Friday, June 25, 2010
रघुराई जोगड़ा
(रघुराई की यह कविता कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाली एक पत्रिका "निशान" में छपी थी.
युवा कवि, कहानी भी लिखते रहते हैं.
फिलहाल भारतीय भाषा परिषद् में नौकरी करते हैं )
तब हम किसान थे
हम बो देते थे
खेतों में अपने जीवन के
तमाम रंगीन सपने
और बरसात की पहली फुहार में
अंखुआ जाते थे, वे
रंगीन सपने,
तब हम खेतों से भागते
आते थे घर
और बैलों को सनी
चलाती पत्नी के कानों में
कह देते थे चुपके से
अन्खुआये सपनों की बात
(किसी अत्यंत गोपनीय रहस्य की तरह)
और हमारे बच्चे, एक दूसरे की
आँखों में झांक कर
समझ जाते थे सबकुछ
वे मुस्कुराते हुए पीठ पर पटरी लादे
चल देते थे पाठशाला.
फिर कुछ दिनों बाद
हमारे लहलहाते हरे सपनों को
मार जाते पाला, सूखा या बाढ़
और हम चुपके से
रात में घर आकर ओसारे में
निढाल पड़ जाते थे.
पत्नी जान जाती थी
हमारे सपनों के मरने की बात
बच्चे सुबह चले जाते थे
भटठा पर ईंट पाथने
पत्नी बबुआनों की गरूआरी में
और हम कलकत्ता,
दूसरे सीजन के सपनों की तलाश में
Monday, June 14, 2010
हिंदी कविता
Sunday, June 06, 2010
होस्टल की दुनिया
दिल्ली यूनिवर्सिटी होस्टल : पढाई, प्रेम और पोलिटिक्स
विनीत कुमार
दोस्तो, भाषासेतु के पाठकों के लिए ये एक्सक्लूसिव आलेख हमारे ब्लोगर साथी विनीत कुमार ने लिखा है। अगर आपने अपने जीवन का कुछ हिस्सा होस्टल में बिताए हों तो ये लेख कमोबेश आपकी आपबीती की तरह लगेगी। विनीत एक लम्बे समय से दिल्ली विश्वविद्यालय के ग्वायेर होस्टेल में रहे हैं, अभी हाल में उन्होंने मॉलरोड पे कमरा लिया है। अगली किस्त में युवा कथाकार आलोचक राहुल सिंह आपको जेएनयू के होस्टल की सैर कराएँगे। मजे लिजीये फिलहाल विनीत के इस आलेख का।
जेएनयू की तरह दिल्ली यूनिवर्सिटी क्लोज कैंपस नहीं है। यहां दिनभर ऐसे लाखों लोगों और हजारों गाड़ियों का आना-जाना लगा रहता है जिनका कि यूनिवर्सिटी से कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी इनकी आवाजाही और हो-हल्लों से बेअसर यूनिवर्सिटी के हॉस्टलों में एक ऐसी दुनिया बसती है जो कि दिल्ली की दुनिया से बिल्कुल जुदा है। इस हॉस्टल की दुनिया में न तो दिल्ली की भीषण गर्मी का एहसास होता है, न पानी के लिए कभी मारामारी करनी होती है, न ही बिजली की भारी कटौती के बीच आधी-आधी रात उफ्फ करके गुजारनी पड़ती है और न ही क्लास के लिए घंटों बसों में फंसे रहने की नौबत आती है। पूरी दिल्ली में दाल की कीमतों में कितना इजाफा हो गया,सब्जियों के दामों में कितनी आग लग गयी है,प्रोपर्टी की कीमतों में कितना उछाल आ गया, इन सबसे अंजान हॉस्टलों के भीतर करीब दो हजार ऐसी जिंदगियां सांसें लेती है जो कि दुनियादारी की झंझटों से बिल्कुल मुक्त हैं। इन जिंदगियों में एक आम दिल्लीवाले का कोई भी संघर्ष शामिल नहीं है। आप इसे फैंटेसी की दुनिया कह सकते हैं। लेकिन यकीन मानिए इन सुविधाओं के बीच डीयू के हॉस्टलों की जिंदगी महज तीन शब्दों के इर्द-गिर्द चक्कर काटती है- प्रेम, पॉलिटिक्स और पढ़ाई। इन तीन शब्दों के बीच से होकर ही यहां रहनेवाले लोगों की रुटीन,लाइफ-स्टाइल,जिंदगी के प्रति नजरिया और भविष्य की आड़ी-तिरछी रेखाएं बनती-बिगड़ती है।
