हम जब पढ़ रहे होते है तो अपने भौतिक जीवन के समानांतर दरअसल एक दूसरी दुनिया भी गढ़ रहे होते हैं। उस गढ़ी दुनिया में फूल, बारिशें, लोग चौराहे, दुख-दर्द सब होते हैं, और हकीकत की ही तरह जीवंत भी। मतलब ‘कैरेक्टर्स आल्सो ब्रीद एंड फील’। ‘भाषासेतु’ के इस नए स्तंभ में विश्व साहित्य के ऐसे यादगार किरदारों पर लिखे जाने की योजना है। जिसकी पहली किस्त में ‘लीविंग लीजेंड’ मार्केस के सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ की नायिका ‘उर्सुला’ पर लिख रहे हैं अनिल। 'अनिल' बिना लाग लपेट के सीधी बात करने वाली प्रजाति के तेज तर्रार युवा पत्रकार हैं, साहित्य से भी खासा लगाव रखते हैं। ‘नए साल की शुरुआत नई चीज़ के साथ’ करने की हमारी सोच को कार्यरूप देने में सहयोग के लिए अनिल का आभार। सभी पाठकों को ‘भाषासेतु’ की तरफ से नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।
उर्सुला : रौशन ख़यालों की बेमिसाल जिंदगी
विश्व साहित्य में ऐसे कई पात्र हैं जिनकी नायाब विशेषताएं रचना को विलक्षण बनाती हैं. पात्रों की हाज़िर जबावी पाठकों को न सिर्फ़ विस्मित करती हैं, बल्कि विपत्तियों और निपट अकेलेपन में भी जीवन के प्रति उनकी लगन देखते बनती है. भारी मुश्किल क्षणों और प्रसंगों में आप उनकी सहजता, दृढ़ता और धैर्य से मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते. पात्रों के जीवन मूल्य की ऐसी अनोखी विशेषताएं किसी रचना को यादगार बनाती हैं. इन पात्रों के ज़रिए समय और समाज के वितान को पाठक गहराई से महसूस करते हैं. ऐसे पात्र रचना को हमेशा, और कभी भी, पठनीय और प्रासंगिक बनाते हैं.
नोबल पुरस्कार से सम्मानित कोलंबिया के सर्वकालिक लेखक गैब्रियल गर्सिया मार्क्वेज़ (दोस्ताना नाम, गाबो) का उपन्यास ’एकांत के सौ वर्ष’ उनकी सर्वाधिक चर्चित रचनाओं में प्रमुख है. यह उपन्यास लैटिन अमरीका के मिथकीय आख्यानों और स्मृतियों का पुनर्लेखन है.
माकान्दों इतिहास की तारीखों में स्थापित कोई काल्पनिक नगर है जिसके संस्थापक खोसे अर्कादियो बुएनदिया साहस और खोजी मिज़ाज के धनी व्यक्तित्व हैं. उनकी चीज़ों और घटनाओं के बारे में ज्ञान हासिल करने की अलहदा ललक ने मकान्दों का एक अलग और अनन्य तेवर निर्मित किया है. मकान्दों नगर में बहुत कम समय में ही सुव्यवस्था क़ायम कर ली गई है. वहां नागरिकों के घर ऐसी जगह निर्मित किए गए जहां से सभी नदी तक पहुंच सकते हों और गलियों की क्रम व्यवस्था इस सूझ-बूझ से बनाई गई कि गर्मी के मौसम में किसी एक के घर में दूसरे से ज़्यादा धूप न आती हो. मकान्दों के संस्थापक खोसे अर्कादियो बुएनदिया के इस परिश्रमी (और कुछ मायनों में एक हद तक सनकी भी) मिज़ाज की साथी हैं, उनकी पत्नी उर्सुला इगुआरान जो ’एकांत के सौ वर्ष’में सबसे जुदा नज़र आती हैं. वह पति की अजीबोग़रीब हरकतों को सही, नियंत्रित दिशा देने के बेमिसाल काम करती हैं.
’उर्सुला की काम करने की क्षमता अपने पति जितनी ही थी. फुर्तीली, छरहरी और गंभीर, अटूट धैर्यवाली वह स्त्री, जो आजीवन एक पल भी चैन की सांस लेते नहीं देखी गई थी, अपने कामों से हर जगह मौजूद रहती. भोर से लेकर गई रात तक.’ अपने झालरदार लंहगे की हल्की सरसराहट लिए वह खोसे बुएनदिया की अजूबी हरकतों को भी परखती हैं.
