Sunday, March 28, 2010
हिंदी कविता
Saturday, March 27, 2010
पूर्वसूचना
संपादक-द्वय, भाषासेतु
Saturday, March 20, 2010
Tuesday, March 16, 2010
हिंदी कविता
प्रसिद्ध कथाकार रवीन्द्र कालिया एक संस्मरण अक्सर सुनाया करते हैं. जालंधर के दिनों की बात है. एक बार कुछ दोस्तों के साथ देर रात तक मयनोशी हुई. सुबह सकारे जब लोगों की आँख खुली तो पाया गया कि सुदर्शन फाकिर बिस्तरे पर ही उकडू हो बैठे हैं और दनादन यके बाद दीगर ग़ज़लें लिखे जा रहे हैं. लोगों ने पूछा कि या खुदाया ये माजरा क्या है, तो फाकिर ने कहा कि यारो ये बताओ कि रात में जो पी गयी थी उस व्हिस्की का नाम क्या था. सुबह से ही जैसे मुझ पर दौरा सा पड़ा है और बिना किसी मशक्क़त के मेरी कलम से क्या खूब ग़ज़लें निकल रही हैं. मित्रों ने फरमाइश की कि मियां कुछ हमें भी सुनाओ. फिर जब फाकिर ने लिखी गयी ग़ज़लों के एकाध शेर पढ़े, तो लोगों ने अपना सर पीट लिया. दरअसल फाकिर ने जो कुछ लिखा था, वो ग़ालिब की ग़ज़लें थीं.
जो लोग लिखते हैं, और पढ़ते भी हैं (ज्यादातर लोग सिर्फ लिखना पसंद करते हैं) वे सहमत होंगे कि ऐसा अक्सर होता है. कभी का कुछ पढ़ा मन के कहीं इतने गहरे पैठ जाता है कि कई बार हमें पता ही नहीं चलता कि अवचेतन से निकली कोई लाइन सबसे पहले कहाँ पढ़ी थी. खैर ग़ालिब वाली बात तो नहीं, लेकिन एक बार मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. कथाकार मित्र चन्दन पाण्डेय दिल्ली आये हुए थे और कुछ दिनों हमने साथ साथ बिताया. उन दिनों मैं अपने उपन्यास पर काम कर रहा था. लिखने के क्रम में अचानक दो पंक्तियाँ कौंधी और मैं खुद चकित रह गया. दोनों लाइनें इतनी ग़ज़ब की फर्निश्ड थीं कि मैं सहसा डर गया. चन्दन सामने पड़ा तो मैंने उससे इस बाबत पूछा कि ये बताओ कि ये पंक्तियाँ कहीं पढ़ी सुनी है पहले? चन्दन को एकाएक कुछ याद नहीं आया तो मैंने समझा मेरे मन का भ्रम होगा. मैं आगे लिखने लगा. कुछ घंटों बाद चन्दन का फोन आया कि ये लाइनें युवा कवि सौमित्र की एक कविता से बहुत हद तक मिलती जुलती हैं जिसका मित्रों के बीच मैं अक्सर पाठ किया करता था. सौमित्र की यह कविता (पुनर्जन्म) मुझे बहुत प्रिय है. न जाने कितनी दफे मैं इसे पढ़ सुना चुका हूँ.
अभी पिछले दिनों सौमित्र का फोन आया. USA में रहते हैं, कविताएँ बड़ी प्यारी लिखते हैं. मैंने इस घटना का जिक्र किया तो देर तक हँसते रहे. मैंने भाषासेतु के लिए कुछ कविताएँ मांगीं तो आश्वस्त किया कि जल्दी ही भेजेंगे. तब तक मैंने इस बात की इजाज़त ले ली कि 'पुनर्जन्म' समेत उनकी कुछ ऐसी कविताएँ मैं भाषासेतु के पाठकों के लिए मुहैय्या करूँगा, जो मुझे अत्यंत प्रिय हैं। कुणाल सिंह
सौमित्र सक्सेना
नाम
उन सबके नाम बहुत अच्छे हैं
जार्ज, सैंडी,
अहकितिन, मुबारक
गोमेज...
माँ-बाप ने
जब उनके नाम रखे होंगे
तो कुछ अच्छा सोचकर ही
रखे होंगे.
मैं जब भी उन्हें
उनके नाम से बुलाता हूँ
लगता है
कि कुछ
अच्छा काम किया.
आधार
वे सब सोचते हैं-
पक्षी उड़ने से पहले
हवा खोजते हैं.
रकीब
एक बादल टिक गया है
आसमान में
भूमि के एक टुकड़े पर रीझकर
मेरे पास
धुआँ करने को कुछ भी नहीं है
मैं अब ओझल करके सबकुछ
उस मिटटी को भीगने से
नहीं बचा पाऊंगा.
वह धूल भी अब पसीज गयी है
उसी बादल के छींटों से
जिसे उड़ाकर मैं
उसकी आँखों में
झोंक देता.
सीढियां
जितनी सीढ़ियों से मैं नीचे उतरता हूँ
उतनी ही दीवारें मुझे
अलग रंगी दिखाई देती हैं.
छत का उजला आकाश और
पक्षियों की हलचल
जीने में उतरते ही खो जाती हैं
सीढी दर सीढी
मेरा क़द कम होने लगता है और
मेरी दृष्टि
हर निचली जगह पर आकर
ठहर जाती है-
ईमारत के उन हिस्सों पर
जो ऊपर की सतहों को
लादे खड़े हुए हैं.
हर मंजिल पर रास्ता घूमता है
कुछ दरवाज़े दिखाई देते हैं
न जाने क्यों
मुझे लगता है कि उस जगह
मैंने अगर दस्तक दी तो
जो भी आदमी निकलेगा
वह मुझे ऊपरवाला समझकर
सहम जाएगा.
मैं अक्सर
सबसे नीचेवाले घर में पहुंचकर
सब तरफ की खिड़कियाँ
साफ करना चाहता हूँ
मुझे उन पक्षियों के लिए वहां
घोंसले रखने का मन होता है
जो ऊपर के उजाले से
आगे नहीं सोच पाते.
पुनर्जन्म
भूल होती है
तो दुबारा काम करना पड़ता है.
जो कहानी अच्छी लगती है
उसे दुबारा पढता हूँ.
जहाँ से भी मन जुड़ जाता है
दुबारा जाता हूँ वहां.
गर्भवती औरतें एक बार हंसती हैं
पर आवाज़ दो बार आती है-
ऐसा जाने उन्हें क्या अच्छा लगता है
जिसे वे दुबारा सुनना चाहती हैं!