छात्रों के बीच की कैटेगरी भी इन्हीं तीन शब्दों को लेकर बनती है। एक जो प्रेम करते हैं और जिन्हें गृहस्थ जीवन का एहसास अभी से ही होने लगता है,दूसरे जो पॉलिटिक्स करते हैं और उसे वे अपने करियर के तौर पर लेते हैं,तीसरे जो दिन-रात किताबों में सिर गड़ाए रहते हैं और कोर्स खत्म करके इसी यूनिवर्सिटी में खपना चाहते हैं और आखिरी कैटेगरी जो प्रेम भी करते हैं,पॉलिटिक्स भी करते हैं और इग्जाम आने पर जमकर पढ़ाई करते हैं। जिनकी संख्या बहुत कम होती है। कई बार इस तरह का विभाजन एक-दूसरे से गड्डमड्ड हो जाता है और सबको अलग-अलग करके देखना मुश्किल भी। इसलिए यहां के छात्रों के बारे में यह कहना ज्यादा सही होगा कि हर किसी की जिंदगी में ये तीनों शब्द किसी न किसी रुप में शामिल हैं। यह संभव है कि इनमें से कईयों का संबंध किसी भी राजनीतिक संगठन से न हो, लेकिन हॉस्टल की छोटी-छोटी बातों को लेकर घरेलू स्तर की राजनीति में इनका सक्रिय नजर आना स्वाभाविक है। यही आप जातिगत और क्षेत्रीय राजनीति के समीकरण को समझना शुरु करते हैं। कईयों की जिंदगी में कोई लड़की न हो लेकिन प्रेम,अफेयर और सौन्दर्य को लेकर सबसे ज्यादा कविताएं और नज्में लिखते-बांचते नजर आ जाना मामूली बात है। प्रेम और पॉलिटिक्स तो फिर भी बहुत ही व्यक्तिगत अभिरुचि से जुड़े सवाल हैं लेकिन पढ़ाई सबके लिए कॉमन है। ऐसा इसलिए कि हॉस्टल मिलने और उसमें बने रहने का जो प्रावधान है कि उसमें हमेशा खतरे की घंटी सिर पर लटकती रहती है। अगले साल जहां कोई हॉस्टल में रहनेवाले से अच्छे रैंक पाता है तो पहलेवाले का बाहर हो जाना तय है। इसलिए यहां रहकर चाहे आप जो करें,अपनी रैंक हर हाल में बनाये रखनी होगी।
यूनिवर्सिटी के हॉस्टल दिल्ली के लोगों के लिए नहीं है। इसलिए यहां स्थानीय और एक किस्म की भाषा-बोली के बजाय देशभर की भाषा और बोलियों का जमघट लगा रहता है। कोई गुजराती में अभिवादन करे और उसका जवाब बांग्ला में मिले तो आश्चर्य की बात नहीं। नागालैंड से आनेवाला छात्र भोजपुरी गीतों पर ताल ठोकने लग जाए तो कोई अजूबा नहीं लगता। हॉस्टल में रहने का सबसे बड़ा फायदा यही पर आकर समझ आता है जहां आप एक ही बिल्डिंग में रहते हुए भी देशभर की भाषा और संस्कृति के थोड़े-थोड़े ही सही लेकिन जानकार होते चले जाते हैं। पूरे देश की अलग-अलग मांओं के हाथों के व्यंजन का मजा ले सकते हैं। जहां से निकलने पर पूरे देश का कोई भी इलाका,वहां का रहन-सहन,विचार-व्यवहार आपको अजनबीपन का एहसास नहीं कराता।
हॉस्टल में पढ़ाई,राजनीति और प्रेम के अलग-अलग समय सालों से निर्धारित है। कोर्स शुरु होते ही कुछ महीने सिर्फ और सिर्फ एक-दूसरे के अफेयर की चर्चा होती है। कई दिनों तक कई लड़के और लड़कियां साथ मिलते-बैठते और अफेयर के पर्सनल होने से पहले उसका एक सामाजिक रुप दिखायी देता है। फिर चुनाव का समय आता है। वहां भी यह संबंध राजनीति से गुजरते हुए भी साथ चलते है। चुनाव के बाद गहरी दोस्ती या फिर मनमुटाव की स्थिति होती है जो कि लंबे समय तक जाती है। इतना सब होते ही हर हॉस्टलों के कल्चरल नाइट का समय आ जाता और फिर जमकर मस्ती का दौर शुरु होता है। बौद्धिक विमर्शों से लेकर डीजे,खाना,शास्त्रीय संगीत सबकुछ शामिल होता। यही एक दिन होता जबकि लड़के और लड़कियां एक-दूसरे के हॉस्टल में बेहिचक शाम को भी आते हैं और जिसका कि लोगों का इंतजार होता है। इस दिन सारे अफेयर करनेवाले हॉस्टल दोस्तों के संबंधों पर सामाजिक मुहर लगती है। इस कल्चरल नाइट के बाद फिर किसी तरह का हो-हल्ला नहीं। सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई। आपको देखकर आश्चर्य होगा कि जो स्टूडेंट कल तक सिर्फ बातें बनाता रहा जिसे कि कैंपस में हवाबाजी करना कहते हैं अब वह ग्राम्शी और देरिदा पर विमर्श कर रहा है,घंटों बॉलकनी में फोन से चिपके रहनेवाला शख्स पूरी तरह किताबों में खो गया है। इस तरह हॉस्टल की जिंदगी का सालभर का चक्र पूरा होता है। अब भी सबकुछ पहले की तरह ही होते हैं लेकिन छात्र राजनीति कमजोर होने से हॉस्टल के बीच से घरेलू स्तर की राजनीति के अलावे पार्टी की राजनीति गायब है। धीरे-धीरे सेमेस्टर सिस्टम लागू होते जा रहे हैं,कई प्रोफेशनल कोर्स आ गए हैं जिनका कि अतिरिक्त दवाब होता है इसलिए लगभग सालोंभर की पढ़ाई करनी पड़ती है,ऐसे में लोगों का पहले से एक-दूसरे से बातचीत की गुंजाईश कम हुई है। वो जमाना गया कि एक लैंडलाइन पर ही करीब सौ छात्रों के फोन कॉल आते। महज चार डेस्कटॉप से पूरा हॉस्टल टेक्नोसेवी हो जाता। इंटरनेट के चलन ने लोगों को बहुत पर्सनल बना दिया है,अधिकांश लोग अपने-अपने लैपटॉप के सामने डूबते-उतरते रहते हैं। मध्यवर्ग के बीच बदलती जीवन-शैली का असर कमोवेश यहां भी हुआ है जो उन्हें अधिक सोशल होने के बजाय करियर के प्रति ज्यादा फोकस्ड बनाती है।
