Wednesday, June 02, 2010

हिंदी कहानी

माधवराव सप्रे
टोकरी भर मिट्टी
माधवराव सप्रे की इस कहानी को हिंदी की शुरुआती कहानियों में गिना जाता है। बल्कि कुछ आलोचकों ने इसे ही हिंदी की पहली कहानी माना है। भाषासेतु के पाठकों के लिए विशेष रूप से।

किसी श्रीमान जमींदार के महल के पास गरीब विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता झोंपड़ी तक बढाने की इच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई ज़माने से वहीं बसी थी। उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी पांच बरस की एक कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दुःख के फूट फूट के रोने लगती। और जब से उसने अपने श्रीमान पडोसी की इच्छा का हाल सुना तब से वह मृतप्राय हो गयी थी। उस झोंपड़ी में उसका ऐसा कुछ मन लग गया था कि बिना मरे वहां से निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकलने वाले वकीलों की थैली गरम कर उनहोंने अदालत में उस झोंपड़ी पर अपना कब्ज़ा कर लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया।
बेचारी अनाथ तो थी ही, पांडा पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी। एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बता रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुंची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह
गिड़गिड़ाकर बोली, 'महाराज, अब तो झोंपड़ी तुम्हारी ही हो गयी है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज, क्षमा करें तो एक विनती है।' जमींदार साहब के सर हिलाने पर उसने कहा, 'जब से यह झोंपड़ी छूटी है तब से पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत समझाया, पर एक नहीं मानती। कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने सोचा है कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी मिट्टी लेकर, उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि यह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिये तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊँ।
श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोंपड़ी के भीतर गयी। वहां जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और आँखों से आंसू की धारा बहने लगी। अपने आतंरिक दुःख को किसी तरह संभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी,' महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगायें, जिससे कि मैं उसे अपने सर पर धर लूँ।' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज़ हुए, पर जब वह बार बार हाथ जोड़ने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गयी। किसी नौकर से न कह कर आप ही स्वयं टोकरी उठाने को आगे बढे। ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे, त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति से बाहर है। फिर तो उनहोंने अपनी सब ताक़त लगाकर टोकरी को उठाना चाह, पर जिस स्थान में टोकरी रखी थी, वहां से वह एक हाथ भर भी ऊंची न हुई। तब लज्जित होकर कहने लगे कि, नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।
यह सुनकर विधवा ने कहा, 'महाराज, नाराज़ न हों। आपसे तो एक टोकरी भर मिट्टी उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है। उसका भार जनम भर क्योंकर उठा सकेंगे। आप ही इस बात का विचार कीजिए।'
जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्त्तव्य भूल गए थे, पर विधवा के उक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उनहोंने विधवा से क्षमा मांगी और उसकी झोंपड़ी वापस दे दी।

4 comments:

Anonymous said...

is kahani ke bare me suna tha, pahli bar padha. dhanyavad. bangmahila ki 'dulaiwali' i think hindi ki pahli story hai.
dharmendra kumar

Rangnath Singh said...

यह पोस्ट बेहतरीन रही। ऐसी पोस्ट हिन्दी ब्लाग को समृद्ध करती है जिनसे हमारा इतिहास बोध परिपक्व होता हो।

Anonymous said...

Nice post. THANKS N WISHES.
Vijaya

Vivek Jain said...

अच्छी कहानी!
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com