কালো ছায়া কেটে
সিড়িপথ উঠেছে ওপরে
চিলে কোঠার ঘরে
মশারির খুট বেয়ে নেমে আসে
পৌষের রাত
কুড়ে খায় স্তব্ধতা
ইদুরের দাঁত
শীতল সিসের মতো পৌষের রাত
নেমে আসে চোখের পাতায়
রাত বাড়ে ঘুমে অঘুমে
রাত বাড়ে উত্তরে দক্ষিনে
ঘুমের ফাঁদে আটকে পড়ে রাত
রাত যত বাড়ে বাড়ে ইদুরের দাঁত
चन्दन सेनगुप्ता
युवा कवि, हालाँकि पहले खूब कवितायेँ लिखते थे, फिलहाल चित्रकारी में व्यस्त रहते हैं
रहनवारी: कम्पा, kancharapara , उत्तर २४ परगना, पश्चिम बंगाल, मोब : 09830475376
Sunday, March 14, 2010
उर्दू नज्में
चेहरे पे दुनिया भर की मलामत और दो चार दिनों की हजामत। गुलज़ार साब का ये ट्रेड मार्क है। जाने माने सिनेमादाँ और उतने ही जाने माने ग़ज़लगो। भाषासेतु के पाठकों के लिए पेश है उनकी कुछ नज्में।
गुलज़ार
बेखुदी
दो सोंधे सोंधे जिस्म जिस वक़्त
एक मुट्ठी में सो रहे थे
लबों की मद्धिम तबील सरगोशियों में साँसें उलझ गयी थीं
मुंदे हुए साहिलों पे जैसे कहीं बहुत दूर
ठंडा सावन बरस रहा था
बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ था?
तुझे ऐसे ही देखा था कि...
तुझे ऐसे ही देखा था कि जैसे सबने देखा है
मगर फिर क्या हुआ जाने...
कि जब मैं लौटकर आया
तेरा चेहरा मेरी आँखों में रोशन था
किसी झक्कड़ के झोंके से गिरी बत्ती
बस एक पल का अँधेरा फिर
अचानक आग भड़की
और हर एक चीज़ जल उठी।
पूर्ण सूर्यग्रहण
कॉलेज के रोमांस में ऐसा होता था
डेस्क के पीछे बैठे बैठे
चुपके से दो हाथ सरकते
धीरे धीरे पास आते...
और फिर एक अचानक पूरा हाथ पकड़ लेता था
मुट्ठी में भर लेता था।
सूरज ने यों ही पकड़ा है चाँद का हाथ फलक में आज।
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम
बहुत जी चाहता है फिर से बो दूँ अपनी आँखें
तुम्हारे ढेर सारे चेहरे उगाऊं, और बुलाऊं बारिशों को
बहुत जी चाहता है कि फुर्सत हो, तसव्वुर हो
तसव्वुर में ज़रा सी बागबानी हो!
मगर जानां
एक ऐसी उम्र में आकर मिली हो तुम
किसी के हिस्से की मिटटी नहीं हिलती
किसी की धूप का हिस्सा नहीं छनता
मगर क्या क्यारी के पौधे पास अपने
अब किसी को पाँव रखने के लिए भी थाह नहीं देते
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम?
Wednesday, March 10, 2010
उपन्यास अंश
देवदास
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
अनुवाद : कुणाल सिंह
रात का कोई एक बजे का समय। बिस्तर की चादर को अपनी देह से भली-भाँति लपेटकर पारो सीढिय़ाँ उतरी और नीचे आँगन में आ गयी। चारों तरफ चाँदनी छिटक रही थी। आँगन में खटिया डाले दादी सोई थीं। पारो बेआवाज़ दरवाज़े तक आयी और जैसे घाव से पट्टियाँ उतारते हैं, इतने हल्के हाथों किवाड़ खोला। बाहर सुनसान। चरिन्द-परिन्द का नामोनिशान नहीं। एक पल के लिए हिचकी, फिर जैसे कुछ सोचकर उसने आगे कदम बढ़ा दिया।
मुकर्जी साहब की कोठी चाँदनी में दूध धुली लग रही थी। सेहन में बूढ़ा दरबान किशन सिंह अपनी खटिया पर बैठा रामचरितमानस का सस्वर पाठ कर रहा था। सिर झुकाये ही पूछा, ''कौन?'' पारो ने कहा, ''मैं!'' इतने भर से किशन सिंह ने पता नहीं क्या समझा, सिर उठाकर आगे दरियाफ्त करने की भी ज़रूरत महसूस नहीं की उसने, जहाँ छोड़ा था आगे से पाठ करने लगा। सोचा होगा, कोई नौकरानी होगी या ऐसा ही कुछ! पारो भीतर पहुँच गयी। गरमी का मौसम होने के कारण अधिकांश नौकर-चाकर बरामदे में ही सोये थे। उनमें से किसी ने पारो को जाते देखा या नहीं, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। घर के भूगोल से पारो भली-भाँति परिचित थी, सो सीढिय़ाँ चढ़कर देवदास के कमरे तक पहुँचने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। दरवाज़ा यों ही भिड़ा दिया गया था, वह भीतर आ गयी।
देवदास कुर्सी पर बैठकर पढ़ते-पढ़ते सो गया था। मेज़ पर रखा लैम्प धीमी लौ में जल रहा था। पारो ने उसकी लौ तेज़ कर दी। नींद में गाफिल देव का चेहरा रोशन हो उठा। एक पल के लिए मन्त्रमुग्ध-सी पारो उसे देखती रही, फिर वहीं फर्श पर उसके पैरों के पास बैठ गयी। देवदास के घुटनों पर हौले से हाथ रखकर हिलाया, फुसफुसाकर बोली, ''देव दा!''
नींद के आवेश में लथपथ देव इतना सुनकर, बिना आँखें खोले ही, अनायास हुँकारी भर बैठा। पारो चुप रही। फिर थोड़ी देर बाद उसने देव के घुटनों को हिलाया। उसकी चूडिय़ाँ खनक उठीं। रात के सुनसान में उसकी चूडिय़ों की खनखनाहट प्रमुख होकर सुनायी पड़ी। पारो ने फिर से पुकारा, ''देव दा, उठो!''
देव ने आँखें खोलीं। लैम्प की रोशनी सीधे उसकी आँखों पर पड़ी, सो एक पल के लिए वह चौंधिया गया। घुटने पर रखे हाथ को पारो ने हटा लिया। उस पर देव की नज़र पड़ी। तत्काल ही उसे समय का अन्दाज़ा हुआ। उसने कलाई घड़ी पर नज़र डालते हुए पूछा, ''पारो तुम! ... इस वक्त!'' वह कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सचेत हो गया। ''क्या बात हो गयी पारो?''