इन सबके बीच भी कुछ कॉमन बातें होती हैं जिनमें कि सब समान रुप से शामिल होते हैं। मसलन हॉस्टल के अधिकांश लोग देर रात तक जागते रहते हैं। दिन में अधिकांश कमरों में लगे ताले एक स्वर में जहां कहते हैं-यहां कोई नहीं है,वहीं कोई काफ्का को पढ़ने के लिए,कोई अपनी गर्लफ्रैंड की दिनभर की गतिविधियों और पल-पल की खबर लेने और शेयर करने के लिए तो कोई पार्टी मीटिंग,पोस्टर बनाने और पर्चा तैयार करने के लिए रात-रातभर जागते लोग आपको मिल जाएंगे। देर रात तक जागने की उनकी इस आदत ने कैंपस के भीतर एक नए किस्म की संस्कृति को पैदा की है। रात के ढाई बजे कोई अपने कमरे में मैगी खाता नजर आ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। बल्कि अतर की कैंटीन तो रातभर गुलजार रहती है। पराठे,मैगी,सैंडविच,ऑमलेट के आर्डर देने की आवाज रात के सन्नाटे में आप साफ सुन सकते हैं। दिन की झंझटों से बचने के लिए देर रात कार्यक्रमों,मीटिंगों की पोस्टर लगाते लोगों को देख सकते हैं, टैरिस पर फोन से चिपके साथियों की फुसफुसाहट पर कमेंट पास कर सकते हैं और कभी ऐसा भी हो कि डेढ़ बजे रात आपको अपने फ्लैंग का कोई भी ट्वायलेट खाली न मिले। हॉस्टल में रहनेवाले स्टूडेंट को डेस्कालर्स निशाचर कहकर बुलाते हैं। इस रतजग्गा कार्यक्रम ने आज से चार-पांच साल पहले कई खाने के ठिकानों को जन्म दिया। मिसराइन का ढाबा, मॉरिशनगर थाने का ढाबा,पटेल चेस्ट के डिवाइडर पार मैगी-पराठे का अड्डा। इनमें से कुछ अब भी बरकरार हैं लेकिन कुछ तो सख्ती और कुछ कॉमनवेल्थ को लेकर तहस-नहस हो गए। रात में जागने का सबों के पास एक ही तर्क है- इस समय इत्मिनान लगता है,कोई डिस्टर्ब नहीं करता। ये अलग बात है कि डिस्टर्ब करनेवाले और होनेवाले लोग सबसे ज्यादा रात में ही डिस्टर्ब होते हैं। अगर कोई रात के तीन बजे हिन्दू कॉलेज के हॉस्टल से कोठारी हॉस्टल में रहनेवाले दोस्त से फैवीकॉल और कैंची मांगने आ जाए तो फिर कोई क्या कर लेगा? नजदीक से देखें तो कई बार महसूस होता है कि हॉस्टल में कई बार रात में जागना मजबूरी से कहीं ज्यादा फैशन का हिस्सा हो गया है। आप पढ़े या न पढ़े देर रात तक जागने के बाद नाश्ते की मेस टेबल पर आंख रगड़ते हुए पहुंचते हैं तो आप करियर और जिंदगी के प्रति सीरियस करार दिए जाते हैं। जिसकी एक सच्चाई यह भी है कि सालों से रतजग्गा करनेवाला एक हुजूम न तो एडीसन बन पाया और न ही अमर्त्य सेन। रोमैंटिसिज्म के दौर में कला कला के लिए की तरह जागना जागने के लिए होकर रह जाता है।
बहरहाल यूनिवर्सिटी हॉस्टल में जो भी लोग पहुंचते हैं,उनके बीच करियर को लेकर बहुत अधिक दुविधा नहीं होती। मोटे तौर पर उन्हें या तो सिविल सर्विसेज में,एकेडमिक्स में,रिसर्च में,मैनेजमेंट या फिर ज्यूडिश्यरी में जाना होता है। यहां आकर बहुत कम ही लोग कोई नया कोर्स चुनते हैं। इसलिए देर-सबेर हॉस्टल में रहनेवाले अधिकांश लोग प्रेम करते हुए,पॉलिटिक्स करते हुए और जाहिर तौर पर पढ़ाई करते हुए वो सबकुछ हासिल कर लेते हैं जिसका सपना लेकर वे हजारों किलोमीटर दूर चलकर दिल्ली का हो जाने के लिए आते हैं। अगर उनके सपने थोड़े-बहुत इधर-उधर डगमगाते भी हैं तो यह हॉस्टल उन्हें बेहतर तरीके से बोलने,अपनी बात रखने और चीजों को विश्लेषित करने की तमीज तो जरुर दे देता है कि वे सिर्फ इसके दम पर मीडिया, कन्सल्टेंसी, काउंसलिंग,राजनीति और स्वयंसेवी संस्थाओं में अच्छा कर जाएं। कुल मिलाकर डीयू हॉस्टल में रहने का यह अनुभव जिंदगी के प्रति कभी निराश होने नहीं देता।
