Saturday, March 06, 2010

हिंदी कहानी


छुट्टी का दिन


शशिभूषण द्विवेदी


पूरा हफ्ता बीत जाता है छुट्टी के दिन का इंतजार करते और जब छुट्टी का दिन आता है तो मन और भी आतंकित हो जाता है। पूरा दिन एक ऊब और बेचैनी के साथ कैसे कटेगा-सोचते ही मन और भी झल्ला उठता है। छुट्टी के दिन की दिनचर्या भी अजीब होती है। देर तक सोने की इच्छा के बावजूद नींद लगभग समय पर ही खुलती है। कुनमुनाया, अलसाया...थोड़ी देर और सो लेने की कोशिश में थोड़ा सा वक्त और जाया हो जाता है। आखिर न चाहते हुए भी उठना ही पड़ता है। हाथ-मुंह धोकर ट्रैक सूट पहनता हूं। देखता हूं पत्नी अभी तक मिट्टी के लोंदे की तरह बिस्तर पर बिखरी पड़ी है। उसे पता है कि आज छुट्टी का दिन है सो वह आज देर तक सोएगी। मन करता है कि उसके फैले हुए नितंबों पर एक जोरदार लात मारूं मगर फिर खुद को संभाल लेता हूं। जानता हूं कि अब चाहे अनचाहे सारा दिन इसी के साथ गुजारना है सो सुबह-सुबह उसे चूमने में ही भलाई है। मैं उसे चूमता हूं लेकिन सुबह-सुबह उसके मुंह की बास मेरे भीतर एक अजीब तरह की मितली पैदा कर देती है। मन करता है कि उसकी बिखरी हुई देह पर उल्टी कर दूं लेकिन कर नहीं पाता। बहुत सी चीजें हम चाहकर भी नहीं कर पाते। जैसे हम चाहकर भी मंहगाई को नहीं रोक पाते। हां, मंहगाई से याद आया-दो महीने हो गए बिजली का बिल जमा किए। इस महीने जमा न किया तो कनेक्शन ही कट जाएगा। सोचा था इस छुट्टी में करा ही दूंगा, हर बार टल जाता है। हालांकि बिजली पानी का बिल जमा कराना भी किसी सिरदर्द से कम नहीं। छुट्टी वाले दिन वैसे भी आधे ही दिन बिल जमा होते हैं। फिर इतनी लंबी लाइन लगती है कि पूछो मत। समझिए कि आधा दिन तो इसी में गया। मैं घड़ी देखता हूं। सुबह के सात बज रहे हैं। मैं पत्नी को घर में सोता छोडक़र बाहर घूमने निकल जाता हूं। सुबह घूमने के बहाने एक पंथ दो काज हो जाते हैं। दरअसल घर खर्च कम करने की कवायद में दो तीन महीने पहले पत्नी ने घर आने वाला अखबार बंद करा दिया। पत्नी को लगता है कि अखबार खरीदना फिजूलखर्ची है और अखबार पढऩा समय की बर्बादी। आखिर होता ही क्या है अखबारों में आजकल-वही रोज की बासी खबरें-चोरी, छिनैती, बलात्कार, घोटाले...। लेकिन सुबह-सुबह अखबार पढऩे की अपनी बरसों पुरानी आदत मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया। सुबह सुबह अखबार न पढ़ो तो लगता है कि दिन की ठीक से शुरुआत ही नहीं हुई। पहले मैं सुबह सुबह बाथरूम में अखबार लेकर घुस जाता था और नित्यकर्म करते हुए पूरा अखबार चाट लेता था। फिर तरोताजा होकर बाहर आता था। तब तक पत्नी भी चाय बनाकर ले आती थी और हम इत्मीनान से चाय पीते थे। लेकिन अब वे सब बीते दिनों की बातें हो गईं। अब तो सुबह टहलने के बहाने चाय की दुकान पर खड़े खड़े ही अखबार भी पढ़ लेता हूं। हालांकि शुरू शुरू में खाली-पीली अखबार पढऩे पर चायवाला भी मुझे बहुत तिरस्कारपूर्ण नजरों से घूरता था और