Friday, June 25, 2010

दूसरे सीजन के सपने
रघुराई जोगड़ा
(रघुराई की यह कविता कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाली एक पत्रिका "निशान" में छपी थी.
युवा कवि, कहानी भी लिखते रहते हैं.
फिलहाल भारतीय भाषा परिषद् में नौकरी करते हैं )

तब हम किसान थे
हम बो देते थे
खेतों में अपने जीवन के
तमाम रंगीन सपने
और बरसात की पहली फुहार में
अंखुआ जाते थे, वे
रंगीन सपने,

तब हम खेतों से भागते
आते थे घर
और बैलों को सनी
चलाती पत्नी के कानों में
कह देते थे चुपके से
अन्खुआये सपनों की बात
(किसी अत्यंत गोपनीय रहस्य की तरह)
और हमारे बच्चे, एक दूसरे की
आँखों में झांक कर
समझ जाते थे सबकुछ
वे मुस्कुराते हुए पीठ पर पटरी लादे
चल देते थे पाठशाला.

फिर कुछ दिनों बाद
हमारे लहलहाते हरे सपनों को
मार जाते पाला, सूखा या बाढ़
और हम चुपके से
रात में घर आकर ओसारे में
निढाल पड़ जाते थे.
पत्नी जान जाती थी
हमारे सपनों के मरने की बात
बच्चे सुबह चले जाते थे
भटठा पर ईंट पाथने
पत्नी बबुआनों की गरूआरी में
और हम कलकत्ता,
दूसरे सीजन के सपनों की तलाश में

8 comments:

सुभाष नीरव said...

बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता ! ऐसी कविता कभी कभी ही इधर देखने -सुनने को मिल पाती है। बहुत खूब!

Anonymous said...

Very nice poem. MANY WISHES.

Bimlesh Tripathi said...

Achhi kavita.........Raghurai ko badhai...bhasha setu ke mitron ko dhanyavaad...

NC said...

KAVITA ACHCHI HAI.

पारुल "पुखराज" said...

padhvane ka shukriyaa ..

arun hota said...

Pahli baar bhasha setu padhkar achha laga, prasanna hua.
Wah jee kya kahna !

arun hota

संदीप प्रसाद said...

अच्छी कविता है। रघुराई भाई को बधाई!

संदीप प्रसाद said...

अच्छी कविता है। रघुराई को बधाई!