''हाँ देव दा, यह मैं हूँ।'' इतना कहकर पारो चुप हो गयी। देव ठीक से बैठ गया। वह इन्तज़ार कर रहा था कि पारो कुछ और बोलेगी, लेकिन जब वह चुप ही रही तो देव ने पूछा, ''इतनी रात गये? सब ठीक तो है न!''पारो फिर भी चुप रही। देव उठा और कमरे के दरवाज़े तक आया। किवाड़ खोलकर सरसरी नज़र से बाहर देखा, फिर किवाड़ को भिड़ा दिया। बन्द नहीं किया। पारो खड़ी हो चुकी थी। देव ने हैरत में पड़कर पूछा, ''अकेली आयी हो?''
''हूँ।'' पारो का चेहरा नीचे की ओर था।
''डर नही लगा?''
पारो ने चेहरा उठाया। मुस्करायी। बोली, ''मैं भूतों से नहीं डरती।''
''...और आदमी से?''
पारो चुप। देव को क्या वाकई इस बात का अन्दाज़ा नहीं कि इस संकट की घड़ी में पारो को आदमियों से भी डर नहीं लगेगा?
''अच्छा छोड़ो, बताओ बात क्या है?''
पारो फिर चुप! क्या वाकई देव को अन्दाज़ा नहीं? उसे जानना चाहिए कि इतनी रात गये पारो क्यों आयी है? वह वाकई नहीं जानता या न जानने का अभिनय कर रहा है? क्या वह पारो को तोल रहा है?
''तुम्हें आते किसी ने देखा तो नहीं?''
''किशन सिंह ने देखा था।''
''और किसी ने?''
''शायद बाहर बरामदे में सोये नौकरों में से किसी ने देखा हो।''
देवदास चुप। उसके चेहरे के नकूश एकबारगी बदल गये। ''क्या किसी ने तुम्हें पहचाना?''उसकी परेशानी से पारो को किंचित निराशा हुई भी हो तो भी उसने ज़ाहिर नहीं किया। सहजता से बोली, ''सभी तो मुझे जानते हैं। हो सकता है जिसने देखा हो वह पहचान भी गया हो!''
देवदास की सिट्टी-पिट्टी गुम गयी। समझ में नहीं आया क्या कहे! सकपकायी-सी आवाज़ में इतना ही पूछ सका, ''आखिर क्यों पारो! क्यों यह सब! ...बात क्या थी जो इतनी रात गए तुम्हें...?''वह आगे कुछ न कह सका और धम्म से बिस्तर पर बैठ गया। पारो चुपचाप उसे देख रही थी।
''मैं अपने लिए नहीं...! तुम तो इन नौकर-चाकरों की आदत से वाकिफ हो। ज़रा-सी बात का भी बतंगड़ बना देते हैं। तुम्हारे यहाँ आने की बात सुबह होते ही चारों तरफ फैल जाएगी। फिर क्या सफाई दोगी तुम? कैसे मुँह दिखा सकोगी?''
पारो तिलमिला गयी, ''देव दा, इसकी चिन्ता करने की तुम्हें ज़रूरत नहीं।'' उसने सिर झुका लिया।
देव अब तक संयत हो चुका था। बोला, ''पारो बात अब पहले-सी नहीं रही। तुम अब बड़ी हो चुकी हो। यहाँ आते तुम्हें लाज नहीं आयी?''
''देव दा, इसमें लाज आने की तो कोई बात नहीं।''
''जब लोगों को पता चलेगा तो...? क्या जवाब दोगी?''
पारो धीमे कदमों से देव के पास आयी। उसकी आँखों में एक अजीब परस्तिश-सी तैर रही थी। मीठी आवाज़ में बोली, ''क्या मैं नहीं जानती यह सब? ...लेकिन इन सबसे ऊपर मैं यह भी जानती हूँ कि तुम मेरी लाज रख लोगे। अगर इसका मुझे यकीन न होता देव दा तो मैं हरगिज यहाँ पाँव न धरती।''
''लेकिन मैं भी तो...'' देव रुक गया।
पारो उसकी तरफ प्रश्नार्थक नज़रों से घूर रही थी। उसकी सीधी आँखों की आँच देव से झेला न गया। उसने नज़रें फेर लीं।''तुम्हारा क्या है देव दा!'' पारो की आवाज़ में घुली मिठाई हवा होने लगी। ''बोलो न देव दा, रुक क्यों गये?''
लेकिन देव चुप ही रहा। पारो ही बोली, ''तुम्हारा क्या है, तुम तो मरद मानुष ठहरे। आज अगर मेरा यहाँ आना सब पर ज़ाहिर भी हो गया तो एक दिन, दो दिन, एक सप्ताह, हद-से-हद एक महीने में लोग भूल जाएँगे कि आधी रात कोई दुखियारी पारो अपने देव दा से मिलने उसके कमरे में चली आयी थी। और मेरी वजह से...'' पारो की आवाज़ दरकने लगी। उसने अपनी ठोढ़ी देव के घुटनों पर रख दी।
देव ने उसके बालों में उँगली फेरते हुए पुकारा, ''पारो!''
''अगर मेरी वजह से तुम्हारी ज़रा भी बदनामी होती है देव दा तो मैं गले में घड़ा बाँधकर पोखर में कूद...!''देव ने अपना हाथ पारो के होंठो पर रखकर आगे कुछ कहने से बरज दिया। पारो का चेहरा अँधेरे में था इसलिए देव को पता नहीं था वह रो रही है। जब उसके हाथों पर बूँदे गिरीं तो वह जैसे मचल गया, ''पारो! क्या तुम रो रही हो?''पारो की हिचकियाँ बँध गयीं। देव उसके कन्धे को थपथपाने लगा, ''ना पारो ना!''
पारो नहीं मानी, पूर्ववत रोती रही। देव ने कन्धे से पकड़कर उसे उठाना चाहा, ''पारो, ऊपर आओ। बगल में बैठो। आओ।''''नहीं देव दा, मुझे यहीं रहने दो। मुझे सारी जि़न्दगी यहीं रहना है, तुम्हारे चरणों के पास। बोलो देव दा, मुझे यहाँ थोड़ी-सी जगह दोगे?''
''मेरे अलावा क्या तुम किसी और से ब्याह नहीं कर सकती?''
पार्वती ने कुछ नहीं कहा। देव भी चुप। कमरे में शान्ति। दूर कहीं कुत्ते के भौंकने की आवाज़ कट-पिटकर आ रही थी। जब दीवार-घड़ी ने दो बजने का गजर दिया तो दोनों की तन्द्रा टूटी। सोच के बिखरे सिरों को समेटते हुए देव ने वहीं से कहना शुरू किया, जहाँ बातचीत खत्म हुई थी।''...तुम्हें पता है कि मेरे घरवाले इस रिश्ते के खिलाफ हैं?''
''सुना ऐसा ही है देव दा!''
