईश्वर हमारी मदद करें-
मेरी आदतों का एक विद्रोही सैनिक
सीमा से लगे ज़मीनी विस्फोटकों की पलटन में दौड़ रहा है
जैसे मेरे गीत
मेरे युवा काल के दिन
तितर-बितर हो गए हैं
यहाँ एक फूल है, वहां एक चीख
और फिर भी मैं नहीं मरा

उन्होंने मेरी हत्या कर दी
दावत के लिए काटे गए मेमने की तरह-
पेट्रोलियम की नसों में जमा खून
ईश्वर का नाम लेकर उन्होंने मेरा गला चीरा
एक कान से दूसरे कान तक
हज़ारों बार
और हर बार गिरती रक्त की बूँदें
पीछे से आगे तक छलछला पड़ीं
जैसे फांसी लगे इंसान का आगे पीछे झूलता पैर
जो तभी स्थिर होता है
जब बड़े, रक्तिम औषधि वृक्ष पर फूल लग जाते हैं-
उसी आकाशदीप की भांति
जो भटके जलयानों को रास्ता दिखाता है
और राजभवनों तथा दूतावासों की
स्थिति चिह्नित करता है

और कल
ईश्वर हमारी मदद करें-
फोन नहीं बजेगा
फिर चाहे वह वेश्यालय में हो या किले में
या एकाकी पड़े बादशाह के पास
वह मेरे पूर्ण विनाश का इच्छुक है
लेकिन
जैसा कि औषधि वृक्ष ने बताया है
और जैसा सरहदें भी जानती हैं
मैं नहीं मरूँगा! मैं कभी नहीं मरूँगा!
मैं सतत रहूँगा-
हथगोलों में छर्रों की तरह
गर्दन पर टिके चाकू की तरह
मैं हमेशा रहूँगा-
रक्त के एक धब्बे में
एक बादल के आकार में
इस संसार की कमीज़ पर!
(तस्वीर विजया की है)

Thursday, May 06, 2010

उर्दू कविता

'भाषासेतु' पर गुलज़ार एक बार फिर।
गुलज़ार

इक नज़्म यह भी
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूंथा करते थे
आँख लगाकर, कान बनाकर
नाक सजा कर
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला
तेरा उपला
अपने अपने जाने पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पर खेला करता था
मेरा उपला सूख गया
उसका उपला टूट गया
रात को आंगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर कर बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आई
किसका उपला राख हुआ
वह पंडित था
वह मास्टर था
इक मुन्ना था
इक दशरथ था
बरसों बाद
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक़्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!