बार बार आकर पूछ जाता था कि साहब चाय चलेगी। मेरे मना करने पर वह बुरा सा मुंह बना लेता। कभी कभी तो एेसा भी हुआ कि उसने सीधे सीधे मुझसे कह दिया कि साहब गाहकों को बैठने दीजिए। धंधे का टाइम है। आपका क्या है, आप तो मुफत में अखबार पढक़र चले जाएंगे। धंधा तो हमारा खोटा होगा। उसकी एेसी बातों का मुझे सचमुच बहुत बुरा लगता था। इस बुरे लगने के चलते ही अब कभी कभी मैं उसे हाफ चाय या सिगरेट का आर्डर दे देता हूं और बदले में वह मुझे चुपचाप अखबार पढऩे देता है। हालांकि हाफ कप चाय के बदले घंटे भर उसे मेरा अखबार पढऩा अब भी अखरता है लेकिन बेशर्मी से मैंने अब उसकी ओर ध्यान देना छोड़ दिया है।चाय की दुकान पर सबसे पहले मैं अपना राशिफल देखता हूं, फिर मौसम का हाल। राशिफल में लिखा है कि आज कोई शुभ सूचना मिलेगी और धनोपर्जन होगा। मैं सोचता हूं कि आज महीने की बीसवीं तारीख है। धनोपर्जन की तो कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती बल्कि खर्च ही खर्च होना है। यही हाल मौसम के हाल का है। उसमें लिखा है आसमान साफ रहेगा लेकिन कहीं कहीं हल्की बूंदाबांदी हो सकती है। मगर यहां तो सुबह से ही जबरदस्त बारिश के आसार नजर आ रहे हैं। अखबार में और भी तमाम खबरें हैं-मसलन पेट्रोलियम मंत्री ने पेट्रोल और डीजल के दामों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी के संकेत दिए हैं और कृषि मंत्री का कहना है कि मंहगाई रोकने के लिए उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। केंद्र इसके लिए राज्य सरकारों को दोष दे रहा है और राज्य सरकारें केंद्र को कोस रही हैं। बयान, बयान और बयान। पूरा अखबार नेताओं और मंत्रियों की बयानबाजी से अटा पड़ा है। मैं सिगरेट के साथ हाफ चाय सुडक़कर अखबार रख देता हूं और सोचता हूं अब सिगरेट भी छोड़ ही देनी चाहिए। सेहत और खर्च दोनों लिहाज से यह एक अच्छा विचार है। हालांकि यह अच्छा विचार इससे पहले भी मुझे सैकड़ों बार आया है लेकिन उस पर अमल करने का विचार रोज अगले दिन के लिए टल जाता है।मैं देखता हूं घड़ी में आठ बज रहे हंै और आसमान में बादल घने हो रहे हैं। मुझे जल्द ही नहा-धोकर बिजलीघर जाना होगा वरना बारिश से सब गुड़ गोबर हो सकता है। मैं तेज कदमों से घर की ओर लौट पड़ता हूं। घर में पत्नी रसोई में उठापटक कर रही है। यह उसकी रोज की खीझ है जो रसोई में बर्तनों पर निकलती है जिसे मैं रोज की तरह ही सुनकर अनसुना कर देता हूं। लेकिन तभी उसकी खीझभरी आवाज आती है-‘गैस खत्म हो गई है। कितने दिन से कह रही थी बुक करवा दो...लेकिन कोई सुने तब न...’-‘गैस के दाम भी बढ़ गए हैं।’ मैं कहता हूं।-‘तो?’-‘तो...तो कुछ नहीं। आज बिजलीघर जाना है बिल जमा कराने।’-‘पहले गैस का कुछ इंतजाम करो।’