देव चुप हो गया। थोड़ा साहस बटोरकर पूछा, ''फिर यह सब करने से क्या फायदा पारो? ...सुनो, इधर आओ।''
लेकिन पारो जैसे बीच मँझधार में हो और देव के पाँव पकड़कर ही किनारे पर पहुँचा जा सकता है, ऐसे उसने कसकर पाँव पकड़ रखा था और रोये जा रही थी। बोली, ''इतना सब मैं नहीं जानती।''
''लेकिन माँ-बाबूजी की मर्जी के बगैर...?''
''इसमें हर्ज ही क्या है?''
''लेकिन वे मुझे इस घर से बाहर निकाल देंगे, और ऐसा न भी हो तो वे बहू के रूप में तुम्हें यहाँ रहने नहीं देंगे। ...फिर मैं तुम्हें रखूँगा कहाँ?''
''मुझे बस यहीं रहना है, तुम्हारे चरणों में।''
फिर चुप्पी। लम्बी चुप्पी। लेकिन दोनों चुप रहकर भी जैसे एक निष्कर्ष तक पहुँच रहे थे। पारो हताश थी, देव शर्मसार।
घड़ी ने सुबह के चार बजाए। नौकर-चाकर उठने को होंगे। गरमियों में सुबहें जल्दी हो जाया करती हैं।
देवदास ने पारो को कन्धे से उठाते हुए कहा, ''पार्वती! चलो। आओ मैं तुम्हें घर तक पहुँचा आऊँ।''पारो के आँसू सूख चुके थे। चेहरे पर दृढ़ता। बोली, ''...और जो किसी ने देख लिया तो तुम्हारी बदनामी नहीं होगी?''
पारो के तंजिया तेवर की अनदेखी करते हुए देव ने कहा, ''अगर थोड़ी-बहुत बदनामी भी होती है तो कोई हर्ज नहीं।''
''ठीक है, तो चलो, छोड़ आओ।''
दोनों चुपचाप चल दिये।
कुणाल सिंह द्वारा मूल बंगला से किया गया 'देवदास' का यह अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ से पुस्तकाकार प्रकाशित है.
Tuesday, March 09, 2010
बांग्ला कविता
मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह
टेलीफोन
फोन करते करते रविरंजन सो गया है
चेन्नई में टेलीफोन के चोंगे के भीतर
रवि की पत्नी पुकार रही है कोलकाता से- रवि रवि
सात बरस का बेटा और तीन बरस की बेटी
पुकारते हैं- रवि रवि
अँधेरे बादलों से होकर, नसों शिराओं से होकर
आती उस पुकार को सुनते सुनते
रवि पहुँच गया है अपने
पिछले जनम की पत्नी, बच्चों के नंबर पे
याद है? याद नहीं?
पिछले जनम के टेलीफोन नंबर से तैरती आती है आवाज़
याद नहीं रवि? रवि?
मंगल ग्रह के उस पार से
सन्न सन्न करती उडती आती है
पिछले के भी पिछले जनम की पत्नी की आवाज़।
रवि तुम्हें नहीं भूली आज भी
याद है मैंने ही तुम्हें सिखाया था पहली बार
चूमना। रवि याद नहीं तुम्हें?
टेलीफोन के तार के भीतर से
रिसीवर तक आ जाती है एक गौरैय्या
रवि के होठों के पास आकर सबको कहती है
याद है, याद है। रवि को सब याद है।
जरा होल्ड कीजिये प्लीज़, रवि अभी दूसरे नंबर पर बातें कर रहा है
अपने एकदम पहले जनम के पत्नी बच्चों से
जिसने उसे सिखाया था कि कैसे किसी को प्यार करते हें
सात सात जन्मों तक।
हैंगर
जब भी उसके पास करने को कुछ नहीं होता था
या नींद नहीं आती थी लाखी कोशिशों के बावजूद
तो वह अलमारी खोल के खड़ा हो जाता था।
अलमारी खोल के घंटों वह देखता रहता था
अलमारी के भीतर का संसार।
दस जोड़ी कमीजें, पतलून उसे देखते थे, यहाँ तक कि
अलमारी के दोनों पल्ले भी अभ्यस्त हो गए थे उसके देखने के।
अंततः, धीरे धीरे अलमारी को उससे प्यार हो गया। एकदिन ज्यों ही उसने
पल्ले खोले, भीतर से एक कमीज़ की आस्तीन ने उसे पकड़ लिया
खींच लिया भीतर, अपने आप बंद हो गए अलमारी के पल्ले, और
विभिन्न रंगों की कमीजों ने उसे सिखाया कि कैसे
महीने दर महीने
साल दर साल, एक जनम से दूसरे जनम तक
लटका रहा जाता है
सिर्फ एक हैंगर के सहारे।
हाथ
अपने हाथों के बारे में हमेशा तुम सोचते थे
फिर एकदिन सचमुच ही तुम्हारा हाथ तुमसे गुम गया।
हाय, जिसे लेकर तुमने बहुत कुछ करने के सपने पाले थे गालों पे हाथ धरकर
पागलों की तरह दौड़ धूप किया, न जाने कितने दिन कितने महीने कितने साल-
पागलों की तरह सर पीटते पीटते फिर एक दिन तुम्हें नींद आ गयी।
बहुत रात गए तुम नींद से जागकर खिड़की के आगे आ खड़े हुए
खिड़की के पल्ले खुल गए
अद्भुत चांदनी में तुमने देखा एक विशाल मैदान में सोए हें
तुम्हारे दोनों हाथ। एकसार बारिस हो रही है हाथों के ऊपर, और
धीमी धीमी आवाज़ करते हुए घास उग रहे हें हाथों के इर्द गिर्द।
कान
एक कान देखना चाहता है अपने जोड़ीदार दूसरे कान को
एक कान कहना चाहता है दूसरे कान से न जाने कितनी बातें।
कभी मुलाक़ात नहीं होती दोनों की, बातें एक कान में बहुत गहरे धंसकर
दूसरे कान की गहराई से निकल पड़ती है, और अंततः
हवाओं में घुल मिल जाती है। दुःख और शर्म से
कुबरे होते होते एक दिन कान झड जाते हें, गिर पड़ते हें रास्तों में कहीं। पृथ्वी पे
इस तरह शुरू होती है कानहीन मनुष्यों की प्रजाति।
आज एक कानहीन आदमी का एक कानहीन लड़की से शादी है,
पसरकर बैठे हें देखो, उनके कानहीन दोस्त यार
कानी ऊँगली डुबाकर दही खाते खाते
न जाने कौन सी बात पे
हंस हंस कर दोहरे हुए जा रहे हें
रो रहे हें, सो रहे हें बिस्तरों पर।
औरों के बहाने
सुशील सिद्धार्थ
