Wednesday, January 26, 2011

भगवत रावत की लंबी कविता : देश एक राग है

छब्बीस जनवरी के अवसर पर भाषासेतु के विशेष अनुरोध पर वरिष्ट कवि भगवत रावत ने अपनी यह कविता हमारे लिए प्रकाशनार्थ उपलब्ध कराई। भाषासेतु की तरफ से उनका आभार। भगवत जी फिलहाल भोपाल में रहते हैं। हाल ही में 'सुराजे हिंद' और 'कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबोहवा और' नामक लम्बी कविताएँ विशेष रूप से चर्चित हुई हैं। लम्बी कविताओं को उन्होंने जिस खूबी के साथ साधने का दुष्कर कार्य किया है, दर्शनीय है। उम्मीद है आगे भी हम उनकी कविताएँ 'भाषासेतु' के पाठकों के लिए उपलब्ध कराते रहेंगे।

देश एक राग है


इस बार छब्बीस जनवरी पर
मैं देश के नाम सन्देश देना चाहता था
राष्ट्र के नाम नहीं
देश के नाम
जानता हूँ ऐसे सन्देश केवल
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समय समय पर देते रहे हैं
जो राष्ट्र के नाम प्रसारित किये जाते हैं
इन संदेशों की कोइ विवशता होगी
तभी तो उनकी भाषा ऐसी तयशुदा होती है की
उनमें कहीं कोई उतार-चढ़ाव नहीं होता
न कहीं मार्मिक स्पर्श

होश संभालने के बाद पिछले पचास वर्षों से
सुनता आ रहा हूँ ऐसे सन्देश और किसी का कोई एक
वाक्य भी ठीक से याद नहीं
मजेदार बात यहाँ है कि 'देशवासियों'-जैसे
आत्मीय संबोधनों से प्रारंभ होने वाले ये सन्देश
देश को भूलकर राष्ट्र-राष्ट्र कहते नहीं थकते
राष्ट्र की मजबूती, राष्ट्र की गरिमा
राष्ट्र की संप्रभुता, रार्ष्ट्रोत्थान जैसे विशेषण वाची
अलंकरणों से से मंडित
ये आत्ममुग्धता और आत्मश्लाघा
के उदाहरण बनकर रहा जाते हैं
मुझे कुछ समझ में नहीं आता
मेरी उलझन बढ़ती ही जाती है
कि देश के भीतर राष्ट्र है या राष्ट्र के भीतर देश
दोनों में कौन किससे छोटा, बड़ा
सर्वोपरि या गौण है
इस विवाद में न पड़ें तो भी
दोनों एक ही हैं यह मानने का मन नहीं करता

अव्वल तो कोई किसी का पर्याय नहीं होता
फिर भी सुविधा के लिए मान ही लें तो
देश का पर्याय राष्ट्र कैसे हो गया
अर्थात देश में सेंध लगाकर काबा राष्ट्र घुस आया
इसका पुख्ता कोई ना कोई कारण और इतिहास
होगा ही, परा मेरा कवी मन आज ताका
उसको स्वीकार नहीं कर पाया
और यदि इसका उलटा ही माना लें,
कि सबसे पुराना राष्ट्र ही है तो
हज़ारों सालों से कहाँ गायब हुआ पड़ा था
तत्सम शब्दावली की कहीं कहीं पोथियों- पुराणों के अलावा

देश-देशान्तरों की मार्मिक कथाओं से भरा पडा है
सारी दुनिया का इतिहास
राष्ट्रों की कहानियां कौन सुनता-सुनाता है
अब आप ही बताइये
कि क्या कोई ठीक-ठीक बता सकता है कि कब
देश कि जगह राष्ट्र और राष्ट्र की जगह देश
कहा जा सकता है

हमारे जवान देश की सीमानों की रक्षा करते हैं
हम देश का इतिहास और भूगोल पढ़ते-पढ़ाते हैं
सना सैंतालीस में हमारा देश आजाद हुआ था
मैं भारत देश का नागरिक हूँ
ऐसे सैकड़ों वाक्य पढ़ते पढ़ाते बीत गयी उम्र
जब-जब, जहां-जहां तक आँखें फैलाई
दूर दूर तक देश ही देश नजर आया
राष्ट्र कहीं दिखा नहीं

आज भी बड़े-बड़े शहरों से मेहनत-मजदूरी करके जब
अपने-अपने घर-गाँव लौटते हैं लोग तो एक दूसरे से
यही कहते हैं कि वे अपने देश जा रहे हैं
वे अपने पशुओं-पक्षियों, खेतों-खलिहानों
नदियों-तालाबों, कुओं-बावडियों, पहाड़ों-जंगलों,
मैदानों-रेगिस्तानों,
बोली- बानियों, पहनावों-पोशाकों, खान-पान
रीति-रिवाज और नाच गानों से इतना प्यार करते हैं
किकुछ न होते हुए गाँठ में
भागे चले जाते हैं हज़ारों मेला ट्रेन में सफ़र करते
बीडी फूंकते हुए

वे सच्चे देश भक्त हैं
वे नहीं जानते राष्ट्र-भक्त कैसे हुआ जाता है
आजादी की लड़ाई में हंसते-हँसते फांसी के फंदों पर
झूलने वाले देश-भक्ति के गीत गाते-गाते
शहीद हो जाते थे
ऊपर कही गही बातों में से देशा की जगह राष्ट्र रखकर
कोई बोलकर तो देखे
राष्ट्र-राष्ट्र कहते-कहते जुबान न लडखडाने लगे
तो मेरा नाम बदल देना
वहीं एक वाक्य में दस बार भी आये देश तो
मीठा ही लगेगा शहद की तरह

देश एक राग है
सुवासित-सुभाषित सा फैलता हुआ धीरे-धीरे
स्नेहित तरंगों की तरह बाहर से भीतर तक
भीतर से बाहर तक
स्वयं अपनी सीमाएं लांघता
सुगन्धित मंद-मंद पवन की तरह
सारी दुनिया को शीतल करता धीरे धीरे
सारी दुनिया का हिस्सा हो जाता है

कितना भी पुराना और पवित्र रहा हो राष्ट्र शब्द का इतिहास
पर आज पता नहीं क्यों बार-बार
यह शब्द एक भारी भरकम बनायी गयी ऐसी अस्वाभाविक
डरावनी आवाज लगता है जो सत्ता और शक्ति के
अहंकार में न जाने किसको
ललकारने के लिए उपजी है
अपना बिगुल खुद बजाती जिससे एक ही शब्द
ध्वनित होता सुनायी देता है
सावधान!
सावधान!
सावधान!