खोसे अर्कादियो बुएनदिया अनजाने समुद्रों को पार करने, निर्जन प्रदेशों के दौरे करने और अपने उपकरणों के प्रयोग और संचालन में मसरुफ़ रहने वाले इंसान हैं. इन सक्रियताओं की वजह से कई बार वे पारिवारिक दायित्वों तक को भूल जाते हैं. उनके अभियानों के बारे में उर्सुला यह भलीभांति समझती है कि वे बंजारों के प्रभाव में आकर ऐसे कर रहे हैं. ये वे बंजारे थे जो कुछेक सालों के अंतराल पर मकान्दों आते और विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों को बजाते हुए आश्चर्यजनक खोजें दिखाने की मुनादी करते. खोसे अर्कादियो की इन बंजारों से महान उपलब्धियों वाली दोस्ती की शुरूआत होती है. और वे इनके प्रभाव में रोमांचक, असामान्य आविष्कारों की बाज़ीगरी के क़ायल हो जाते हैं और अपने घर में उनके प्रयोगों के परीक्षण दोहराने के लिए एकांत चुन लेते हैं.
उर्सुला परिवार और बच्चों के भविष्य के बारे में चिंतित है. कई दिनों की बेगानगी के बाद, अपनी खोजी यंत्रणाओं का बोझ उतारने के लिए बुएनदिया जब एक दिन बुख़ार की हालत में बच्चों के सामने अपनी खोजों का रहस्य खोलते हैं कि ’दुनिया संतरे की तरह गोल है.’ तो उर्सुला का एक और रूप देखने को मिलता है. वह धैर्य खो बैठी, ’अगर दिमाग़ ख़राब करना है तो अपना ही करो’ वह चिल्लाई, ’अपने बंजारे ख़यालात बच्चों के सिर में मत ठूंसों.’
उर्सुला को ख़ुद पर ग़ज़ब का यक़ीन है. शादी के समय उर्सुला की मां उसे अनर्थकारी भविष्यवाणियों से आतंकित कर देती है. उर्सुला अपने बलिष्ठ पति से आशंकित रहती है कि रात में कहीं वह उसका बलात्कार न कर ले. इसलिए वह विशेष तरह की मोटे कपड़े की बनी जांघियां पहन कर सोती है. जिसमें लोहे की पट्टियां लगी थीं और जिसे मोटे बकलस से कसा जा सकता था. विवाह के एक साल बाद तक उर्सुला जब कुमारी बनी रही तो लोक की सहज बुद्धि भांप लेती है कि दाल में कुछ काला है. नगर-वासी अफ़वाह उड़ाते हैं कि उर्सुला का पति नपुसंक है. खोसे शांतचित्त होकर जब उर्सुला से कहते हैं,
’देख रही हो न उर्सुला, लोग क्या बकते फिर रहे हैं’, ’बकने दो’, वह बोली, ’हम तो जानते हैं न कि सच क्या है.’
उर्सुला का नगर की महिलाओं के बीच में भी काफ़ी प्रभाव है. वह मर्दों के आसमानी ख़यालों को तुरंत भांप जाती है. होता यूं है कि खोसे अर्कादियों अपनी ख़ब्ती ईजादों में उलझे रहते हैं. समुद्री जल से घिरे होने के कारण मकान्दों के संस्थापक को एक बार भ्रम हो जाता है कि उनका नगर सब तरफ़ पानी से घिर गया है तो वे ख़ुद को दंडित महसूस करते हुए कहते हैं कि ’हम विज्ञान के लाभों का भोग किए बिना ज़िंदगी भर यहीं सड़ते रहेंगे.’
वे मकान्दो को स्थानांतरित करने की कल्पना करने लगते हैं. लेकिन ’उर्सुला उनके बेचैन मंसूबों का अंदाज़ा लगा लेती है और इसके पहले कि वे स्थानांतरण की तैयारियां शुरू कर पाते, चींटी के-से गुप्त और कठोर श्रम द्वारा उसने नगर की औरतों को अपने मर्दों की अस्थिरवृत्तिता के प्रति सचेत कर देती है. खोसे बुएनदिया को भनक तक नहीं लग पाती कि कौन सी घड़ी और किन बलाओं के चलते उनकी योजनाएं, बहानों और टालमटोल के जाल में फंसती चली गईं जब तक कि वे निरा भ्रम न साबित हो गईं.