मैं नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाता हूं। पत्नी की बड़बड़ाहट नल के पानी के शोर में गुम हो जाती है। मेरे नहाकर बाथरूम से बाहर आने तक पत्नी ने नाश्ता तैयार कर दिया है। नाश्ता करते हुए मैं गुनगुनाने लगता हूं-गिलोरी बिना चटनी कैसे बनी...। लेकिन पत्नी मुझे अनसुना करते हुए बड़बड़ा रही है जैसे मैं उसे अनसुना करते हुए गुनगुना रहा हूं।-‘सिलेंडर झुकाकर थोड़ी सी गैस निकल आई लेकिन जैसे भी हो दोपहर तक कहीं से भी गैस का बंदोबस्त करो वरना खाना भी नहीं बन पाएगा। कितनी बार कहा कि दूसरा सिलेंडर बुक करवा लो। कभी अचानक गैस खत्म हो जाए तो ये दिन तो न देखना पड़े॥मगर सुनता कौन है...’-‘अब ठीक है..बिजलीघर जाते हुए बुक करवाता आऊंगा।’-‘बुक वुक नहीं...गैस आज ही आनी चाहिए और अब्भी।’ मैं कोई जवाब नहीं देता और तैयार होकर घर से निकल पड़ता हूं। दस बज गए हैं। बाहर हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई है। शुक्र है कि मौसम को देखते हुए छतरी साथ लेता आया था। बिजलीघर पहुंचते पहुंचते बारिश और भी तेज हो गई लेकिन बिल जमा कराने वालों की लाइन में कहीं कोई कमी नहीं आई। बिल काउंटर के पास कीचड़ ही कीचड़ हो गया है। बारिश की फुहारों से बचने के लिए लोग ठेलमठेल मचाए हैं। लाइन इतनी लंबी है कि लगता नहीं कि दो घंटे बाद भी मेरा नंबर आ पाएगा। काउंटर क्लर्क इतना सुस्त है कि एक एक आदमी पर दस दस मिनट लगा रहा है। लोग कुनमुना रहे हैं और सरकारी कर्मचारियों की काहिली को कोस रहे हैं। बीच बीच में कोई काउंटर क्लर्क का जान पहचान वाला आ जाता है तो उसका काम आउट आफ वे जाकर भी हो जाता है जिससे लाइन में लगे लोगों का गुस्सा बढ़ जाता है और हल्ला शुरू हो जाता है। हालांकि इस हल्ले का कोई असर नहीं होता। बस लोग बड़बड़ाते रहते हैं और जान पहचान वाले या दबंग लोग लाइन को धकियाकर अपना काम करा ले जाते हैं। मैं घड़ी देखी साढ़े ग्यारह होने को आए। अब भी पांच-सात लोग लाइन में हैं। मेरी बेचैनी बढ़ जाती है। लगता नहीं कि आज मेरा नंबर आ पाएगा। एक एक पल भारी होता जा रहा है। ग्यारह बजकर पचास मिनट हो गए हैं। दो लोग अब भी मेरे आगे हैं। मैं हड़बड़ी में हूं-भइया जरा जल्दी करो। काउंटर क्लर्क घुडक़र मेरी ओर देखता है। उसकी घुडक़ी में एक हिकारत है।-‘काम ही कर रहा हूं। कोई मक्खी तो मार नहीं रहा।’ जानता हूं कि क्लर्क से बहस करने का कोई मतलब नहीं, वरना अभी काउंटर बंद कर देगा। बहरहाल, मेरा नंबर आखिरकार आ ही गया। घड़ी में अभी बारह बजने में पांच मिनट बाकी हैं। मैं जैसे ही बिल की रसीद उसकी ओर बढ़ाता हूं, वह पेशाब का बहाना करके उठ जाता है। मैं उसकी इस हरकत पर खीझ उठता हंू पर कुछ कह नहीं पाता। पांच मिनट बाद क्लर्क लघुशंका से निपटकर लौटता है और एेलान कर देता है कि टाइम खत्म हो गया है, अब कल आना। मेरा दिल धक से रह जाता है। दो घंटे की मेहनत पर पानी फिरता नजर आता है। अब मैं याचना की मुद्रा में आ गया हूं।-‘दो घंटे से खड़ा हूं सर...प्लीज जमा कर लीजिए बिल..वरना..’-‘वरना क्या? हम भी दो घंटे से काम ही कर रहे हैं, कोई झख तो नहीं मार रहे। इतनी ही जल्दी थी तो समय पर क्यों नहीं आए?’