मैं देश के नाम सन्देश देने के बारे में कह रहा था
और कहाँ से कहाँ निकल गया
यह सही है कि मैं न देश का राष्ट्रपति हूँ
न प्रधानमंत्री, नाकोई सांसद, न विधायक
यहाँ तक कि किसी नगरपालिका का कोई
निर्वाचित सदस्य तक नहीं हूँ

पर सभी ये कहते हैं कि ये जो अच्छे-बुरे जो भी हैं
सब मेरे ही कारण हैं
मैंने ही बनाया है उन्हें
तो इसी नागरिक अधिकार के साथ मेरा देश के नाम सन्देश
क्यों प्रसारित नहीं किया जा सकता
की स्वतन्त्र भारत न गढ़ पाने की कोई दबी-छिपी रह गयी
गुलाम मानसिकता
या परायों के तंत्र से मुक्त न हो पाए की कोई
विवशता

आप जो भी कहें
और आप पूरी तरह मुझे गलत भी साबित कर दें
और जो आप कर भी सकते हैं
कहाँ-कहाँ से पुरानो और पोथियों से प्रमाण
खोजकर ला सकते हैं और मुझे चारो खाने चित्त कर सकते हैं
पर जो सामजिक इतिहास मुझे दिखाई देता है
राष्ट्रों का वह कतई आत्मीय नहीं है

अपने ही भारत देश के बारे में सोचकर देखिये
की भारत में महाभारत कभी नहीं होता
यदि उसका सम्राट ध्रितराष्ट्र न होता जिसे
अपने सिंहासन के अलावा
कुछ भी दिखाई नहीं देता था
इतना ही नहीं उसकी रानी ने भी आँखों पर
पट्टी बाँध राखी थी ताकि उसे भी कुछ दिखाई न दे अपने पुत्रों के मोह के अलावा
भारत में महाभारत कुछ अतापता नहीं लगा आपको
और क्या ध्वनी निकलती है इस वाक्य से सत्ता के आतंक, दंभ, हिंसा और
युद्ध के अलावा
जिस-जिस शब्द से जुदा यह 'महा' उपसर्ग
शब्द की सूरत बदल कर रख दी
उदाहरण देने से क्या लाभ
आप ही जोड़कर देख ले सीधे-सादे शब्दों
के आगे यह उपसर्ग
मैं किसी 'शब्द और 'नाम'' का अपमान नहीं
कर रहा हूँ
और 'महाभारत' जैसे आदिग्रंथ का तो बिलकुल नहीं
वह न लिखा गया होता तो
युद्ध की विभीषिका और निरर्थकता का कैसे पता चलता
कैसे पता चलता की युद्ध में हार ही हार होती है
कोइ जीतता नहीं

'राष्ट्र' ही सर्वोपरि है तो एक ही राष्ट्र के भीतर
कई राष्ट्रेयाताओं की धारणा से आज भी
मुक्त नहीं हुए आप
व्यर्थ गयी हजारों वर्षों की यात्रा आपकी
बर्बर तंत्र से प्रजातंत्र तक की
तो फिर जाइए वापस अपने-अपने
राष्ट्रों में
लौट जाइए अंधेरी खाइयों-गुफाओं में
यही तो चाहते हैं आज भी
नए चेहरों वाले आपके पुराने विस्तारवादी
माई-बाप
कभी जो नेशन का सिद्धांत लेकर आये थे और बढाते रहे
अपना साम्राज्य

इतने वर्षों की दासता से कुछ सबक सीखा नहीं आपने
धर्म के नाम परा बांटा गया
खुशी-खुशी बाँट गए
भाषाओं के नाम पर अलग-अलग किया गया
अलग-अलग हो लिए
अब अपनी-अपनी जातियों के नाम पर भी बना लीजिये अपने- अपने, अलग-अलग राष्ट्र
और अब इस बार डूबे तो कोइ किसी को
नहीं बचा पाएगा

मैं फिर कहता हूँ की मैं किसी शब्द और किसी
नाम का अपमान नहीं कर रहा हूँ
केवल उस मानसिकता की तरफ संकेत कर रहा हूँ
जो अपनी कुलीनता के दंभ में अपने ही देश में
अपने ही बर्चस्व का
अलग राष्ट्र हो जाना चाहती है
और धीरे धीरे सारे देश को
इकहरा राष्ट्र बनाना चाहती हैं
आज भी इक्कीसवीं सदी में
ज्ञान-विज्ञान सब एक तरफ रख कर ताक में
रक्त की शुद्धता, पवित्रता की दुहाई देकर
भोले-भाले लोगों को जिन गुफाओं में ले जाकर
ज़िंदा दफन कर देना चाहते हैं वे
इतिहास गवाह है उन गुफाओं से नकलने में
सदियाँ बीत जाती हैं

आप समझ ही गए होंगे बात महज शब्दों की नहीं, प्रवृत्तियों की है
और कठिनाई यही है की उनके बारे में
शब्दों को छोड़कर बात की नहीं जा सकती
भाषा में इस प्रवृत्ति को
'तद्भव' को 'तत्सम' में जबरदस्ती रूपांतरित
करने का शीर्षासन कह सकते हैं
सभी जानते हैं की यह अस्वाभाविक प्रक्रिया है
'फज़ल' ने किस सादगी से कहा था
'पहाड़ तक तो कोइ भी नदी नहीं जाती'

यह मानसिकता देश की बहुरंगी संस्कृति को
पहले राष्ट्र की संस्कृति कहकर इकहरा बनाती है
फिर देश को एक तरफ फेंक
सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का नारा लगाती है
मैं किसकी कसम खाऊँ
मुझे भाषा के किसी शब्द से चिढ़ नहीं है
चिढ़ है तो उस मानसिकता से जो शब्दों को
मनुष्य के विरुद्ध खड़ा कर देती है
जो सिर्फ मनुष्य को दिए गए नामों से पहचानती है
उनकी जातियों से पहचानती है,
उनके रंगों से पहचानती है
और उनकी भाषा में कभी दिए गये ‘ईश्वर’
के नाम के लिए उनके अलग-अलग शब्दों से
पहचानती है

देश देशजों से बनता है
उनकी बहुरंगी छटा देशों का इन्द्रधनुष बनती है
जो सबको अपने-अपने आसमान में दिखाई देता है
कौन होगा जिसका मन इन्द्रधनुष देखकर
इन्द्रधनुष जैसा न हो जाए

मान लिया
मान लिया कि अंग्रेजी के ‘नेशन’ शब्द के लिए हिंदी में
फिर से पैदा हुआ ‘राष्ट्र’
तो ‘नेशन’ शब्द में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं
पश्चिमी दुनिया की लगभग सभी भाषाओं में
कितना प्यारा है ‘कन्टरी’ शब्द अर्थात ‘देशज’
कब और कैसे दबोच लिया
‘कन्टरी’ जैसे आत्मीय शब्द को ‘नेशन’ ने
यह खोज का विषय होना चाहिए
जरूर उसके पीछे कोई बर्बरता छिपी होगी

इस सबके बाद भी
आपको अपना राष्ट्र मुबारक
मुझे तो अपना देश चाहिए
आपको इक्कीस तोपों की सलामी मुबारक
मुझे आसमान में मेरा लहराता तिरंगा चाहिए
बुरा लगा हो तो माफ करना
मैं तो अपने लोकतंत्र में अपनी छोटी सी
नागरिक इच्छा पूरी करना चाहता था
कि इस बार छब्बीस जनवरी पर
मैं देश के नाम सन्देश देना चाहता था