उर्सुला संकल्प और विनम्र दृढ़ता की मिसाल है. वह ख़तरे उठाने में कई बार वह खोसे अर्कादियो से आगे जाती है. एक बार जब उसका बेटा औरलियानों खोसे अर्कादियो के दुश्मन की बेटी से प्रेम के लिए घर से भाग जाता है तो उर्सुला उसे खोज निकालने और मदद करने के लिए बिना किसी को बताए समुद्री अवरोधों को पार करने का निर्णय लेती है. ‘बूएनदिया’, ज़ाहिर सी बात है, प्रेम का खुले दिल से समर्थन नही करते लेकिन उर्सुला के संकल्प से वे अच्छी तरह परिचित है, वे अपनी जिद पर झूलते नहीं. उत्तरदायित्व और शालीनता में उर्सुला का कोई सानी नहीं. उर्सुला का अपने स्वभाव पर गंभीर नियंत्रण है. इसीलिए वह ’बुएनदिया के अतिवादी परिवार में अपनी व्यवहारिक बुद्धि बनाए रखने के लिए जूझती है और इसमें सफल होती है.’
उर्सुला की विशेषताएं खोसे अर्कादियो बुएनदिया के व्यवहार के आलोक में और स्पष्ट होती हैं. काल्पनिक नगर मकान्दों के ये संस्थापक दंपति लैटिन अमेरिकी धरती की एक जादुई सैर कराते हैं.
*किताब का नाम : एकांत के सौ वर्ष***
*लेखक : गैब्रियल गर्सिया मार्क्वेज़***
*मूल स्पेनिश से अनुवाद : सोन्या सुरभि गुप्ता***
*प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली***
Friday, December 31, 2010
Thursday, December 16, 2010
निजार कब्बानी की कविताएँ
मनोज पटेल के सौजन्य से निजार कब्बानी की ये कवितायेँ। हम हिंदीपाठियों के लिए एक खुशखबरी बतौर मनोज ने कब्बानी की किताब 'On Entering The Sea' का अनुवाद पूरा कर लिया है, जो शीघ्र प्रकाश्य है।
साथ ही साथ पाठकों के लिए एक सूचना भी : अब से ‘भाषासेतु’ पर कोई भी पोस्ट सप्ताह में एक बार ‘बुधवार’ के दिन लगाई जाएगी। इस सिलसिले की पहली कड़ी (श्रीकांत द्वारा अनूदित) गार्सिया लोर्का की कविताएँ होंगी।
दुनिया की उत्पत्ति का एक नया सिद्धांत
एकदम शुरूआत में...... फातिमा थी सिर्फ
उसके बाद बने तत्व सभी
आग और मिट्टी
पानी और हवा
और फिर आए नाम और भाषाएँ
गरमी और बसंत ऋतु
सुबह और शाम
फातिमा की आँखों के बाद ही
खोजी गई दुनिया सारी,
राज काले गुलाब का
और फिर...... हजारों सदियों के बाद
आईं दूसरी औरतें.
* *
फातिमा
फातिमा खारिज करती है उन सभी किताबों को संदिग्ध है जिनकी सच्चाई
और शुरू करती है पहली पंक्ति से
वह फाड़ डालती है पुरुषों द्वारा लिखी सभी पांडुलिपियों को
और अपने स्त्रीत्व की वर्णमाला से करती है शुरू.
फेंक देती है वह अपने स्कूल की किताबों को
और पढती है मेरे होंठों की किताब में.
छोड़कर धूल भरे शहरों को
पानी के शहरों को चली आती है नंगे पाँव मेरे पीछे-पीछे.
प्राचीन रेलगाड़ियों से बाहर कूद
बोलती है मेरे साथ समुन्दर की जुबां
तोड़कर अपनी रेतघड़ी
ले चली जाती है मुझे समय से परे.
साथ ही साथ पाठकों के लिए एक सूचना भी : अब से ‘भाषासेतु’ पर कोई भी पोस्ट सप्ताह में एक बार ‘बुधवार’ के दिन लगाई जाएगी। इस सिलसिले की पहली कड़ी (श्रीकांत द्वारा अनूदित) गार्सिया लोर्का की कविताएँ होंगी।
दुनिया की उत्पत्ति का एक नया सिद्धांत
एकदम शुरूआत में...... फातिमा थी सिर्फ
उसके बाद बने तत्व सभी
आग और मिट्टी
पानी और हवा
और फिर आए नाम और भाषाएँ
गरमी और बसंत ऋतु
सुबह और शाम
फातिमा की आँखों के बाद ही
खोजी गई दुनिया सारी,
राज काले गुलाब का
और फिर...... हजारों सदियों के बाद
आईं दूसरी औरतें.
* *
फातिमा
फातिमा खारिज करती है उन सभी किताबों को संदिग्ध है जिनकी सच्चाई
और शुरू करती है पहली पंक्ति से
वह फाड़ डालती है पुरुषों द्वारा लिखी सभी पांडुलिपियों को
और अपने स्त्रीत्व की वर्णमाला से करती है शुरू.
फेंक देती है वह अपने स्कूल की किताबों को
और पढती है मेरे होंठों की किताब में.
