ओ.एन.वी. कुरुप
मलयालम के जाने माने कवि श्री ओ.एन.वी.कुरुप को इसी माह के अगले 11 तारीख को केरल में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा जा रहा है। हमने सोचा कि इस अवसर पर उनकी कुछ कविताओं से 'भाषासेतु' के पाठकों को रू ब रूकरवाया जाये तो कैसा हो! 'भाषासेतु' परिवार की तरफ से श्री कुरुप को ज्ञानपीठ पुरस्कार और हालिया ही प्राप्त पद्मविभूषण सम्मान के लिए अशेष बधाइयाँ। कविताओं का अनुवाद किया है स्वयं मलयालम की प्रतिष्ठित रचनाकार तंकमणि अम्मा ने।
एक दिनान्त पत्र
अपने बेहद प्यारे पक्षियों के लिए
मैंने कभी भी नहीं बनाये हैं पिंजरे
उनके उड़ने के लिए
मुझमें है एक आसमान।
बसेरा लेने के लिए
मुझमें है एक डाली।
चुगने के लिए
मेरी छाती में हैं अनाज के दाने।
उनके संग गाते पक्षी भी हैं मेरे अन्दर।
उनके स्वर वंदन सुने बिना
मेरी कोई सुबह नहीं
शाम भी नहीं।
कितने ही देशों में
चक्कर काटकर उड़ जाएँ
तो भी इन्हीं सीढ़ियों पर वे लौट आते हैं,
मैं भी!
कितने ही पता हैं उनके
अन्य देशों की पक्षियों के गीत और बोलियाँ
तो भी वे गाते हैं अपने ही स्वर में।
उनके संग गाते हुए भी
मैं ठहरा मैं ही।
मेरे बेहद प्यारे अंगूर की मदिरा
बनाने के लिए
मैंने कभी पडोसी के बाग से
अंगूरों की चोरी नहीं की है।
किन्तु जानता हूँ मैं कि
किसी भी दिशा के लाल-अंगूर
मेरे बर्तन में मदिरा बनने को
तड़प उठते हैं।
निचली भूमि को सीचने के लिए
करुणा गल उठती है।
पहले कभी आदि पितरों की
नग्नता छिपाने के लिए
इन अंगूर लताओं ने ही
बुन लिया था हरित-पाट।
मेरे अतिथि के स्वागत-सत्कार के लिए
मैंने कभी पडोसी के मेमने की
नहीं की है हत्या।
किसी भी गोशाले के चारों ओर
सूघ-सूघ कर चलने वाले
भेडिये के लिए
अपने सर को नुकीला कर सकता हूँ मैं।
अपने बेहद प्यारे फूलों को चुनकर
कभी भी मैंने फूलदान नहीं सजाया है।
मिट्टी के अल्पायु फूल यदि झड जाएँ
तो भी मेरे उर में रहेंगे वे चिरायु होकर।
मेरे लिए बेहद प्यारी है यह मिट्टी
उसका हर कण
जीवकोश-ज्यों मेरा अपना है।
धुल बन, जल बन, वायु बन, आकाश बन
और ज्वाला बन
किसी दिन मेरा लाक्षागृह भी धधक कर विलीन हो जायेगा
इस मिटटी में ही।
तब मेरा गान उभर कर आएगा
गगंवानी बनकर-
'मैं यह धरती हूँ!'
जब एक नन्हा पौधा लगाते हैं
जब हमन एक नन्हा पौधा लगाते हैं
तब एक छांह ही लगाते हैं
कमर सीधी करने के लिए ठंडी छांह लगाते हैं।
दिन में झपकी लेने के लिए फूलों की चादर बिछाते हैं।
इस मिट्टी में भी
नभ की छाती का श्याम रंग लेकर
अंजन लगाते हैं।
वसंत ऋतु के लिए
चँदोवा तानने को छोटा खम्बा लगाते हैं।
सहस्रों कलशों में
आत्मगंध भरकर
नाच उठती ऋतु कन्या के लिए
आर्द्रता लगाते हैं।
पल्लव बनकर, पत्ते बनकर
प्रस्फुटित होते पुश्प्दलों की सुषमा बनकर
आँखों के लिए बहुरंगी मेले लगाते हैं।
शुक बाला के
सानंद बैठकर झूलने के लिए
झूला लगाते हैं।
शारिकाओं के मधुकलश रखने के लिए
एक सीनका भी लगाते हैं।
गिलहरियों को भी
ओणम की दावत देने के लिए उपक्रम लगाते हैं।
ललचाये खड़े नटखट बालक के लिए
बाँहों में भरकर, गोद में उठाकर
मिठास लगाते हैं।
घड़े भर जल लिए दौड़ते बादल, और
छिपकर बहती बयार
दोनों को एक साथ उतरने के लिए
सीढियां लगाते हैं।
चोरी कर के कभी न अघाते
जंगल के चोर और
नगर के चोर, दोनों जब
नगर के रास्तों के बीच पहुँच जाते हैं
तब आकाश को छूती ऊंचाई में
चमगादड़ रूपी काले झंडे दिखने के लिए
बलिष्ठ बांहें लगाते हैं।
जब हम एक नन्हा पौधा लगाते हैं
तब कई नन्हे पौधे लगाते है।
जब कई नन्हे पुढे लगाते हैं
तब कई छाहें लगाते हैं।
4 comments:
great poems tanakmaniji..
congratulations kurupji.
सुंदर प्रस्तुती। भाषा-सेतु अपने नाम को सार्थक कर रहा है।
ओ.एन.वी. कुरुप जी कों बधाई ।
सुखद समाचार।
ओ एन वी की कविताओं की प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत साधुवाद।
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