Wednesday, January 19, 2011

हिंदी कहानी

खदेरूगंज का रूमांटिक ड्रामा
दुर्गेश सिंह

युवा कहानीका दुर्गे सिं की इस पहली कहानी को 'भाषासेतु' पर प्रकाशित करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है। दुर्गेश फिलहा मुंबई में 'नवभारत टाईम्स' से जुड़े हुए हैं। अभी हाल ही में दुर्गेश ने अपनी दूसरी कहानी 'जहाज़' कापा 'मुखातिब' (मुम्बई) में कर श्रोताओं का मन मोह लिया है।

रावण जल चुका था, फिर भी लोगों के मन में हाहाकार मचा हुआ था। मेला अपने चर पर था। बच्चे घुनघुने सेलेकर हवाई जहाज तक का सौदा कर लेना चाह रहे थे और महिलाएं अंदाज में अंर्तवस्त्रों के ठेले पर पिली पड़ीथी मानों उम्र भर की जवानी आज ही मुट्ठी में कैद कर लेना चाहती हो। छोटे हलवाई काली जर्द पपड़ी वाली कराहीमें लपर-लपर गुड़ की जलेबियां छान रहा था। रह-रहकर वह बाएं हाथ से पसीना पोंछ लेता था, इस प्रक्रिया में लकबाय चांस एकाध बूंद दाईं तरफ चू जाती तो कराही छन्न से कर उठती। दस साल का रमई गला फाड़-फाड़ बचपनेकी चीनी में भविष्य को भी जलेबी बनाकर बेच रहा था। बसंतू बाबू जितनी मूंगफली बेच नहीं चुके थे, उससे अधिककउर चुके थे। पप्पू पनसारी की दुकान पर ग्राम परधान सिरपत धोबी बैठे नरेगा-वरेगा जैसे सरकारी मदों सेमिलने वाले पैसों की गैर-सरकारी तरीके से जुगत भिड़ा रहे थे। बरछी और कलऊ नामक दोनों बॉडीगार्ड सिरपत केपैरों में मुंडवत गिरे ऐसे लग रहे थे मानों दो घोंघे जमीन पर आमने-सामने हो। तभी रामलीला में राम का किरदारनिभाने वाले लोकल आर्टिस्ट अशोक गुप्ता कुछ चीथड़े लपेटे हुए भीड़ को चीरते हुए निकले। पीछे की ओर भागतेहुए कुछ बच्चे हनुमान की पूंछ की तरह लगे। देखते ही सिरपत के मुंह से पान की पीक निकलकर बरछी के थोबड़ेपर चिपड़ गई जिसे उसने मुखामृत समझकर मस्तक से लगा लिया। अशोक गुप्ता के पीछे लम्बे बालों वाले लेखकबुल्ला खां, गांधी छाप झोला कंधे पर और लम्बा रजिस्टर उंगलियों में फंसाए निकले।
सिरपत ने पूछा- का भ बुल्ला जी।
बुल्ला- अरे, प्रधान अब हम का करें, सीन समझा रहे थे तब तक अशोक गुप्ता भाग निकलें।
सिरपत- (वार्निंग देते हुए) आज मेला का आखिरी दिन है, रामलीला खत्म हो रहा है, कुछ दिन बाद होने वालेनाटक में बहुत भीड़ होनी है तनिक भी गड़बड़ी भई तो आपको घर की उड़द जांगर में डालनी पड़ेगी।
एक बात अउर हम सोच रहे हैं कि इस बार नाटक में थोड़ा रूमांस हो, त मजा आ जाए। (पीक फिर से थूकते हुए)।
बुल्ला– ‘ कफन करिया का’ में।
सिरपत- हां।
बुल्ला– गरीब करिया की बीवी मर जाती है, उसके पास इतने पैसे नहीं है कि वह अपनी पत्नी के लिए कफन खरीदसके। वह गांव के हर घर जाकर भीख मांगता है कि उसे कफन खरीदने के लिए पैसे चाहिए। इसमें रूमांस कहां सेआएगा।
सिरपत- ई कहानी तो पहले भी हम सुन चुके हैं। (गंभीर तरीके से सोचते हुए)- अरे भाई इ समय नाम नहीं याद आरहा है लेकिन बड़े ही नामी लेखक थे। रिवालेशन कर दिए थे कहानी लिख-लिखकर। तो इसमें रूमांस डालिए। खैर, सुनो करिया वाला रोल कहीं अशोक गुप्ता को तो नहीं दिए हो।
बुल्ला– अरे, परधान उहै का तो रिहर्सल करा रहे थे कि उ भाग निकले। बोले सूट नहीं कर रहा रोल, नहीं करना।
सिरपत- दिमाग फिर गया है तुम्हरा मास्टर, अयोध्या नरेश श्री राम अगर घर-घर जाकर पैसा मांगेगे तो पब्लिकदू मिनट में तुम्हारा पोस्टमार्टम कर देगी।
बुल्ला- परधान हम बहुत सोच के इ फैसला लिए हैं, इसके अलावा हमरे पास कोई आयडिया नहीं है जो अपनीजिंदगी बदल सकता है।
सिरपत- उ कैसे।
बुल्ला- पब्लिक अशोक गुप्ता को लेकर पगलाई रहती है बारहों महीने। बुढ़ए उनको रामचंद का अवतार मानकरराह चलते जय श्री राम कहते हैं। उनकी दुकान में भी जय श्री राम, राधे-सीता, हरे किशना लिखे गमछों और चुनरीका पॉवरफुल बिक्री होता रहता है बारहों महीने। यही नहीं उनका हगना-मूतना तक मुश्किल करे रहते हैं नई उमरके लवंडे। कहते हैं कि हे श्री राम बस एक ठो सीता दिलवा दीजिए। आप तो एक्सपर्ट हैं, हर सलिए धनुष तोड़ते हैंऔर लहा ले जाते हैं कमर में हाथ डालकर। खिसुआ त आंदोलने कर दिया है और कहा है कि इस बार नाटक मेंकाम नहीं मिला तो धनुष टूटने पर रस्सी बम ना फाटी। अशोक गुप्ता को गरियाता भी है वह।
सिरपत- (पीक उगलते हुए) खिसुआ गरियाता है। (जोरदार ठहाका लगाते हैं)। का कहता है उ।
सिरपत के पीक उगलने और हंसने की प्रक्रिया को बरछी और कलऊ ऐसे मंत्रमुग्ध होकर देखते हैं जैसे कि ये दोनोंही अपने आप में विशिष्ट हों।
बुल्ला मास्टर- (शिकायत की मुद्रा में) नई उमर का लवंडा हऊ प्रधान उ। दू साल से जब-जब अशोक गुप्ता धनुषमंच पर तोड़ते हैं तब-तब प्राइमरी स्कूल में सुतली बम उहै फोड़त है। अब आपको तो पता है कि पूरे गांव मा देसीबम बनाने की प्रक्रिया ओकरै खानदान को पता है। फ्रस्टिया गया है, एक दुपहरिया घर आकर कहै लगा कि सुनाबुल्ला चचा, इ बार अगर रोल नहीं मिला तो कउनो धमाका ना होई। अशोक गुप्ता धनुष त जरूर तोडि़हैं लेकिनआवाज ना आई।
इतना कहने के साथ ही मास्टर बुल्ला सेंटीमेंटल हो गए और बोले- प्रधान, इहै नहीं, उ बोला कि और इ आवाजऊपर वाले की लाठी वाली आवाज टाइप होई जवन लगे तो जरूर पर कुछ ना सुनाई देई।