शशिभूषण द्विवेदी की कहानी 'छुट्टी का दिन' एक बेरोजगार व्यक्ति की मध्यवर्गीय बुनियादी दिक्कतों का संस्मरण है। ठीक तरह से लिखी यह कहानी 'नयी कहानी' के बाद उभरे दर्जनों कहानी आन्दोलन में लिखी गयी बहुत सारी कहानियों की याद दिलाती है। शशि से उम्मीद कुछ ज्यादा है। कहानी के अंत में माल कल्चर और फुटकर दुकानदारों की तुलना कर नए आर्थिक रिश्तों की तरफ संकेत किया गया है। मुझे लगता है कि 'स्पेस' के दबाव में कहानी के कुछ डिटेल्स डिलीट कर दिए गए हैं। इन विवरणों के अभाव में भी शशि की यह कहानी अच्छी है, महत्त्वपूर्ण कहने में हिचक रहा हूँ।
Monday, March 08, 2010
पुरा पड़ोस
गिर्गिस शौकरी
अंग्रेजी से अनुवाद : कुणाल सिंह
प्यार
खिड़की को देखकर बादल हंस पड़ा है
दोनों बिस्तरे पर निढाल हो पड़ते हैं
धीरे धीरे अपने कपड़े उतारते हैं
देखो
बिस्तरे की सिलवटों में वे टूट गिरे हैं
बिस्तर उनकी निझूम नींद को अगोर रहा है
बरजता है अलमारी में रह रहे कपड़ों को
कि आवाज़ मत करो
दीवारें पडोसिओं से चुगली कर
भीतर का भेद बताती हैं
और छतें नयोता देती हैं आकाश को
कि आओ घर के सब मिल जुल बैठें, बातें हों
दीवारों की देह से एक बहुत बड़ी हंसी छूटकर भाग रही है
जल्दी से पकड़ो
हमें उसे पकड़ लाना ही होगा
वरना पूरी दुनिया हँसते हँसते फट पड़ेगी।
पूर्वसूचना
Saturday, March 06, 2010
हिंदी कहानी
छुट्टी का दिन
शशिभूषण द्विवेदी
पूरा हफ्ता बीत जाता है छुट्टी के दिन का इंतजार करते और जब छुट्टी का दिन आता है तो मन और भी आतंकित हो जाता है। पूरा दिन एक ऊब और बेचैनी के साथ कैसे कटेगा-सोचते ही मन और भी झल्ला उठता है। छुट्टी के दिन की दिनचर्या भी अजीब होती है। देर तक सोने की इच्छा के बावजूद नींद लगभग समय पर ही खुलती है। कुनमुनाया, अलसाया...थोड़ी देर और सो लेने की कोशिश में थोड़ा सा वक्त और जाया हो जाता है। आखिर न चाहते हुए भी उठना ही पड़ता है। हाथ-मुंह धोकर ट्रैक सूट पहनता हूं। देखता हूं पत्नी अभी तक मिट्टी के लोंदे की तरह बिस्तर पर बिखरी पड़ी है। उसे पता है कि आज छुट्टी का दिन है सो वह आज देर तक सोएगी। मन करता है कि उसके फैले हुए नितंबों पर एक जोरदार लात मारूं मगर फिर खुद को संभाल लेता हूं। जानता हूं कि अब चाहे अनचाहे सारा दिन इसी के साथ गुजारना है सो सुबह-सुबह उसे चूमने में ही भलाई है। मैं उसे चूमता हूं लेकिन सुबह-सुबह उसके मुंह की बास मेरे भीतर एक अजीब तरह की मितली पैदा कर देती है। मन करता है कि उसकी बिखरी हुई देह पर उल्टी कर दूं लेकिन कर नहीं पाता। बहुत सी चीजें हम चाहकर भी नहीं कर पाते। जैसे हम चाहकर भी मंहगाई को नहीं रोक पाते। हां, मंहगाई से याद आया-दो महीने हो गए बिजली का बिल जमा किए। इस महीने जमा न किया तो कनेक्शन ही कट जाएगा। सोचा था इस छुट्टी में करा ही दूंगा, हर बार टल जाता है। हालांकि बिजली पानी का बिल जमा कराना भी किसी सिरदर्द से कम नहीं। छुट्टी वाले दिन वैसे भी आधे ही दिन बिल जमा होते हैं। फिर इतनी लंबी लाइन लगती है कि पूछो मत। समझिए कि आधा दिन तो इसी में गया। मैं घड़ी देखता हूं। सुबह के सात बज रहे हैं। मैं पत्नी को घर में सोता छोडक़र बाहर घूमने निकल जाता हूं। सुबह घूमने के बहाने एक पंथ दो काज हो जाते हैं। दरअसल घर खर्च कम करने की कवायद में दो तीन महीने पहले पत्नी ने घर आने वाला अखबार बंद करा दिया। पत्नी को लगता है कि अखबार खरीदना फिजूलखर्ची है और अखबार पढऩा समय की बर्बादी। आखिर होता ही क्या है अखबारों में आजकल-वही रोज की बासी खबरें-चोरी, छिनैती, बलात्कार, घोटाले...। लेकिन सुबह-सुबह अखबार पढऩे की अपनी बरसों पुरानी आदत मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया। सुबह सुबह अखबार न पढ़ो तो लगता है कि दिन की ठीक से शुरुआत ही नहीं हुई। पहले मैं सुबह सुबह बाथरूम में अखबार लेकर घुस जाता था और नित्यकर्म करते हुए पूरा अखबार चाट लेता था। फिर तरोताजा होकर बाहर आता था। तब तक पत्नी भी चाय बनाकर ले आती थी और हम इत्मीनान से चाय पीते थे। लेकिन अब वे सब बीते दिनों की बातें हो गईं। अब तो सुबह टहलने के बहाने चाय की दुकान पर खड़े खड़े ही अखबार भी पढ़ लेता हूं। हालांकि शुरू शुरू में खाली-पीली अखबार पढऩे पर चायवाला भी मुझे बहुत तिरस्कारपूर्ण नजरों से घूरता था और बार बार आकर पूछ जाता था कि साहब चाय चलेगी। मेरे मना करने पर वह बुरा सा मुंह बना लेता। कभी कभी तो एेसा भी हुआ कि उसने सीधे सीधे मुझसे कह दिया कि साहब गाहकों को बैठने दीजिए। धंधे का टाइम है। आपका क्या है, आप तो मुफत में अखबार पढक़र चले जाएंगे। धंधा तो हमारा खोटा होगा। उसकी एेसी बातों का मुझे सचमुच बहुत बुरा लगता था। इस बुरे लगने के चलते ही अब कभी कभी मैं उसे हाफ चाय या सिगरेट का आर्डर दे देता हूं और बदले में वह मुझे चुपचाप अखबार पढऩे देता है। हालांकि हाफ कप चाय के बदले घंटे भर उसे मेरा अखबार पढऩा अब भी अखरता है लेकिन बेशर्मी से मैंने अब उसकी ओर ध्यान देना छोड़ दिया है।