Wednesday, June 02, 2010
हिंदी कहानी
टोकरी भर मिट्टी
माधवराव सप्रे की इस कहानी को हिंदी की शुरुआती कहानियों में गिना जाता है। बल्कि कुछ आलोचकों ने इसे ही हिंदी की पहली कहानी माना है। भाषासेतु के पाठकों के लिए विशेष रूप से।
किसी श्रीमान जमींदार के महल के पास गरीब विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता झोंपड़ी तक बढाने की इच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई ज़माने से वहीं बसी थी। उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी पांच बरस की एक कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दुःख के फूट फूट के रोने लगती। और जब से उसने अपने श्रीमान पडोसी की इच्छा का हाल सुना तब से वह मृतप्राय हो गयी थी। उस झोंपड़ी में उसका ऐसा कुछ मन लग गया था कि बिना मरे वहां से निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकलने वाले वकीलों की थैली गरम कर उनहोंने अदालत में उस झोंपड़ी पर अपना कब्ज़ा कर लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया।
बेचारी अनाथ तो थी ही, पांडा पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी। एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बता रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुंची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह
गिड़गिड़ाकर बोली, 'महाराज, अब तो झोंपड़ी तुम्हारी ही हो गयी है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज, क्षमा करें तो एक विनती है।' जमींदार साहब के सर हिलाने पर उसने कहा, 'जब से यह झोंपड़ी छूटी है तब से पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत समझाया, पर एक नहीं मानती। कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने सोचा है कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी मिट्टी लेकर, उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि यह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिये तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊँ।
श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोंपड़ी के भीतर गयी। वहां जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और आँखों से आंसू की धारा बहने लगी। अपने आतंरिक दुःख को किसी तरह संभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी,' महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगायें, जिससे कि मैं उसे अपने सर पर धर लूँ।' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज़ हुए, पर जब वह बार बार हाथ जोड़ने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गयी। किसी नौकर से न कह कर आप ही स्वयं टोकरी उठाने को आगे बढे। ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे, त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति से बाहर है। फिर तो उनहोंने अपनी सब ताक़त लगाकर टोकरी को उठाना चाह, पर जिस स्थान में टोकरी रखी थी, वहां से वह एक हाथ भर भी ऊंची न हुई। तब लज्जित होकर कहने लगे कि, नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।
यह सुनकर विधवा ने कहा, 'महाराज, नाराज़ न हों। आपसे तो एक टोकरी भर मिट्टी उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है। उसका भार जनम भर क्योंकर उठा सकेंगे। आप ही इस बात का विचार कीजिए।'
जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्त्तव्य भूल गए थे, पर विधवा के उक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उनहोंने विधवा से क्षमा मांगी और उसकी झोंपड़ी वापस दे दी।