सिरपत प्रधान अपने जीवन काल में बड़े ही कम अशुभ मौको पर गंभीर हुए थे, खिसु प्रसंग ने उन्हें आज फिर सेगंभीर कर दिया था। दिमाग में खुराफात सूझी तो बोले- ड्रामा रोमांटिक होगा मास्टर, खिसुआ को अगर हीरो बना देतो कैसा रहेगा। हेरोईन कहीं मेले में हेरा जाएगी और उ ढूंढता रहेगा। (सीना गच्च से फूलकर पेट के लेवल में आगया) अंत मे मिल जाएंगे दोनों।
उनको यह लगा कि बुल्ला कहीं मना न कर दें, ऐसा लिखने से तो उन्होंने कहा- वैसे मास्टर एक ठो बात पूछें बुरातो नहीं मानोगे ना।
बुल्ला मास्टर- (बुरा मानने वाले मन के प्रभावी होने की दशा में मुख पर उदासीनता का मुखौटा लगाकर)
जी परधान, बोलिए।
सिरपत- (सिर खुजाते हुए ) कहानी कुछ ऐसी करिए कि खिसुआ हेरोईन को ढूंढते हुए करिया के घर पहुंच जाएगाऔर एक दिन नहर किनारे वाले खेत के मेड़ पा घास छीलती हुई हेरोईन उसको मिल जाएगी। (चेहरे पर चमक आगई थी) अंत में यही दोनों करिया के बुढापे का सहारा बन जाएंगे।
बुल्ला मास्टर (लगभग पगलाने की अवस्था में)- अरे, का कह रहे हो परधान। पिछले एक साल में स्याही सूखनेनहीं दिए हैं इसके चक्कर में। बीमार बीवी का भी ध्यान नहीं धरे। अब आप कह रहे हैं कि कहानी में रूमांस लानाहोगा।
सिरपत- (हाथ ऊपर उठाते हुए) देखिए, नर्वस मत होइए मास्टर, बहुत कुछ नहीं थोड़ा बहुत होगा। पैसे की जरूरतहमहूं को है और आपको भी। जेतना चंदा एकट्ठा होगा उतना ही फयदा होगा। परचा छप गया है, एक दिन काटाइम है आपके पास सोचके बताइगा। हो सके तो खिसु और उसकी प्रेमिका के बीच एक जर्बदस्त प्रेम प्रसंग कासीन भी लिख लीजिएगा। उस कंडेशन में हमको किसी और की मदद नहीं लेनी होगी।
बुल्ला मास्टर ने अपने झोले का टंगना मजबूती से कंधे के ऊपरी सिरे की ओर सरकाया। थूक की एक सूख चुकीपीक गटकी और एक हाथ उठाकर सिरपत परधान को नमस्ते किया। बहिनचोद नामक विशेषण उन्होंने पिछवाड़ादिखाते हुए सिरपत के लिए छोड़ दिया। बरछी और कलऊ को पता होता कि सिरपत को उत्तेजित करने वाला कोईखजाना हवा में तिर रहा है तो वे तुरंत पप्पू पनसारी की दुकान पर इक्कीसवीं सदी का काकोरी कांड कर डालते।
मेले की भीड़ से पैदल ही अपनी साइकिल लेकर मास्टर बुल्ला निकले और बाजार खत्म होते तक निरंतर चलते हीरहे। मास्टर बुल्ला की यही एक प्रॉब्लम थी कि वे डिप्रेशन में नहर किनारे वाली देसी की दुकान पर अपनी सवारीरोक देते थे। उस दिन बुल्ला को मूड में देखकर पल्लेदार हजारी राम बहुत खुश हो गया। चिकट बेवड़ों को शाम सेपिला-पिलाकर उसके दिमाग की मां-बहन-बीवी सब हो गई थी। बुल्ला को देखते ही उसने दो राजाबाबू के खंभेअपने तकिए के नीचे दबा दिए और शाम सात बजे ही दुकान बंद करने की तैयारी पूरी कर ली।
बुल्ला ने भी अपनी साइकिल टेढ़ी कर ‘आपका ध्यान किधर है, मधुशाला इधर है’ वाले बोर्ड के सहारे खड़ी कर दी।
बुल्ला मास्टर नीम के नीचे एक लावारिस गुमटी से सटे कुएं की जगत पर हताश बैठ गए। दिन भर की गर्मी खत्महो रही थी लेकिन बुल्ला के दिमाग की गर्मी भरभरा कर बाहर निकल रही थी। पल्लेदार हजारी राम ने सफेद कांचके दो मटमैले गिलास बुल्ला के सामने रख दिए। राजाबाबू बुल्ला मास्टर का फेवरेट ब्रांड हुआ करता था। सबसेतेज बिलकुल खबरिया चैनल की तरह उसका नशा बुल्ला के दिल-दिमाग पर छा जाता था और सुध-बुध खोकर वेअपनी वाली पे उतर आते थे।
कुएं की जगत पर झक्क सफेद चांदनी में आमने-सामने बैठे हजारी और बुल्ला दो देवदूत लग रहे थे।
उनके बीच में दो गिलास, एक बोतल, पेपर पर बिखरी दालमोट, नीबूं के कुछ फांके और प्याज के टुकड़े ऐसे लग रहेथे मानो वे दुनिया को सुखी करने का कोई मंतर इन्हीं संसाधनों के आधार पर पढ़ने वाले हो। दूर से देखने वालानिश्चय ही हदस जाता। एक बार बुल्ला गिलास उठाते और तो दूसरी बार हजारी। चियर्स करने की अवस्था मेंपहला दूसरे के मुंह तक गिलास ले जाता और दूसरा पहले के मुंह तक। बीच में दोनों गिलास रखते और दालमोटको फैलाकर धरती की तरह गोल कर लेते। फिर उस पर नींबू गारते और प्याज छिड़कते, मानो धरती की खुशहालीके लिए हवन कर रहे हों।
हजारी- कहानी समझ गए, इ चूतिया सिरपतवा सब बदलने के चक्कर में है। पहले पंचायत भवन मा किराने कादुकान खोलवा दिया, तेल-चीनी अपने घर से बंटवा रहा है और अब रामलीला का भी अंत करने की तैयारी में है।सुरसा लीलैं एका।
बुल्ला-पूरा एक साल लगा दिए हैं, ड्रामा का कहानी लिखने में और उ बकचोद बोलता है कि कहानी में प्रेम प्रसंगडालो। (गिलास धम्म से नीचे रखते हुए) अरे घंट से प्रेम प्रसंग डाले। कउन प्रेम करता है आजकल किसी को। खुदसाला खिसुआ की मां को दिन-दहाड़े पटक लेता है अरहर के खेत में अउर बात करता है प्रेम प्रसंग की। अच्छे, जियावन, सरजू, मदेली, सेवा और सबका एकई साझा किस्सा है।
हजारी को लगा कि अब बुल्ला मूड में आ गए हैं और किसी भी पल उसके फैमिली लाइफ का भी सी टी स्कैन कियाजा सकता है।