चाय की दुकान पर सबसे पहले मैं अपना राशिफल देखता हूं, फिर मौसम का हाल। राशिफल में लिखा है कि आज कोई शुभ सूचना मिलेगी और धनोपर्जन होगा। मैं सोचता हूं कि आज महीने की बीसवीं तारीख है। धनोपर्जन की तो कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती बल्कि खर्च ही खर्च होना है। यही हाल मौसम के हाल का है। उसमें लिखा है आसमान साफ रहेगा लेकिन कहीं कहीं हल्की बूंदाबांदी हो सकती है। मगर यहां तो सुबह से ही जबरदस्त बारिश के आसार नजर आ रहे हैं। अखबार में और भी तमाम खबरें हैं-मसलन पेट्रोलियम मंत्री ने पेट्रोल और डीजल के दामों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी के संकेत दिए हैं और कृषि मंत्री का कहना है कि मंहगाई रोकने के लिए उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। केंद्र इसके लिए राज्य सरकारों को दोष दे रहा है और राज्य सरकारें केंद्र को कोस रही हैं। बयान, बयान और बयान। पूरा अखबार नेताओं और मंत्रियों की बयानबाजी से अटा पड़ा है। मैं सिगरेट के साथ हाफ चाय सुडक़कर अखबार रख देता हूं और सोचता हूं अब सिगरेट भी छोड़ ही देनी चाहिए। सेहत और खर्च दोनों लिहाज से यह एक अच्छा विचार है। हालांकि यह अच्छा विचार इससे पहले भी मुझे सैकड़ों बार आया है लेकिन उस पर अमल करने का विचार रोज अगले दिन के लिए टल जाता है।मैं देखता हूं घड़ी में आठ बज रहे हंै और आसमान में बादल घने हो रहे हैं। मुझे जल्द ही नहा-धोकर बिजलीघर जाना होगा वरना बारिश से सब गुड़ गोबर हो सकता है। मैं तेज कदमों से घर की ओर लौट पड़ता हूं। घर में पत्नी रसोई में उठापटक कर रही है। यह उसकी रोज की खीझ है जो रसोई में बर्तनों पर निकलती है जिसे मैं रोज की तरह ही सुनकर अनसुना कर देता हूं। लेकिन तभी उसकी खीझभरी आवाज आती है-‘गैस खत्म हो गई है। कितने दिन से कह रही थी बुक करवा दो...लेकिन कोई सुने तब न...’-‘गैस के दाम भी बढ़ गए हैं।’ मैं कहता हूं।-‘तो?’-‘तो...तो कुछ नहीं। आज बिजलीघर जाना है बिल जमा कराने।’-‘पहले गैस का कुछ इंतजाम करो।’मैं नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाता हूं। पत्नी की बड़बड़ाहट नल के पानी के शोर में गुम हो जाती है। मेरे नहाकर बाथरूम से बाहर आने तक पत्नी ने नाश्ता तैयार कर दिया है। नाश्ता करते हुए मैं गुनगुनाने लगता हूं-गिलोरी बिना चटनी कैसे बनी...। लेकिन पत्नी मुझे अनसुना करते हुए बड़बड़ा रही है जैसे मैं उसे अनसुना करते हुए गुनगुना रहा हूं।-‘सिलेंडर झुकाकर थोड़ी सी गैस निकल आई लेकिन जैसे भी हो दोपहर तक कहीं से भी गैस का बंदोबस्त करो वरना खाना भी नहीं बन पाएगा। कितनी बार कहा कि दूसरा सिलेंडर बुक करवा लो। कभी अचानक गैस खत्म हो जाए तो ये दिन तो न देखना पड़े॥मगर सुनता कौन है...’-‘अब ठीक है..बिजलीघर जाते हुए बुक करवाता आऊंगा।’-‘बुक वुक नहीं...गैस आज ही आनी चाहिए और अब्भी।’ मैं कोई जवाब नहीं देता और तैयार होकर घर से निकल पड़ता हूं। दस बज गए हैं। बाहर हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई है। शुक्र है कि मौसम को देखते हुए छतरी साथ लेता आया था। बिजलीघर पहुंचते पहुंचते बारिश और भी तेज हो गई लेकिन बिल जमा कराने वालों की लाइन में कहीं कोई कमी नहीं आई। बिल काउंटर के पास कीचड़ ही कीचड़ हो गया है। बारिश की फुहारों से बचने के लिए लोग ठेलमठेल मचाए हैं। लाइन इतनी लंबी है कि लगता नहीं कि दो घंटे बाद भी मेरा नंबर आ पाएगा। काउंटर क्लर्क इतना सुस्त है कि एक एक आदमी पर दस दस मिनट लगा रहा है। लोग कुनमुना रहे हैं और सरकारी कर्मचारियों की काहिली को कोस रहे हैं। बीच बीच में कोई काउंटर क्लर्क का जान पहचान वाला आ जाता है तो उसका काम आउट आफ वे जाकर भी हो जाता है जिससे लाइन में लगे लोगों का गुस्सा बढ़ जाता है और हल्ला शुरू हो जाता है। हालांकि इस हल्ले का कोई असर नहीं होता। बस लोग बड़बड़ाते रहते हैं और जान पहचान वाले या दबंग लोग लाइन को धकियाकर अपना काम करा ले जाते हैं। मैं घड़ी देखी साढ़े ग्यारह होने को आए। अब भी पांच-सात लोग लाइन में हैं। मेरी बेचैनी बढ़ जाती है। लगता नहीं कि आज मेरा नंबर आ पाएगा। एक एक पल भारी होता जा रहा है। ग्यारह बजकर पचास मिनट हो गए हैं। दो लोग अब भी मेरे आगे हैं। मैं हड़बड़ी में हूं-भइया जरा जल्दी करो। काउंटर क्लर्क घुडक़र मेरी ओर देखता है। उसकी घुडक़ी में एक हिकारत है।-‘काम ही कर रहा हूं। कोई मक्खी तो मार नहीं रहा।’ जानता हूं कि क्लर्क से बहस करने का कोई मतलब नहीं, वरना अभी काउंटर बंद कर देगा। बहरहाल, मेरा नंबर आखिरकार आ ही गया। घड़ी में अभी बारह बजने में पांच मिनट बाकी हैं। मैं जैसे ही बिल की रसीद उसकी ओर बढ़ाता हूं, वह पेशाब का बहाना करके उठ जाता है। मैं उसकी इस हरकत पर खीझ उठता हंू पर कुछ कह नहीं पाता। पांच मिनट बाद क्लर्क लघुशंका से निपटकर लौटता है और एेलान कर देता है कि टाइम खत्म हो गया है, अब कल आना। मेरा दिल धक से रह जाता है। दो घंटे की मेहनत पर पानी फिरता नजर आता है। अब मैं याचना की मुद्रा में आ गया हूं।-‘दो घंटे से खड़ा हूं सर...प्लीज जमा कर लीजिए बिल..वरना..’-‘वरना क्या? हम भी दो घंटे से काम ही कर रहे हैं, कोई झख तो नहीं मार रहे। इतनी ही जल्दी थी तो समय पर क्यों नहीं आए?’-‘प्लीज सर...बड़ी मुश्किल से आ पाया हूं...मेहरबानी होगी...’ मेरे चेहरे पर जाने कैसा तो दीनता का भाव है कि क्लर्क थोड़ा पसीजने लगता है।-‘अच्छा लाओ...लेकिन बाकी सब कल आएं।’ मेरी जान में थोड़ी जान आती है। आखिरकार मेरा बिल जमा हो जाता है मगर पीछे से फिर वही शोर शुरू हो जाता है-प्लीज सर...प्लीज सर... लेकिन तब तक खिडक़ी बड़ी बेरहमी से बंद हो जाती है। मैं खुश हूं कि आखिरकार मेरा बिल जमा हो गया। मुझमें एक विजेता का सा भाव घर करने लगता है।बाहर बारिश और भी तेज हो गई है। घड़ी साढ़े बारह बजा रही है। अब मुझे फौरन गैस स्टेशन की ओर भागना होगा वरना घर में खाना नहीं बनेगा। गैस स्टेशन पहुंचते पहुंचते एक डेढ़ बज जाते हैं मगर बारिश थमने का नाम नहीं लेती। मैं लगभग आधे से ज्यादा भीग चुका हूं। स्टेशन पहुंचने पर पता चलता है कि आज तो छुट्टी का दिन है। ‘हे भगवान, अब क्या होगा?’ मेरे हाथ-पांव फूलने लगते हैं। मैं आस-पास लोगों से पूछता हूं। रिरियाता हूं। घर में गैस खत्म होने का हवाला देता हूं। मेरे पेट में चूहे भी कूदने लगे हैं। घर में पत्नी भी भूखी होगी, मैं सोचता हूं। तभी बीड़ी का सुट्टा लगाता हुआ एक दलाल टाइप आदमी मेरे पास आता है। वह घूरकर एक नजर मेरी ओर देखता है।-‘गैस चाहिए?’-‘हां।’-‘ब्लैक में मिलेगा। तीस परसेंट एक्स्ट्रा।’-‘ये तो बहुत ज्यादा है। कुछ कम में नहीं होगा?’-‘लेना है तो बोलो वरना रास्ता नापो।’ मुझे पत्नी का खीझ और हताशा से भरा चेहरा याद आ जाता है। मैं फौरन हां कह देता हूं।-‘कितना लगेगा?’-‘सात सौ रुपये।’ मैं पर्स टटोलता हूं। पर्स में सिर्फ पांच सौ रुपये हैं। मैं पांच सौ रुपये उसे सौंप देता हूं।-‘सिलेंडर घर पहुंचाओ। बाकी के पैसे घर पर दूंगा।’-‘सिलेंडर घर पहुंचाने के पचास रुपये एक्स्ट्रा लगेंगे।’ वह मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहा है। मैं कहता हूं-‘ये तो ज्यादती है।’-‘ज्यादती वादती कुछ नहीं। एक तो छुट्टी का दिन, ऊपर से मौसम देख रहे हैं।’ मैं झल्लाता हूं मगर कुछ नहीं कर पाता। फौरन सिलेंडर घर पहुंचाने को कहकर उसके साथ चल देता हूं। घड़ी में दो बज रहे हैं। बारिश अब भी रुकने का नाम नहीं ले रही। हालांकि गैस मिल जाने से मेरे भीतर एक सुकून सा आ गया है। अब बारिश से भीगी मिट्टी की सोंधी गंध मुझे अच्छी लगने लगी है।सिलेंडर के साथ जैसे-तैसे मैं घर पहुंचता हूं। ढाई बज चुके हैं। पत्नी का पारा सातवें आसमान पर है। मैं उसकी ओर ध्यान नहीं देता और गैसवाले का बकाया भुगतान कर उसे रवाना कर देता हूं। पत्नी भी बिना मुझसे कुछ कहे सिलेंडर रसोई में रखवा लेती है और खाना बनाने जुट जाती है। कुकर की सीटी और खाने की खुशबू से मेरी भूख और भी बढ़ जाती है। इस बीच मैं रूठी पत्नी को मनाने की योजना बनाने लगता हूं। साढ़े तीन तक खाना बनकर तैयार हो जाता है और मैं झटपट खाने बैठ जाता हूं। खाना आज कुछ ज्यादा ही स्वादिष्ट लग रहा है। मैं भरपेट खाकर एक जोरदार डकार लेता हूं। पत्नी भी चुपचाप खाना खाकर बर्तन समेटकर रसोई में चली जाती है। मैं आराम की मुद्रा में थोड़ी देर टीवी देखने के लिए टीवी ऑन करता हूं मगर बिजली गुल है। कमबख्त बिजली में भी इन दिनों सात-आठ घंटे की कटौती होने लगी है। रोज रोज के धरना प्रदर्शन के बावजूद बिजली की हालत इन दिनों बद से बदतर होती जा रही है। अभी चार दिन पहले गुस्साए लोगों ने बिजली विभाग के एसडीओ की उसके दफ्तर में सरेआम पिटाई ही कर दी। मगर सरकार के कान पर जूं रेंगने का नाम नहीं लेती। हारकर मैं बिस्तर पर लौटकर लेट जाता हूं। हालांकि नींद फिर भी नहीं आती। मैं बार-बार घड़ी देखता हूं। साढ़े चार बज चुके हैं। मैं पत्नी को मनाने की तरकीबें सोचता हूं और उठकर रसोई में चला आता हूं जहां पत्नी चाय बना रही है। इस बेचारी को छुट्टी के दिन भी आराम नहीं सिवाय सुबह थोड़ी देर ज्यादा सो लेने के। मैं उसे पीछे से अपनी बाहों में भर लेता हूं। वह झुंझला जाती है।-‘क्या कर रहे हो...छोड़ो...खिडक़ी खुली है कोई देख लेगा।’-‘देखता है तो देखे...अब तो खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों।’ मैं रोमांटिक मूड में गुनगुनाने लगता हूं।-‘क्या बात है..बड़ी मस्ती के मूड में हो।’ पत्नी की आंखों में शरारत है। उसका गुस्सा काफूर हो उठा है। मैं उसके इसी अंदाज पर रीझ उठता हूं। तमाम परेशानियां उसकी एक मुस्कान के आगे बौनी हो जाती हैं। मैं झट से उसके होठों को चूम लेता हूं और उसे बाहों में भरे भरे नाचने लगता हूं-‘छुट्टी का दिन है कि मस्ती में हैं हम...मस्त मस्त मस्ती..याहू्...’ पत्नी प्यार से मुझे झिडक़ देती है,‘अब बचपना छोड़ो और चलो चाय पियो।’ मैं चाय का कप लिए उसके साथ ड्राइंगरूम में आ जाता हूं। अब तक बिजली भी आ गई है। हम टीवी देखते हुए चाय पीने लगते हंै। शाम के साढ़े पांच बज चुके हैं। पत्नी बाजार चलने की फरमाइश करने लगती है। मैं उसका मूड खराब करना नहीं चाहता। हालांकि मन ही मन आज हुए खर्च का हिसाब लगाने लगता हूं। एक ही दिन में कुल चार हजार की चपत लग चुकी है। ‘खैर..मौसम खुशनुमा है और छुट्टी का दिन खराब नहीं करना है।’ मैं सोचता हूं और फौरन बाजार के लिए तैयार होने लगता हूं। हम बाजार में हैं। शाम के सात बज रहे हैं। अंधेरा घिरने लगा है। बाजार में चारों ओर जगमगाहट है। लगता है जैसे मौसम का लुत्फ लेने पूरा शहर घरों से बाहर निकल आया है। नए-नए जोड़े हाथों में हाथ में डाले इत्मीनान से टहल रहे हैं या आइसक्रीम खा रहे हैं।-‘कितने दिन हुए इतने अच्छे मौसम में हमें बाजार आए...न।’ पत्नी कहती है और मैं उसकी हां में हां मिला देता हूं। टहलते टहलते हम एक शापिंग मॉल के सामने आ जाते हैं। मॉल रंग बिरंगी रोशनियों में जगमगा रहा है और अपनी भव्यता और वैभव से पूरे शहर को मुंह चिढ़ा रहा है। शहर में पिछले दो साल में पांच मॉल और मल्टीप्लैक्स खुले हैं और सब एक से बढक़र एक। इस बीच रेहड़ी और खोमचे वालों की एक पूरी दुनिया ही उजड़ गई है और साप्ताहिक हाट बाजार का हाल बद से बदतर हो गया है। मॉल के आस पास रेहड़ी और खोमचे लगाने की सख्त मनाही है और कभी भूल से भी किसी ने एेसा दुस्साहस कर लिया तो उसके लिए पुलिस का जालिम डंडा तो है ही। बहरहाल, मॉल के आगे लंबी लंबी गाडिय़ों की लाइन लगी है और उसमें चढ़ते उतरते लोग मुझमें बेतरह हीनभावना पैदा कर रहे हैं। वे किसी दूसरी दुनिया से आए हुए लगते हैं जिनकी जेबें नोटों से भरी हुई हैं और जिनके चेहरे पर कहीं किसी दु:ख, परेशानी या मुश्किल के निशान नहीं हैं।मॉल के भीतर जगमग रोशनियों के बीच वस्तुओं का पूरा बाजार है जिनके ऊपर उनकी कीमतों के टैग लगे हैं। यहां हर चीज ब्रांडेड है और ब्रांड की ही कीमत है। लोग यहां चीजें अपनी जरूरत के हिसाब से नहीं, ब्रांड के हिसाब से लेते हैं। एक ब्रांडेड जींस की कीमत चार हजार, जूता सात हजार और बित्ते भर टॉप दो हजार। मेरे बगल में खड़ी एक अल्ट्रा मॉड लडक़ी झटपट एक जींस और टॉप उठाती है और उन्हें आजमाने के लिए ट्रायल रूम में घुस जाती है। दो मिनट बाद जब वह बाहर आती है तो मैं देखता हूं उन कसे हुए कपड़ों में उसका शरीर जैसे फट पडऩे का आतुर है। डीप नेक टॉप और लो हिप जींस में उसका शरीर और भी दिलकश हो उठा है। मैं पत्नी से नजरें बचाकर उसके शरीर के खुले गोपन अंगों को घूरने लगता हूं और वह क्रेडिट कार्ड से पेमेंट कर बेपरवाही से टहलते हुए मॉल से बाहर निकल जाती है। पत्नी वहां तमाम चीजों को ललचाई निगाहों से उठा उठाकर देख रही है फिर उनकी कीमतें पढक़र मायूस हो जाती है और चुपचाप उन्हें यथास्थान रख देती है। कुछ जरूरी चीजों की खरीदारी के बाद हम जगमग रोशनियों के उस संसार से बाहर आ जाते हैं। घड़ी में साढ़े आठ बज रहे हैं। रास्ते में गोलगप्पे खाने के बाद अपनी तमाम तमाम अधूरी इच्छाओं के साथ हम घर की ओर लौट पड़ते हैं। आखिर सुबह दफ्तर के लिए जल्दी उठना भी तो है।
शशिभूषण द्विवेदी हिंदी की युवा पीढी के जाने माने कथाकार हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित हैं। एक कहानी संग्रह : ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियां। पिछले कई सालों के बाद उनकी यह कहानी : 'छुट्टी का दिन'। संपर्क :405, सुपरटेक अपार्टमेंट, 5/५3, सेक्टर-५, राजेंद्र नगर, साहिबाबाद, (गाजियाबाद) उ।प्र.
दो दुस्समाचार
दूसरी खबर और भी ज्यादा दुखी कर जाने वाली ये थी कि हिंदी के युवा कथाकार और साथी ब्लोगर चन्दन पाण्डेय के लैपटॉप को कुछ असामाजिक तत्वों ने छीन लिया। चन्दन से मेरी बात हुई तो पता चला कि कोई दस-बारह अप्रकाशित कहानियां और कुछ नोट्स उस लैपटॉप में थे। किसी भी रचनाकार के लिए उसकी कहानियों का खो जाना कितना भयावह होता है, ये खुद एक रचनाकार होने के नाते मैं समझ सकता हूँ। जब बात हो रही थी तो चन्दन जालंधर में था, और शुक्र है कि उस वक़्त मेरे एक मित्र देशराज काली के साथ था। काली का यह कहना कि आप निश्चिंत रहें, चन्दन का मैं ख्याल रखूँगा, ने मुझे थोडा आश्वस्त किया। लेकिन मेरी ये आश्वस्ति क्या चन्दन के थोडा भी काम आ सकती है? झपटमारों को क्या मालूम उनहोंने कितना जघन्य काम किया है!