Wednesday, March 10, 2010

उपन्यास अंश

देवदास

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

अनुवाद : कुणाल सिंह

रात का कोई एक बजे का समय। बिस्तर की चादर को अपनी देह से भली-भाँति लपेटकर पारो सीढिय़ाँ उतरी और नीचे आँगन में आ गयी। चारों तरफ चाँदनी छिटक रही थी। आँगन में खटिया डाले दादी सोई थीं। पारो बेआवाज़ दरवाज़े तक आयी और जैसे घाव से पट्टियाँ उतारते हैं, इतने हल्के हाथों किवाड़ खोला। बाहर सुनसान। चरिन्द-परिन्द का नामोनिशान नहीं। एक पल के लिए हिचकी, फिर जैसे कुछ सोचकर उसने आगे कदम बढ़ा दिया।

मुकर्जी साहब की कोठी चाँदनी में दूध धुली लग रही थी। सेहन में बूढ़ा दरबान किशन सिंह अपनी खटिया पर बैठा रामचरितमानस का सस्वर पाठ कर रहा था। सिर झुकाये ही पूछा, ''कौन?'' पारो ने कहा, ''मैं!'' इतने भर से किशन सिंह ने पता नहीं क्या समझा, सिर उठाकर आगे दरियाफ्त करने की भी ज़रूरत महसूस नहीं की उसने, जहाँ छोड़ा था आगे से पाठ करने लगा। सोचा होगा, कोई नौकरानी होगी या ऐसा ही कुछ! पारो भीतर पहुँच गयी। गरमी का मौसम होने के कारण अधिकांश नौकर-चाकर बरामदे में ही सोये थे। उनमें से किसी ने पारो को जाते देखा या नहीं, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। घर के भूगोल से पारो भली-भाँति परिचित थी, सो सीढिय़ाँ चढ़कर देवदास के कमरे तक पहुँचने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। दरवाज़ा यों ही भिड़ा दिया गया था, वह भीतर आ गयी।

देवदास कुर्सी पर बैठकर पढ़ते-पढ़ते सो गया था। मेज़ पर रखा लैम्प धीमी लौ में जल रहा था। पारो ने उसकी लौ तेज़ कर दी। नींद में गाफिल देव का चेहरा रोशन हो उठा। एक पल के लिए मन्त्रमुग्ध-सी पारो उसे देखती रही, फिर वहीं फर्श पर उसके पैरों के पास बैठ गयी। देवदास के घुटनों पर हौले से हाथ रखकर हिलाया, फुसफुसाकर बोली, ''देव दा!''

नींद के आवेश में लथपथ देव इतना सुनकर, बिना आँखें खोले ही, अनायास हुँकारी भर बैठा। पारो चुप रही। फिर थोड़ी देर बाद उसने देव के घुटनों को हिलाया। उसकी चूडिय़ाँ खनक उठीं। रात के सुनसान में उसकी चूडिय़ों की खनखनाहट प्रमुख होकर सुनायी पड़ी। पारो ने फिर से पुकारा, ''देव दा, उठो!''
देव ने आँखें खोलीं। लैम्प की रोशनी सीधे उसकी आँखों पर पड़ी, सो एक पल के लिए वह चौंधिया गया। घुटने पर रखे हाथ को पारो ने हटा लिया। उस पर देव की नज़र पड़ी। तत्काल ही उसे समय का अन्दाज़ा हुआ। उसने कलाई घड़ी पर नज़र डालते हुए पूछा, ''पारो तुम! ... इस वक्त!'' वह कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सचेत हो गया। ''क्या बात हो गयी पारो?''

''हाँ देव दा, यह मैं हूँ।'' इतना कहकर पारो चुप हो गयी। देव ठीक से बैठ गया। वह इन्तज़ार कर रहा था कि पारो कुछ और बोलेगी, लेकिन जब वह चुप ही रही तो देव ने पूछा, ''इतनी रात गये? सब ठीक तो है न!''पारो फिर भी चुप रही। देव उठा और कमरे के दरवाज़े तक आया। किवाड़ खोलकर सरसरी नज़र से बाहर देखा, फिर किवाड़ को भिड़ा दिया। बन्द नहीं किया। पारो खड़ी हो चुकी थी। देव ने हैरत में पड़कर पूछा, ''अकेली आयी हो?''

''हूँ।'' पारो का चेहरा नीचे की ओर था।

''डर नही लगा?''