हजारी- (बीच में ही टोंकते हुए) तो लिखिए ना भाई सिरपतवा के हिसाब से। पइसा काटता है क्या आपको। पिछलापंद्रह साल से रामलीला लिख रहे हो, क्या मिला। अरे आपको तो इ भी नहीं पता है कि पर्चा छप गया है आपके नामसे। गांव भर में चपकवा और बंटवा रहा है- आजादी के साठ साल बाद खदेरूगंज के इतिहास में पहला थेटर ड्रामा।पहले हम सोचे कि वही पुराना ड्रामा फिर होगा लेकिन इहां तो सीन दूसरा है। आगे क्या लिखा है थामिए जराबताता हूं।
दो पेग के बाद अक्सर हजारी ऐसे ही तांडव पर उतर आते थे। दिन के उजाले और होश-हवास में वह जो काम नकर पाते थे, वह राजाबाबू की खुमारी में कर गुजरते थे।
बुल्ला मास्टर सरेंडर मोड में थे और हजारी ने दालमोट के नीचे दुबकी जा रही ड्रामा के विज्ञापन की पर्ची बाहर खींचली। उस पर लिखी दूसरी लाइन कुछ इस तरह थी कि खदेरूगंज रामलीला के मशहूर लेखक मास्टर बुल्ला कीसरफरोश लेखनी से निकला ‘ कफन करिया का ’। पहला थेटर ड्रामा जिसको देखकर आंसू की नदियां बहनिकलेंगी। रामचंद का अविस्मरणीय किरदार निभाने वाले अशोक गुप्ता पहली बार गरीब करिया के रोल में। साथही नए प्रेमी जोड़े का प्रेम प्रसंग भी। महिलाओं और बच्चों के बैठने के लिए अलग पंडाल की व्यवस्था। टिकट दर- दस रूपए। पहले आइए और पहले पाइए। विशेष निगरानी के लिए लाउडस्पीकर और होम गार्ड्स की अतिरिक्तव्यवस्था। किरपा करके अपने बच्चों और बोरों का ध्यान रखें, खो जाने पर रामलीला नाट्य समिति और पंचायतखदेरूगंज की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।
इतना कहने के साथ ही हजारी ने पर्ची मास्टर बुल्ला के हाथ में थमा दी। बुल्ला जब तक पर्ची निहारते उनकी लारटपककर पर्ची को गिला कर गई। अपने कुर्ते पर रगड़कर बुल्ला ने उसे सुखाना चाहा लेकिन तब तक उस पर्ची केचीथड़े उड़ चुके थे।
हजारी ने दोनों गिलासों को नाइंटी डिग्री एंगल पर जाकर निहारा तो पता चला कि जाम खाली हो चले थे। उन्होंनेबुल्ला मास्टर का गिलास उठाकर उनकी नाक के पास सटा दिया तो बुल्ला ने जवाब दिया- हजारी बाबू, थोड़ा सबरअली का लो।
हजारी को समझ आ गया था कि बारी बुल्ला मास्टर की है।
बुल्ला– (लरजती आवाज में) अब समझ आया कि सिरपत प्रेम-प्रसंग क्यों डलवाना चाहता है नाटक में।
हजारी- (सहजता से) क्यों।
बुल्ला– क्योंकि बुल्ला मास्टर की लेखनी का टेस्ट लेना है उसे। अब हो चली है चला-चली की बेला। बुल्ला मास्टरकी लेखनी में उ धार कहां। (पिछवाड़े का पिछला हिस्सा पीछे की तरफ शिफ्ट करते हुए)
ऐसा सिरपत को लगता होगा।
हजारी भी सीमेंट के बने चबूतरे पर एक हाथ सिर पर टिकाकर उर्ध्व लेट गए और बोले- पर मास्टर तुमको कोईयहां से खदेर नहीं सकता। खदेरूगंज का नाम खराब नहीं होने देना है मास्टर।
बुल्ला मास्टर की आंखें चटक चांदनी में चांद को निहारने लगी। बचपन में पहुंच चुके मास्टर को याद आया कि कैसेउनके गांव के ही ठाकुर गुलजार सिंह और परताप सिंह ने गोरों की एक पलटन को गांव से खदेर दिया था। तब सेगांव का नाम खदेरूगंज पड़ा और वहां के लोग हर साल कुछ न कुछ खदेरने लगे। कभी मलेरिया, कभी प्लेग, कभीसूखा, कभी बाढ़, कभी लकड़बग्घा तो कभी मुंहनोचवा, सब खदेर चुके थे यहां के लोग।
बुल्ला– हजारी, सब कुछ तियाग दिए, लिखने के चक्कर में। तड़पत विमली आज भी नाच उठती है आंखों में। सदरका डागडर कहेस, बरेस्ट कैंसर है। अरे हम सोचा (एक हाथ हवा में घुमाकर) प्लेग, हैजा, पोलियो, टायफायड, कालरा इहै बीमारी होती है। कैंसर का हुआ, हमको थोड़ा रिस्की लगा (एक गाल टेढ़ा करते हुए)। बुल्ला मास्टर नेअपनी जिंदगी में इतने रिहर्सल किए और करवाए थे कि उनकी पर्सनल बातें भी इमोशनल सीन की रिहर्सल जैसीलगती थी।
बुल्ला आगे बोले- फिर जब सरकारी से प्राइवेट में ले जाने को बोले तो हमको लगा अब क्लाइमेक्स का टाइम आगया है बिमला रानी, मोरी बिमला रानी। इतने के साथ बुल्ला मास्टर चिंघाड़ने लगे।
हजारी ने उनका मुंह दबाकर जर्बदस्ती बंद करवाया वरना पवित्र नीम के पेड़ के नीचे दारू पीने के एवज मेंखदेरूगंज की छह सदस्यीय पंचायत फैसला करने बैठ जाती।
तो लिख के दे दीजिए सीन ना, हजारी बोला।
बुल्ला- हमारी खुद की जिंदगी मा एतना ट्रेजडी रहा है और हम आज तक लव सीन नहीं लिखे हैं।
हजारी- त एक बात कान में घुसेड़ ला बुल्ला मास्टर, एई बार ना लिखबा त अगली दाईं से रामलीला के पंडाल माबोरा बिछाई के बैठबा।
राजाबाबू को बुल्ला ने पूरी तरह से अपनी गिलास में उड़ेल लिया।
हजारी- अरे, मास्टर दिमाग फिर गया है आपन, पानी कहां है अपने पास, एक बोतल लाए थे उहौ खत्म हो गया है।
बुल्ला (गिलास नीचे पटकते हुए)- त अब का सुच्चै दारू अंदर जाई।
आधी शराब उन्होंने हजारी के गिलास में डाल दिया।
हजारी (चबूतरे पर से कूदते हुए)- दबे पांव चला मास्टर नहर की ओर, उहीं पानी मिली।
अपना-अपना गिलास हाथ में पकड़े बुल्ला और हजारी नहर की ओर चल पड़े। रात अपने शबाब पर थी, अब येदोनों देवदूत नहर के पुलिए पर बैठकर किसी दैत्य से कम नहीं लग रहे थे।
राजाबाबू का रंग और नहर के पानी का रंग एक जैसा था, उन्होंने एक गिलास पानी नहर से निकाला और दारू केसाथ मिक्स कर लिया। दोनों ने साथ में चियर्स किया, गिलास आपस में टकराने के बाद दोनों के होंठों तक पहुंचगए। करेजे में हलकी सी हूक उठी लेकिन तक तक सरकारी पानी से उनके अंतडि़यों की सिंचाई हो चुकी थी।