-‘प्लीज सर...बड़ी मुश्किल से आ पाया हूं...मेहरबानी होगी...’ मेरे चेहरे पर जाने कैसा तो दीनता का भाव है कि क्लर्क थोड़ा पसीजने लगता है।-‘अच्छा लाओ...लेकिन बाकी सब कल आएं।’ मेरी जान में थोड़ी जान आती है। आखिरकार मेरा बिल जमा हो जाता है मगर पीछे से फिर वही शोर शुरू हो जाता है-प्लीज सर...प्लीज सर... लेकिन तब तक खिडक़ी बड़ी बेरहमी से बंद हो जाती है। मैं खुश हूं कि आखिरकार मेरा बिल जमा हो गया। मुझमें एक विजेता का सा भाव घर करने लगता है।बाहर बारिश और भी तेज हो गई है। घड़ी साढ़े बारह बजा रही है। अब मुझे फौरन गैस स्टेशन की ओर भागना होगा वरना घर में खाना नहीं बनेगा। गैस स्टेशन पहुंचते पहुंचते एक डेढ़ बज जाते हैं मगर बारिश थमने का नाम नहीं लेती। मैं लगभग आधे से ज्यादा भीग चुका हूं। स्टेशन पहुंचने पर पता चलता है कि आज तो छुट्टी का दिन है। ‘हे भगवान, अब क्या होगा?’ मेरे हाथ-पांव फूलने लगते हैं। मैं आस-पास लोगों से पूछता हूं। रिरियाता हूं। घर में गैस खत्म होने का हवाला देता हूं। मेरे पेट में चूहे भी कूदने लगे हैं। घर में पत्नी भी भूखी होगी, मैं सोचता हूं। तभी बीड़ी का सुट्टा लगाता हुआ एक दलाल टाइप आदमी मेरे पास आता है। वह घूरकर एक नजर मेरी ओर देखता है।-‘गैस चाहिए?’-‘हां।’-‘ब्लैक में मिलेगा। तीस परसेंट एक्स्ट्रा।’-‘ये तो बहुत ज्यादा है। कुछ कम में नहीं होगा?’-‘लेना है तो बोलो वरना रास्ता नापो।’ मुझे पत्नी का खीझ और हताशा से भरा चेहरा याद आ जाता है। मैं फौरन हां कह देता हूं।-‘कितना लगेगा?’-‘सात सौ रुपये।’ मैं पर्स टटोलता हूं। पर्स में सिर्फ पांच सौ रुपये हैं। मैं पांच सौ रुपये उसे सौंप देता हूं।-‘सिलेंडर घर पहुंचाओ। बाकी के पैसे घर पर दूंगा।’-‘सिलेंडर घर पहुंचाने के पचास रुपये एक्स्ट्रा लगेंगे।’ वह मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहा है। मैं कहता हूं-‘ये तो ज्यादती है।’-‘ज्यादती वादती कुछ नहीं। एक तो छुट्टी का दिन, ऊपर से मौसम देख रहे हैं।’ मैं झल्लाता हूं मगर कुछ नहीं कर पाता। फौरन सिलेंडर घर पहुंचाने को कहकर उसके साथ चल देता हूं। घड़ी में दो बज रहे हैं। बारिश अब भी रुकने का नाम नहीं ले रही। हालांकि गैस मिल जाने से मेरे भीतर एक सुकून सा आ गया है। अब बारिश से भीगी मिट्टी की सोंधी गंध मुझे अच्छी लगने लगी है।सिलेंडर के साथ जैसे-तैसे मैं घर पहुंचता हूं। ढाई बज चुके हैं। पत्नी का पारा सातवें आसमान पर है। मैं उसकी ओर ध्यान नहीं देता और गैसवाले का बकाया भुगतान कर उसे रवाना कर देता हूं। पत्नी भी बिना मुझसे कुछ कहे सिलेंडर रसोई में रखवा लेती है और खाना बनाने जुट जाती है। कुकर की सीटी और खाने की खुशबू से मेरी भूख और भी बढ़ जाती है। इस बीच मैं रूठी पत्नी को मनाने की योजना बनाने लगता हूं। साढ़े तीन तक खाना बनकर तैयार हो जाता है और मैं झटपट खाने बैठ जाता हूं। खाना आज कुछ ज्यादा ही स्वादिष्ट