छोड़कर धूल भरे शहरों को
पानी के शहरों को चली आती है नंगे पाँव मेरे पीछे-पीछे.
प्राचीन रेलगाड़ियों से बाहर कूद
बोलती है मेरे साथ समुन्दर की जुबां
तोड़कर अपनी रेतघड़ी
ले चली जाती है मुझे समय से परे.
Thursday, December 02, 2010
सूरज की कविता : मेरे खरीददार
मौसम ने, जबकि समूचे उत्तर भारत को अपनी ठंडी हथेलियों से सहलाना शुरू कर दिया है, ऐसे में प्रेम की सुख(!)दायी ऊष्मा से लबरेज, सूरज की यह कविता। सूरज हमारे समय के कितने महत्वपूर्ण कवि हैं, इसे उनकी रचनाओं से ही जाना जा सकता है. ‘तहलका’ के बहुचर्चित साहित्य विशेषाँक तथा ‘साखी’ के ताजे अंक के अलावा उनकी कविताएँ ‘नयी बात’ और ‘सबद’ पर प्रकाशित हो चुकी हैं।
मेरे खरीददार
(किसी ढाबे से रात का खाना पैक करा रही सुन्दरतम युवती के लिये, जो उस दरमियान तन्दूर के पास खड़ी अपने कोमल हाथ सेंक रही है और शर्तिया मुझे याद कर रही है, जबकि मैं हूँ कि वहीं हूँ – उसी तन्दूर में..)
तुमने मेरी कीमत नींद लगाई थी
जो स्वप्न हमने देखे वो सूद थे
जब स्वप्न चूरे में बिखर गया
तुमने मुझे समुद्र के हाथों बेच दिया
मेरी स्त्री!
बिकना मेरे भाग्य का अंतिम किनारा रहा
पर तुम ऐसा करोगी इसका भान नहीं था,
लगा तुम गुम हो गई हो
किसी बिन-आबादी वाले इलाके में
मैने समुद्र से लड़ाई मोल ली
उसे पराजित किया
तुम्हारे लिये तोड़ लाया समुद्र से चार लहरें
जैसे मैं जानता था तुम्हारे सलोने
वक्षों को होगा इन लहरों का इन्तजार
तब,
मेरी स्मृतियों को औने पौने में खरीद
तुमने मुझे बर्फ को बेच दिया
जो तुम्हारी लम्बी उंगलियों के
पोरों की तरह ठंढी थी
बर्फ के लिये मैं बेसम्भाल था
उसने मुझे पर्वत को बेच दिया
पर्वत ने शाम को
शाम ने देवदार को
देवदार ने पत्थरों को
और पत्थरों ने मुझे नदी को बेच दिया
स्मृतिहीन जीवन के लिये धिक्कारते हुए
नदी ने मुझे पाला अपने गर्भ की मछलियों,
एकांत,
और शीतल आसमान के सामियाने के सहारे
नदी को आगे बहुत दूर जाना था
उसने मुझे कला को बेच दिया
मात्र एक वादे की कीमत पर
कला के पास रोटी के अलावा देने के लिये सबकुछ था
कला ने साँस लेने की तरकीब सिखाई
फाँकों में सम पर बने रहने का सलीका
और तुम्हे याद कर सकूँ इसलिये कविता सिखाई
अनुपलब्ध रोटी के लिये कला उदास रहती थी
उसने विचार से सौदा किया
और जो मौसम उन दिनों था
उस मौसम ने विचार के कान भरे
विचार ने मुझे अच्छाईयों का गुलाम बनाना चाहा
मैने यह शर्त अपने पूरेपन नामंजूर की
मेरे इंकार पर विचार ने मुझे गुलाम
बताकर बाज़ार को बेच दिया
बाजार ने मुझे रौँदा
शत्रु की तरह नही
मिट्टी की तरह और ऐसा करते हुए
वो आत्मीय कुम्हार की धोती बान्धे था
जिसमें चार पैबन्द थे
चार पैबन्द से
चार लहरों की स्मृति मुझे वापस मिली
जिसकी सजा में बाजार ने
मेरा सौदा आग से कर लिया
बाजार को कीमत मिली और
मुझे अपने नाकारा नहीं होने का
इकलौता सबूत
तब मुझे तुम्हारी बहुत याद आई
आज शाम जब आग मुझे
तन्दूर में सजा रही थी
मैं तुम्हे याद कर रहा था
उपलों के बीच तुम्हारी याद सीझती रही
सीझती रही
सीझती रही...
जिसकी आंच में सिंक रहे थे
तुम्हारे कोमल हाथ
और सिंक रही थीं
तुम्हारे लिये रोटियाँ
..................................................................
प्रस्तुति : श्रीकांत
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