हजारी- पहले इ तो बताओ लव सीन अकेले खिसुआ थोड़ू न करेगा, केऊ लड़की भी तो चाहिए।
बुल्ला के दिमाग में सिरपत को नीचा दिखाने की आकांक्षा प्रबल हो चुकी थी और वे अब कुछ भी करके अपने अहमको संतुष्ट करना चाह रहे थे।
बुल्ला पुलिया से एकाएक उठ खड़े हुए बिलकुल हिंदुस्तानी छुटभैये नेताओं के अंदाज में और बोले- खिसुआ कीप्रेमिका का किरदार निभाएगी नगीना।
नाम सुनते ही हजारी हिल गए। नशा काफूर हो गया।
हजारी (रिएक्ट करते हुए)- चढ़ गई है तुमको, घर जाकर सीन लिखो।
इतने के साथ ही हजारी ने अपनी साइकिल उठाई और भाग निकले, भागने की प्रक्रिया के बीच ही हजारी ने कहा- नगीना क सोचिहा, मत मास्टर। सिरपतवा बुढौती खराब कई देई।
हजारी के जाने के बाद बुल्ला कुछ देर तक पुलिया पर बैठे रहे। नहर के पानी से जमकर मुंह धोने के बाद पैदल कुएंकी तरफ चल दिए जहां वे अपना झोला भूल गए थे। कुएं तक पहुंचते-पहुंचते बुल्ला ने ड्रामा का लव सीन सोचलिया था। उन्होंने यह भी तय कर लिया था कि नगीना को काम करने के लिए सिरपत से कैसे बात करना होगा।जगत पर पहुंचकर उन्होंने अपना टेरीकाट का कुर्ता निकाल दिया, पसीने से तरबतर बुल्ला झोले और कुर्ते कोसिरहाने दबाकर आकाश को ताकने लगे। तारों के बीच उन्हें बिमली की सूरत झिलमिलाती दिखी। बिमली खुशलग रही थी, उन्हें लगा कि वह उनसे बात करना चाह रही हो। बुल्ला बोले- का निहार रही हो।
बिमली- परशान हो, कपार दबा दें।
बुल्ला- परशान तो हम तबहूं हुए थे जब तुमसे पूरे गांव का खिलाफ जाकर बियाह किए थे।
बुल्ला खां-बिमली कुमारी का बियाह आसान तो न था ना। रामचंद्र ने हमको बचा लिया था, आज भी बचाते आए हैं।बुल्ला लगातार बोले जा रहे थे ऊपर की तरफ निहारते हुए)
बिमली- रामचंद तो आज भी तुम्हरे साथ हैं, तुम लिख सकते हो। प्रेम तो तुम हमसे भी किए थे।
बुल्ला मास्टर की आंखें मूंदने लगी थी और बिमली उनकी आंखों में पूरी तरह समा गई थी। भोरहरे नींद में ही बुल्लामास्टर पसीना-पसीना होने लगे। नींद उचट गई और उनके दिमाग में चल रहा सीन अब कागज पर उतरने कोव्याकुल हो उठा था।
उठते से ही उन्होंने अपना झोला टटोला, रजिस्टर और कलम लेकर लिखने बैठ गए। सुबह के सात बजे तक वेकरिया के गांव जाने के बाद की घटनाओं का विस्तार करते रहे ताकि खिसु और नगीना का प्रसंग उसमें जोड़ सके।
सूरज देवता मुंह पर चमक रहे थे। बुल्ला ने अपने जीवन का पहला लव ड्रामा पूरा कर लिया था, अब बस मंजूरी केलिए उन्हें सिरपत परधान के पास जाना था। गांव निपटान की प्रक्रिया में ही था कि इससे पहले बुल्ला सिरपतपरधान के घर पहुंच चुके थे।
सिरपत ने बुल्ला को आते देख बरछी से कहा- जो बे, एक ठो कुर्सी त लेई आउ।
(सिरपत की तरफ देखते हुए)- आवा मास्टर, (बरछी की तरफ देखते हुए चिल्लाकर) एक ठो चाई लाना मास्टर केलिए।
बुल्ला– नाहीं मास्टर, चाय-वाय बाद में। लव सीन लिख लिए हैं, बस एक बार सुन लें तो रिहर्सल शुरू कर दियाजाए। समय बहुत कम बचा है।
सिरपत- (हंसते हुए), अरे एतना जल्दी, हम तो आपसे मजाक किए थे। खैर अब सुना ही दीजिए।
बुल्ला ने रजिस्टर निकालकर पूरी कहानी फिर से एक बार सिरपत धोबी को सुना दी। साथ ही यह भी बता दिएखिसु की प्रेमिका वाले रोल के लिए कोई लड़की ही चाहिए।
सिरपत एक बार फिर से सिर खुजा रहे थे और साथ ही बुल्ला की तरफ ऑप्शन वाली निगाहों से देख रहे थे।
बुल्ला तपाक से बोले- एक बार ड्रामा हिट भया न, तो लड़़का और लड़की दूनू क फूचर ब्राइट बा परधान।
सिरपत ने दो-तीन मिनट के अंदर ही आंटी-भाभी टाइप्स के चार-पांच नाम गिना दिए। बुल्ला ने इन सभी नामोंको पहले से फिक्स की गई वजहों के आधार पर खारिज कर दिया। सिरपत एक बार फिर से गंभीर हो रहे थे आौरलगने लगा था कि कोई अशुभ घड़ी आ रही है।
हारकर सिरपत बोले- आप ही बताएं मास्टर, किसको लें।
बुल्ला मास्टर के पाले में गेंद पहली बार आई और उन्होंने तुरंत ही नगीना के नाम का सुझाव दे डाला।
पहले तो सिरपत चकरा गए लेकिन बाद में बुल्ला से इसकी वजह पूछी तो उन्होंने कहा- देखा, परधान एक तोआपकी बेटी और दूसरे आपके सानिध्य में पूरा ड्रामा होगा। (बुल्ला लगातार सिरपत की आंखों में आंख डालकरबोले जा रहे थे)- ड्रामा हिट हुआ तो बिटिया आज ब्लॉक, कल जिला और परसों स्टेट लेवल पर पहचान बनाई।
बुल्ला की जुबानी जादू का सिरपत पर असर बढ़ रहा था और सिरपत की गंभीरता नगीना में राजनीतिक विरासतकी तलाश कर रही थी। अखबारों और टीवी चैनलों में उन्हें बदलते राजनीतिक दौर की बू तो पहले ही आ चुकी थी।
भरी दोपहर में अशोक गुप्ता और खिसु को बुलावा भेजा गया। रामलीला मंच पर ही ड्रामा करने की जगह मुकर्ररकर दी गई। मंच के पीछे दो कपड़ों के पर्दों को घेरकर रिहर्सल रूम बना दिया गया जहां मास्टर बुल्ला, खिसु औरनगीना के अलावा किसी को आने की मंजूरी नहीं थी। सिरपत परधान की बेटी का ड्रामा में रोल होने की वजह सेआस-पास के गांवों में खदेरूगंज के लव ड्रामा की जोरदार चर्चा और आलोचना हुई। गांव के लोग बीपीएल कार्ड , नरेगा, इन्दिरा आवास, जवाहर रोजगार, लाडली बेटी, कन्या धन और हरित तालाब जैसी योजनाओं का लाभ नपाने के डर से सिरपत के खिलाफ नहीं बोलते थे, गांव के बाहर के लोग बरछी और कलऊ के डर से। मास्टर बुल्लाकड़ी मेहनत करके खिसु और नगीना के प्रेम प्रसंग को जीवंत बनाने में लगे रहते।