पारो ने चेहरा उठाया। मुस्करायी। बोली, ''मैं भूतों से नहीं डरती।''

''...और आदमी से?''

पारो चुप। देव को क्या वाकई इस बात का अन्दाज़ा नहीं कि इस संकट की घड़ी में पारो को आदमियों से भी डर नहीं लगेगा?

''अच्छा छोड़ो, बताओ बात क्या है?''

पारो फिर चुप! क्या वाकई देव को अन्दाज़ा नहीं? उसे जानना चाहिए कि इतनी रात गये पारो क्यों आयी है? वह वाकई नहीं जानता या न जानने का अभिनय कर रहा है? क्या वह पारो को तोल रहा है?

''तुम्हें आते किसी ने देखा तो नहीं?''

''किशन सिंह ने देखा था।''

''और किसी ने?''

''शायद बाहर बरामदे में सोये नौकरों में से किसी ने देखा हो।''

देवदास चुप। उसके चेहरे के नकूश एकबारगी बदल गये। ''क्या किसी ने तुम्हें पहचाना?''उसकी परेशानी से पारो को किंचित निराशा हुई भी हो तो भी उसने ज़ाहिर नहीं किया। सहजता से बोली, ''सभी तो मुझे जानते हैं। हो सकता है जिसने देखा हो वह पहचान भी गया हो!''

देवदास की सिट्टी-पिट्टी गुम गयी। समझ में नहीं आया क्या कहे! सकपकायी-सी आवाज़ में इतना ही पूछ सका, ''आखिर क्यों पारो! क्यों यह सब! ...बात क्या थी जो इतनी रात गए तुम्हें...?''वह आगे कुछ न कह सका और धम्म से बिस्तर पर बैठ गया। पारो चुपचाप उसे देख रही थी।

''मैं अपने लिए नहीं...! तुम तो इन नौकर-चाकरों की आदत से वाकिफ हो। ज़रा-सी बात का भी बतंगड़ बना देते हैं। तुम्हारे यहाँ आने की बात सुबह होते ही चारों तरफ फैल जाएगी। फिर क्या सफाई दोगी तुम? कैसे मुँह दिखा सकोगी?''

पारो तिलमिला गयी, ''देव दा, इसकी चिन्ता करने की तुम्हें ज़रूरत नहीं।'' उसने सिर झुका लिया।
देव अब तक संयत हो चुका था। बोला, ''पारो बात अब पहले-सी नहीं रही। तुम अब बड़ी हो चुकी हो। यहाँ आते तुम्हें लाज नहीं आयी?''

''देव दा, इसमें लाज आने की तो कोई बात नहीं।''

''जब लोगों को पता चलेगा तो...? क्या जवाब दोगी?''

पारो धीमे कदमों से देव के पास आयी। उसकी आँखों में एक अजीब परस्तिश-सी तैर रही थी। मीठी आवाज़ में बोली, ''क्या मैं नहीं जानती यह सब? ...लेकिन इन सबसे ऊपर मैं यह भी जानती हूँ कि तुम मेरी लाज रख लोगे। अगर इसका मुझे यकीन न होता देव दा तो मैं हरगिज यहाँ पाँव न धरती।''

''लेकिन मैं भी तो...'' देव रुक गया।

पारो उसकी तरफ प्रश्नार्थक नज़रों से घूर रही थी। उसकी सीधी आँखों की आँच देव से झेला न गया। उसने नज़रें फेर लीं।''तुम्हारा क्या है देव दा!'' पारो की आवाज़ में घुली मिठाई हवा होने लगी। ''बोलो न देव दा, रुक क्यों गये?''

लेकिन देव चुप ही रहा। पारो ही बोली, ''तुम्हारा क्या है, तुम तो मरद मानुष ठहरे। आज अगर मेरा यहाँ आना सब पर ज़ाहिर भी हो गया तो एक दिन, दो दिन, एक सप्ताह, हद-से-हद एक महीने में लोग भूल जाएँगे कि आधी रात कोई दुखियारी पारो अपने देव दा से मिलने उसके कमरे में चली आयी थी। और मेरी वजह से...'' पारो की आवाज़ दरकने लगी। उसने अपनी ठोढ़ी देव के घुटनों पर रख दी।

देव ने उसके बालों में उँगली फेरते हुए पुकारा, ''पारो!''

