बुद्धदेब दासगुप्ता
मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह
टेलीफोन
फोन करते करते रविरंजन सो गया है
चेन्नई में टेलीफोन के चोंगे के भीतर
रवि की पत्नी पुकार रही है कोलकाता से- रवि रवि
सात बरस का बेटा और तीन बरस की बेटी
पुकारते हैं- रवि रवि
अँधेरे बादलों से होकर, नसों शिराओं से होकर
आती उस पुकार को सुनते सुनते
रवि पहुँच गया है अपने
पिछले जनम की पत्नी, बच्चों के नंबर पे
याद है? याद नहीं?
पिछले जनम के टेलीफोन नंबर से तैरती आती है आवाज़
याद नहीं रवि? रवि?
मंगल ग्रह के उस पार से
सन्न सन्न करती उडती आती है
पिछले के भी पिछले जनम की पत्नी की आवाज़।
रवि तुम्हें नहीं भूली आज भी
याद है मैंने ही तुम्हें सिखाया था पहली बार
चूमना। रवि याद नहीं तुम्हें?
टेलीफोन के तार के भीतर से
रिसीवर तक आ जाती है एक गौरैय्या
रवि के होठों के पास आकर सबको कहती है
याद है, याद है। रवि को सब याद है।
जरा होल्ड कीजिये प्लीज़, रवि अभी दूसरे नंबर पर बातें कर रहा है
अपने एकदम पहले जनम के पत्नी बच्चों से
जिसने उसे सिखाया था कि कैसे किसी को प्यार करते हें
सात सात जन्मों तक।
हैंगर
जब भी उसके पास करने को कुछ नहीं होता था
या नींद नहीं आती थी लाखी कोशिशों के बावजूद
तो वह अलमारी खोल के खड़ा हो जाता था।
अलमारी खोल के घंटों वह देखता रहता था
अलमारी के भीतर का संसार।
दस जोड़ी कमीजें, पतलून उसे देखते थे, यहाँ तक कि
अलमारी के दोनों पल्ले भी अभ्यस्त हो गए थे उसके देखने के।
अंततः, धीरे धीरे अलमारी को उससे प्यार हो गया। एकदिन ज्यों ही उसने
पल्ले खोले, भीतर से एक कमीज़ की आस्तीन ने उसे पकड़ लिया
खींच लिया भीतर, अपने आप बंद हो गए अलमारी के पल्ले, और
विभिन्न रंगों की कमीजों ने उसे सिखाया कि कैसे
महीने दर महीने
साल दर साल, एक जनम से दूसरे जनम तक
लटका रहा जाता है
सिर्फ एक हैंगर के सहारे।
हाथ
अपने हाथों के बारे में हमेशा तुम सोचते थे
फिर एकदिन सचमुच ही तुम्हारा हाथ तुमसे गुम गया।
हाय, जिसे लेकर तुमने बहुत कुछ करने के सपने पाले थे गालों पे हाथ धरकर
पागलों की तरह दौड़ धूप किया, न जाने कितने दिन कितने महीने कितने साल-
पागलों की तरह सर पीटते पीटते फिर एक दिन तुम्हें नींद आ गयी।
बहुत रात गए तुम नींद से जागकर खिड़की के आगे आ खड़े हुए
खिड़की के पल्ले खुल गए
अद्भुत चांदनी में तुमने देखा एक विशाल मैदान में सोए हें
तुम्हारे दोनों हाथ। एकसार बारिस हो रही है हाथों के ऊपर, और
धीमी धीमी आवाज़ करते हुए घास उग रहे हें हाथों के इर्द गिर्द।
कान
एक कान देखना चाहता है अपने जोड़ीदार दूसरे कान को
एक कान कहना चाहता है दूसरे कान से न जाने कितनी बातें।
कभी मुलाक़ात नहीं होती दोनों की, बातें एक कान में बहुत गहरे धंसकर
दूसरे कान की गहराई से निकल पड़ती है, और अंततः
हवाओं में घुल मिल जाती है। दुःख और शर्म से
कुबरे होते होते एक दिन कान झड जाते हें, गिर पड़ते हें रास्तों में कहीं। पृथ्वी पे
इस तरह शुरू होती है कानहीन मनुष्यों की प्रजाति।
आज एक कानहीन आदमी का एक कानहीन लड़की से शादी है,
पसरकर बैठे हें देखो, उनके कानहीन दोस्त यार
कानी ऊँगली डुबाकर दही खाते खाते
न जाने कौन सी बात पे
हंस हंस कर दोहरे हुए जा रहे हें
रो रहे हें, सो रहे हें बिस्तरों पर।
मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह
टेलीफोन
फोन करते करते रविरंजन सो गया है
चेन्नई में टेलीफोन के चोंगे के भीतर
रवि की पत्नी पुकार रही है कोलकाता से- रवि रवि
सात बरस का बेटा और तीन बरस की बेटी
पुकारते हैं- रवि रवि
अँधेरे बादलों से होकर, नसों शिराओं से होकर
आती उस पुकार को सुनते सुनते
रवि पहुँच गया है अपने
पिछले जनम की पत्नी, बच्चों के नंबर पे
याद है? याद नहीं?
पिछले जनम के टेलीफोन नंबर से तैरती आती है आवाज़
याद नहीं रवि? रवि?
मंगल ग्रह के उस पार से
सन्न सन्न करती उडती आती है
पिछले के भी पिछले जनम की पत्नी की आवाज़।
रवि तुम्हें नहीं भूली आज भी
याद है मैंने ही तुम्हें सिखाया था पहली बार
चूमना। रवि याद नहीं तुम्हें?