सिरपत भी कभी-कभार दशा-दिशा देखने के लिए रिहर्सल रूम आ जाते थे।
अठारह का खिसु और पंद्रह की नगीना न चाहते थे और न ही प्रेमी-प्रेमिका बन पाते थे। फिर भी मास्टर बुल्लाहिम्मत ना हारते, दिन का खाना सिरपत के घर से वहीं मंगवा लेते थे। सिर खपा के वहीं पड़े रहते, चेहरे पर पिसीसुतही घिस-घिसकर नगीना और खिसु के चेहरे आसमानी चमकीले रंग के हो रहे थे।
रिहर्सल के पांचवें दिन दोपहर में डेढ़ और पौने दो बजे के बीचोंबीच पहली बार खिसु और नगीना की निगाहें मिलीथी। बुल्ला मास्टर अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे उंघ रहे थे। लम्बा सा, पीले फूलों की छाप वाला फ्रॉक पहने नगीनानीलम नामक अभिनेत्री लग रही थी और हॉफ आस्तीन की शर्ट-चिपकी पतलून पहने खिसु गोविंदा नामकअभिनेता। दोनों ने एक दूसरे को दूर से ही चुम्बन दिया, इतने में मास्टर बुल्ला उठ बैठे और रिहर्सल करने केआदेश दे दिए। एक घंटे में न जाने ऐसा क्या हुआ था कि बुल्ला मास्टर का लव सीन एकदम रियल सा हो चला था।एकबानगी कुछ ऐसी थी-
खिसु- तुम मेरे पास क्यों नहीं आती।
नगीना- छोड़ों, करिया चचा देख लेंगे। उनके ही पीठ पीछे हम ऐसा करेंगे।(नोट- खिसु ने कुछ ऐसा नहीं पकड़ा थाजो नगीना उसे छोड़ने के लिए कह रही थी)
खिसु- हमको भाग चलना चाहिए। ये गांव वाले हमारे प्यार को नहीं समझेंगे। मेरा कुछ सपना भी तो है, हम जीलेंगे जिंदगी।
नगीना- कैसे।
खिसु- तुम जिंदगी की बात करती हो, मैं सपनों की। तुम जिंदगी जी रही हो और मैं सपना देख रहा हूं। हमारीजिंदगी भी तो वहीं से शुरू हुई थी जहां से हमने सपना देखा था।
इतना सुनते ही बुल्ला मास्टर बोल पड़े थे- शाबाश। बच्चों। उस दिन के रिहर्सल का सीन यहीं से कट हो जाता है।
बुल्ला मास्टर कुएं पर बैठे हैं और हजारी पेग लगा रहे हैं। चांद उतरा आया है और चांदनी छिटकी हुई है।
कुछ पन्ने हाथ में पकड़े हुए वे बोलते हैं- बात साथ देने की नहीं थी, साथ निभाने की थी। मैं तो किसी का साथ ना देपाया। अपना भी बड़ी मुश्किल से दे पा रहा हूं।
इतना कहने के साथ ही मास्टर बुल्ला ने पहला पेग गटक लिया। हजारी ने भी पहला पेग गटकते हुए कहा- वाहमास्टर, छा गए। कउन से सीन का डाइलॉग हउ इ।
बुल्ला– खिसु और नगीना के जुदाई वाला सीन। मतलब यहीं से उनको बिछड़ना है।
आगे की कहानी ना हजारी ने पूछी और ना ही बुल्ला ने बताई।
हजारी और बुल्ला को राजाबाबू ने जैसे ही अपने आगोश में लिया वैसे ही आकाश में भी चांदनी डूबने लगी। मानोंकुछ बताना चाह रही हो, जल्दीबाजी का संकेत दे रही हो, क्या पता बेमौसम बरसात तो नहीं आने वाली थी।
सूरज सर पे आ गया था, बुल्ला को नींद में ही कोलाहल सुनाई दिया। आवाज सिरपत परधान के घर के तरफ से आरही थी। आंख खोली तो बरछी और कलऊ सामने खड़े थे। हजारी और बुल्ला पीछे-पीछे सिरपत परधान के घर तकपहुंचे। गांव की हिंदू बस्ती अलग उमड़ रही थी और मुस्लिम बस्ती अलग। छह सदस्यीय पंचायत में शब्बीर अली, पल्लू साईं, रेहान शेख के अलावा खुद सिरपत परधान, बड़कऊ दूबे और राम बचावन सिंह थे। मास्टर बुल्ला परआरोप लगाया गया कि इन्होंने खिसुआ आतिशबाज को पहले उकसाया और फिर नगीना को भी ड्रामा में कामकरने के लिए प्रेरित किया। साथ ही हिंदु-मुस्लिम भाईचारे से भी उन्होंने भड़काने की कोशिश की है। इसी कानतीजा है कि दोनों आज रात गांव छोड़ फरार हो गए। नगीना अपने साथ गहना-रूपया लेकर भागी है जबकिखिसुआ धनुष टूटने पर भड़ाम की आवाज निकालने वाले बम का नुस्खा लेकर फरार भया है। नया बम तो कोई भीबना सकता है लेकिन उस परंपरागत बम को बनाना आसान नहीं है। परधान सिरपत के साथ ही पूरी ग्राम पंचायतखदेरूगंज को इस फरारी प्रक्रिया से घोर नुकसान हुआ है। इस जघन्य कर्म की पूरी जिम्मेदारी मास्टर बुल्ला परआती है, अतएव यह पंचायत उन्हें पांच सालों के लिए गांव बदर करती है। इस दौरान कुर्क की गई उनकी संपत्तिग्राम पंचायत भवन में सुरक्षित रखी जाएगी।
सिरपत ने बुल्ला से पूछा- कुछ कहना चाहते हो अपनी सफाई मा मास्टर।
बुल्ला- मुजरिम सफाई नहीं देते परधान। आरोपी तो हमसे बिना कुछ पूछे ही बना दिया आप लोगों ने।
पंचायत खत्म हुई। बुल्ला के घर में एक बक्से, एक बिमली की फोटो और दो-पांच बर्तनों के अलावा कुछ भी नहींमिला। ‘कफन करिया का’ की पहली कहानी जो उन्होंने अशोक गुप्ता के लिए भिखारी के रोल को आधार बनाकरलिखी थी, उसकी पांडुलिपि भी ग्राम पंचायत खदेरूगंज ने जब्त कर ली थी।
बुल्ला अपना बिस्तर समेट उसी रात ग्राम पंचायत खदेरूगंज की सरहद से बाहर निकल पड़े। उनके साथ उनकीसाइकिल भी थी। उसी पुरानी पुलिया पर वे फिर से बैठ गए।
बुल्ला ने नीले आसमान की ओर देखा, बिमली मुस्करा रही थी।
बुल्ला ने चुटकी लेते हुए कहा- बात साथ देने की नहीं थी, बात साथ निभाने की थी।
हजारी बोले- सठिया गए हो मास्टर और चारों तरफ राजाबाबू की खुशबू फैल गई।
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Wednesday, January 12, 2011