लग रहा है। मैं भरपेट खाकर एक जोरदार डकार लेता हूं। पत्नी भी चुपचाप खाना खाकर बर्तन समेटकर रसोई में चली जाती है। मैं आराम की मुद्रा में थोड़ी देर टीवी देखने के लिए टीवी ऑन करता हूं मगर बिजली गुल है। कमबख्त बिजली में भी इन दिनों सात-आठ घंटे की कटौती होने लगी है। रोज रोज के धरना प्रदर्शन के बावजूद बिजली की हालत इन दिनों बद से बदतर होती जा रही है। अभी चार दिन पहले गुस्साए लोगों ने बिजली विभाग के एसडीओ की उसके दफ्तर में सरेआम पिटाई ही कर दी। मगर सरकार के कान पर जूं रेंगने का नाम नहीं लेती। हारकर मैं बिस्तर पर लौटकर लेट जाता हूं। हालांकि नींद फिर भी नहीं आती। मैं बार-बार घड़ी देखता हूं। साढ़े चार बज चुके हैं। मैं पत्नी को मनाने की तरकीबें सोचता हूं और उठकर रसोई में चला आता हूं जहां पत्नी चाय बना रही है। इस बेचारी को छुट्टी के दिन भी आराम नहीं सिवाय सुबह थोड़ी देर ज्यादा सो लेने के। मैं उसे पीछे से अपनी बाहों में भर लेता हूं। वह झुंझला जाती है।-‘क्या कर रहे हो...छोड़ो...खिडक़ी खुली है कोई देख लेगा।’-‘देखता है तो देखे...अब तो खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों।’ मैं रोमांटिक मूड में गुनगुनाने लगता हूं।-‘क्या बात है..बड़ी मस्ती के मूड में हो।’ पत्नी की आंखों में शरारत है। उसका गुस्सा काफूर हो उठा है। मैं उसके इसी अंदाज पर रीझ उठता हूं। तमाम परेशानियां उसकी एक मुस्कान के आगे बौनी हो जाती हैं। मैं झट से उसके होठों को चूम लेता हूं और उसे बाहों में भरे भरे नाचने लगता हूं-‘छुट्टी का दिन है कि मस्ती में हैं हम...मस्त मस्त मस्ती..याहू्...’ पत्नी प्यार से मुझे झिडक़ देती है,‘अब बचपना छोड़ो और चलो चाय पियो।’ मैं चाय का कप लिए उसके साथ ड्राइंगरूम में आ जाता हूं। अब तक बिजली भी आ गई है। हम टीवी देखते हुए चाय पीने लगते हंै। शाम के साढ़े पांच बज चुके हैं। पत्नी बाजार चलने की फरमाइश करने लगती है। मैं उसका मूड खराब करना नहीं चाहता। हालांकि मन ही मन आज हुए खर्च का हिसाब लगाने लगता हूं। एक ही दिन में कुल चार हजार की चपत लग चुकी है। ‘खैर..मौसम खुशनुमा है और छुट्टी का दिन खराब नहीं करना है।’ मैं सोचता हूं और फौरन बाजार के लिए तैयार होने लगता हूं। हम बाजार में हैं। शाम के सात बज रहे हैं। अंधेरा घिरने लगा है। बाजार में चारों ओर जगमगाहट है। लगता है जैसे मौसम का लुत्फ लेने पूरा शहर घरों से बाहर निकल आया है। नए-नए जोड़े हाथों में हाथ में डाले इत्मीनान से टहल रहे हैं या आइसक्रीम खा रहे हैं।-‘कितने दिन हुए इतने अच्छे मौसम में हमें बाजार आए...न।’ पत्नी कहती है और मैं उसकी हां में हां मिला देता हूं। टहलते टहलते हम एक शापिंग मॉल के सामने आ जाते हैं। मॉल रंग बिरंगी रोशनियों में जगमगा रहा है और अपनी भव्यता और वैभव से पूरे शहर को मुंह चिढ़ा रहा है। शहर में पिछले दो साल में पांच मॉल और मल्टीप्लैक्स खुले हैं और सब एक से बढक़र एक। इस बीच रेहड़ी और खोमचे वालों की एक पूरी दुनिया ही उजड़ गई है और साप्ताहिक हाट बाजार का हाल बद से बदतर हो गया है। मॉल के आस पास रेहड़ी और खोमचे लगाने की सख्त मनाही है और कभी भूल से भी किसी ने एेसा दुस्साहस कर लिया तो उसके लिए पुलिस का जालिम डंडा तो है ही। बहरहाल, मॉल के आगे लंबी लंबी गाडिय़ों की लाइन लगी है और उसमें चढ़ते उतरते लोग मुझमें बेतरह हीनभावना पैदा कर रहे हैं। वे किसी दूसरी दुनिया से आए हुए लगते हैं जिनकी जेबें नोटों से भरी हुई हैं और जिनके चेहरे पर कहीं किसी दु:ख, परेशानी या मुश्किल के निशान नहीं हैं।मॉल के भीतर जगमग रोशनियों के बीच वस्तुओं का पूरा बाजार है जिनके ऊपर उनकी कीमतों के टैग लगे हैं। यहां हर चीज ब्रांडेड है और ब्रांड की ही कीमत है। लोग यहां चीजें अपनी जरूरत के हिसाब से नहीं, ब्रांड के हिसाब से लेते हैं। एक ब्रांडेड जींस की कीमत चार हजार, जूता सात हजार और बित्ते भर टॉप दो हजार। मेरे बगल में खड़ी एक अल्ट्रा मॉड लडक़ी झटपट एक जींस और टॉप उठाती है और उन्हें आजमाने के लिए ट्रायल रूम में घुस जाती है। दो मिनट बाद जब वह बाहर आती है तो मैं देखता हूं उन कसे हुए कपड़ों में उसका शरीर जैसे फट पडऩे का आतुर है। डीप नेक टॉप और लो हिप जींस में उसका शरीर और भी दिलकश हो उठा है। मैं पत्नी से नजरें बचाकर उसके शरीर के खुले गोपन अंगों को घूरने लगता हूं और वह क्रेडिट कार्ड से पेमेंट कर बेपरवाही से टहलते हुए मॉल से बाहर निकल जाती है। पत्नी वहां तमाम चीजों को ललचाई निगाहों से उठा उठाकर देख रही है फिर उनकी कीमतें पढक़र मायूस हो जाती है और चुपचाप उन्हें यथास्थान रख देती है। कुछ जरूरी चीजों की खरीदारी के बाद हम जगमग रोशनियों के उस संसार से बाहर आ जाते हैं। घड़ी में साढ़े आठ बज रहे हैं। रास्ते में गोलगप्पे खाने के बाद अपनी तमाम तमाम अधूरी इच्छाओं के साथ हम घर की ओर लौट पड़ते हैं। आखिर सुबह दफ्तर के लिए जल्दी उठना भी तो है।


शशिभूषण द्विवेदी हिंदी की युवा पीढी के जाने माने कथाकार हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित हैं। एक कहानी संग्रह : ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियां। पिछले कई सालों के बाद उनकी यह कहानी : 'छुट्टी का दिन'। संपर्क :405, सुपरटेक अपार्टमेंट, 5/५3, सेक्टर-५, राजेंद्र नगर, साहिबाबाद, (गाजियाबाद) उ।प्र.

5 comments:

NISHANT said...

इस सुन्दर चिट्ठे के साथ ब्लॉग जगत में आपका स्वागत .....

Anonymous said...

kahani achhi hai. shashibhooshan dwiwedi ko badhai.

akash jain

kshama said...

Anek shubhkamnayen!

kumar anupam said...

shashi bhai ki kahani bhut apni apni si kahani lagegi shayad bhut se aam logon ko...shubh kamnaein.

N C said...

SHASHIBHUSHANJI KAHANI TO BAHUT ACHI HAI. PAR JAB TAK APKI PATNI IS KAHANI KO NA PADE TAB TAK SHAYAD APKO MAJA NA AAYE.