टेलीफोन के तार के भीतर से
रिसीवर तक आ जाती है एक गौरैय्या
रवि के होठों के पास आकर सबको कहती है
याद है, याद है। रवि को सब याद है।
जरा होल्ड कीजिये प्लीज़, रवि अभी दूसरे नंबर पर बातें कर रहा है
अपने एकदम पहले जनम के पत्नी बच्चों से
जिसने उसे सिखाया था कि कैसे किसी को प्यार करते हें
सात सात जन्मों तक।
हैंगर
जब भी उसके पास करने को कुछ नहीं होता था
या नींद नहीं आती थी लाखी कोशिशों के बावजूद
तो वह अलमारी खोल के खड़ा हो जाता था।
अलमारी खोल के घंटों वह देखता रहता था
अलमारी के भीतर का संसार।
दस जोड़ी कमीजें, पतलून उसे देखते थे, यहाँ तक कि
अलमारी के दोनों पल्ले भी अभ्यस्त हो गए थे उसके देखने के।
अंततः, धीरे धीरे अलमारी को उससे प्यार हो गया। एकदिन ज्यों ही उसने
पल्ले खोले, भीतर से एक कमीज़ की आस्तीन ने उसे पकड़ लिया
खींच लिया भीतर, अपने आप बंद हो गए अलमारी के पल्ले, और
विभिन्न रंगों की कमीजों ने उसे सिखाया कि कैसे
महीने दर महीने
साल दर साल, एक जनम से दूसरे जनम तक
लटका रहा जाता है
सिर्फ एक हैंगर के सहारे।
हाथ
अपने हाथों के बारे में हमेशा तुम सोचते थे
फिर एकदिन सचमुच ही तुम्हारा हाथ तुमसे गुम गया।
हाय, जिसे लेकर तुमने बहुत कुछ करने के सपने पाले थे गालों पे हाथ धरकर
पागलों की तरह दौड़ धूप किया, न जाने कितने दिन कितने महीने कितने साल-
पागलों की तरह सर पीटते पीटते फिर एक दिन तुम्हें नींद आ गयी।
बहुत रात गए तुम नींद से जागकर खिड़की के आगे आ खड़े हुए
खिड़की के पल्ले खुल गए
अद्भुत चांदनी में तुमने देखा एक विशाल मैदान में सोए हें
तुम्हारे दोनों हाथ। एकसार बारिस हो रही है हाथों के ऊपर, और
धीमी धीमी आवाज़ करते हुए घास उग रहे हें हाथों के इर्द गिर्द।
कान
एक कान देखना चाहता है अपने जोड़ीदार दूसरे कान को
एक कान कहना चाहता है दूसरे कान से न जाने कितनी बातें।
कभी मुलाक़ात नहीं होती दोनों की, बातें एक कान में बहुत गहरे धंसकर
दूसरे कान की गहराई से निकल पड़ती है, और अंततः
हवाओं में घुल मिल जाती है। दुःख और शर्म से
कुबरे होते होते एक दिन कान झड जाते हें, गिर पड़ते हें रास्तों में कहीं। पृथ्वी पे
इस तरह शुरू होती है कानहीन मनुष्यों की प्रजाति।
आज एक कानहीन आदमी का एक कानहीन लड़की से शादी है,
पसरकर बैठे हें देखो, उनके कानहीन दोस्त यार
कानी ऊँगली डुबाकर दही खाते खाते
न जाने कौन सी बात पे
हंस हंस कर दोहरे हुए जा रहे हें
रो रहे हें, सो रहे हें बिस्तरों पर।
(बुद्धदेब दासगुप्ता : ११ फ़रवरी १९४४ को जन्मे बुद्धदेब जाने माने फिल्मकार हैं। बाघ बहादुर, ताहादेर कथा, चराचर, उत्तरा, मंदों मेयेर उपाख्यान, कालपुरुष आदि फिल्मों के निर्देशक। देश विदेश में कई पुरस्कार। कविताए लिखते हैं। दो-चार कहानियां भी लिखी हैं।)
10 comments:
A Simple and Single word 'Fabulous!!'...
lajawab kar jane wali kavitaen hain kunal bhai. ummid hai buddhdew ki aur v poems post karenge aap. anuvad sundar hai. bahut bahut badhai
sooraj jaiswal, liluah
adbhut hai Kunal!Aapko hardik badhai.
sachmuch, adbhut poems hain. aur bhii poems translate kijie budhdeb dasgupta ki. is se pahle apke dwara egyptial poetry bhii padhi thi. wo bhii bahut achha poem tha.
sachmuch, adbhut poems hain. aur bhii poems translate kijie budhdeb dasgupta ki. is se pahle apke dwara egyptial poetry bhii padhi thi. wo bhii bahut achha poem tha.
raviranjan
sachmuch, adbhut poems hain. aur bhii poems translate kijie budhdeb dasgupta ki. is se pahle apke dwara egyptial poetry bhii padhi thi. wo bhii bahut achha poem tha.
raviranjan
ap sacmuch mihnat kar rahen apne blog ko lekar. bahut achhi baat hai
sushil kanti
बहुत अच्छी प्रस्तुति! राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
APKI FIRST POEM TELEPHONE KUCH SAMAJH MEIN NAHI AAYI. BAKI POEMS ACHCHI HAI.
.अच्छा लगा ये जानना के वे कविता भी लिखते है......हेंगर वाली कविता पसंद आई ....
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