हिंदी कविता

जैसा कि 'भाषासेतु' के पाठकों से हमारा वायदा था कि अब से हम हर हफ्ते बुधवार के दिन एक नए पोस्ट के साथ हाजिर होंगे, तो इस बार आपके समक्ष हैं हिंदी के जाने माने कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव की चन्द कविताएँ। 'इन दिनों हालचाल', 'अनभै कथा', 'असुंदर सुन्दर' नामक तीन संग्रहों के 'मालिक' जितेन्द्र पेशे से प्राध्यापक हैं। कविता के अलावा आलोचना पर भी समान अधिकार। भारत भूषण अग्रवाल सम्मान, कृति सम्मान, भारतीय भाषा परिषद के युवा पुरस्कार समेत कई महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाजे गए जितेन्द्र की प्रेम कविताओं का एक संग्रह 'बिलकुल तुम्हारी तरह' जल्दी ही प्रकाशित होने वाला है। पेश है इसी संग्रह से कुछ प्रेम कविताएँ।

जितेन्द्र श्रीवास्तव
पहचानना हथेली की तरह

तुम्हें पहचानता हूँ
अपनी हथेली की तरह

तुम्हारे माथे पर
उभर आईं रेखाएँ
मेरे हाथ की लकीरों की तरह हैं।

तुम्हारे नाम


भीगी सी शाम
तुम्हारे नाम

पात पात पर पानी फिसले
आँखों में कुछ आये मचले
इधर उधर की बातें प्यारी
सुबह सांझ में कैसी यारी

वह देखो बेवक्त
निकला है घाम।

पहाड़

ये पहाड़ हैं प्रिये
देश की देह पर ढाल से

यहाँ गाती हैं युवतियां मौसम के गीत
करते हुए काम
गाती हैं मेरे गाँव के पहाड़ कितने सुन्दर हैं
इन दिनों दृश्य कितना मनोरम है
ऐसे में फौजी पिया घर आ जा
दिल के करार आ जा
जीवन के बहार आ जा।

इन दिनों हालचाल
काँप रहा है दिन
और धुप भी पियराई है
न जाने
कौन ऋतु आई है!

उजास
तुम्हें फूल होना था
तुम पत्ती हुई

मुझे रंग होना था
मैं पानी हुआ

पानी-पानी जवानी-जिंदगानी हुई!

Wednesday, January 05, 2011

मलयाली कविता


अयप्प पणिक्कर
पणिक्कर मलयाली कविता में आधुनिक कविता के जनक माने जाते हैं। वे पहले कवि हैं, जिन्होंने मलयाली मेंपूर्ण यथार्थवादी, समसामयिक और रोज़मर्रा की बोलचाल में कविताई का साहस किया। वैसे तो पणिक्कर कोअनुवाद करना मुश्किल है, पर रति सक्सेना ने यह कष्टसाध्य कार्य बखूबी किया है। उनकी बहुचर्चित लम्बी कविता 'कुरुक्षेत्र' मलयाली साहित्य में आधुनिक कविता का प्रवेशद्वार कही जाती है। केरल साहित्य अकादेमी, कबीर सम्मान, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् पुरस्कार, कुमार आशानपुरस्कार आदि से सम्मानित

वह मर गया
वह मर गया
वह रोई नहीं
वह मर गया
फिर भी वह रोई नहीं
वह मर गया
लेकिन वह रोई नहीं

पहला प्यार
दुनिया में कुछ भी नहीं है
पहले प्यार जैसा
यदि कुछ है तो
वह है दूसरा प्यार।

दूसरे प्यार की तरह
केवल एक चीज़ है इस संसार में
वह है-
यदि मौक़ा मिले तो तीसरा प्यार।

इतना जान गए तो
सबकुछ जान लिया
दार्शनिक बन जाओगे
मुक्ति मिल जाएगी।

भेड़
एक प्यारी सी भेड़
दुलारी सी भेड़
पकने पर कितनी
स्वादिष्ट भेड़।


बरररसात
बरसात जैसे
रिम झिम झिम झिम

नहर जैसे
हर हर हरा हर

कीड़े जैसे
कुर्र कुर्र कुर्र्रू रु रु रु

सड़क जैसे
सर्रर्र सररर सरा

बरसती है
बहती है
रेंगती है
सरकती है
खूबसूरत जैसे...

मौत
हम कल नहीं मिले होते तो
ढेर सी शंकाएं मेरे मन में बनी रहतीं
अच्छा ही हुआ कि हम मिले और बातचीत की
मैंने तुझे अपना दुश्मन समझा था
आज मैं बहुत करीब महसूस कर रहा हूँ
तेरे बिना ज़िन्दगी, खूबसूरती और प्यार
काफी घुटा घुटा महसूस करता
तेरी बनाई सीमाओं में
लेकिन आज समझ रहा हूँ तेरी भलाई
तेरी अनुपस्थिति से होने वाली घुटन ने
डरा दिया मुझे, मेरी दोस्त!
तू मेरी आत्मा का दूसरा रूप, मेरा आधार
तेरे बिना क्या खूबसूरती, क्या प्यार और क्या ज़िन्दगी!
वही कर जो तू चाहती है।