''अगर मेरी वजह से तुम्हारी ज़रा भी बदनामी होती है देव दा तो मैं गले में घड़ा बाँधकर पोखर में कूद...!''देव ने अपना हाथ पारो के होंठो पर रखकर आगे कुछ कहने से बरज दिया। पारो का चेहरा अँधेरे में था इसलिए देव को पता नहीं था वह रो रही है। जब उसके हाथों पर बूँदे गिरीं तो वह जैसे मचल गया, ''पारो! क्या तुम रो रही हो?''पारो की हिचकियाँ बँध गयीं। देव उसके कन्धे को थपथपाने लगा, ''ना पारो ना!''

पारो नहीं मानी, पूर्ववत रोती रही। देव ने कन्धे से पकड़कर उसे उठाना चाहा, ''पारो, ऊपर आओ। बगल में बैठो। आओ।''''नहीं देव दा, मुझे यहीं रहने दो। मुझे सारी जि़न्दगी यहीं रहना है, तुम्हारे चरणों के पास। बोलो देव दा, मुझे यहाँ थोड़ी-सी जगह दोगे?''

''मेरे अलावा क्या तुम किसी और से ब्याह नहीं कर सकती?''

पार्वती ने कुछ नहीं कहा। देव भी चुप। कमरे में शान्ति। दूर कहीं कुत्ते के भौंकने की आवाज़ कट-पिटकर आ रही थी। जब दीवार-घड़ी ने दो बजने का गजर दिया तो दोनों की तन्द्रा टूटी। सोच के बिखरे सिरों को समेटते हुए देव ने वहीं से कहना शुरू किया, जहाँ बातचीत खत्म हुई थी।''...तुम्हें पता है कि मेरे घरवाले इस रिश्ते के खिलाफ हैं?''

''सुना ऐसा ही है देव दा!''

देव चुप हो गया। थोड़ा साहस बटोरकर पूछा, ''फिर यह सब करने से क्या फायदा पारो? ...सुनो, इधर आओ।''

लेकिन पारो जैसे बीच मँझधार में हो और देव के पाँव पकड़कर ही किनारे पर पहुँचा जा सकता है, ऐसे उसने कसकर पाँव पकड़ रखा था और रोये जा रही थी। बोली, ''इतना सब मैं नहीं जानती।''

''लेकिन माँ-बाबूजी की मर्जी के बगैर...?''

''इसमें हर्ज ही क्या है?''

''लेकिन वे मुझे इस घर से बाहर निकाल देंगे, और ऐसा न भी हो तो वे बहू के रूप में तुम्हें यहाँ रहने नहीं देंगे। ...फिर मैं तुम्हें रखूँगा कहाँ?''

''मुझे बस यहीं रहना है, तुम्हारे चरणों में।''

फिर चुप्पी। लम्बी चुप्पी। लेकिन दोनों चुप रहकर भी जैसे एक निष्कर्ष तक पहुँच रहे थे। पारो हताश थी, देव शर्मसार।

घड़ी ने सुबह के चार बजाए। नौकर-चाकर उठने को होंगे। गरमियों में सुबहें जल्दी हो जाया करती हैं।

देवदास ने पारो को कन्धे से उठाते हुए कहा, ''पार्वती! चलो। आओ मैं तुम्हें घर तक पहुँचा आऊँ।''पारो के आँसू सूख चुके थे। चेहरे पर दृढ़ता। बोली, ''...और जो किसी ने देख लिया तो तुम्हारी बदनामी नहीं होगी?''

पारो के तंजिया तेवर की अनदेखी करते हुए देव ने कहा, ''अगर थोड़ी-बहुत बदनामी भी होती है तो कोई हर्ज नहीं।''

''ठीक है, तो चलो, छोड़ आओ।''

दोनों चुपचाप चल दिये।

कुणाल सिंह द्वारा मूल बंगला से किया गया 'देवदास' का यह अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ से पुस्तकाकार प्रकाशित है.

2 comments:

N C said...

YE MEIN PEHLE BHI PADH CHUKI HU. APKI DEVDAS BOOK MERE PAAS HAI. 2 BAAR PURI PADI HAI BOOK. 3 TIME BLOG PAR PURI BOOK PADNA CHAHTI HU.

डॉ .अनुराग said...

वैसे लोग देवदास को हीरो मानते है पर हकीक़त में वे एक पलायनवादी प्रेमी थे.....