'भाषासेतु' पर गुलज़ार एक बार फिर।
गुलज़ार
इक नज़्म यह भी
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूंथा करते थे
आँख लगाकर, कान बनाकर
नाक सजा कर
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला
तेरा उपला
अपने अपने जाने पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पर खेला करता था
मेरा उपला सूख गया
उसका उपला टूट गया
रात को आंगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर कर बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आई
किसका उपला राख हुआ
वह पंडित था
वह मास्टर था
इक मुन्ना था
इक दशरथ था
बरसों बाद
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक़्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!
6 comments:
ओर लोग कहते है गुलज़ार जिंदगी से सरोकार नहीं रखते.....मौत को किस तरह से याद किया है उन्होंने इस नज़्म में ......
अनुराग जी ! किसने कह दिया कि गुलजार जी का ज़िंदगी से वास्ता नही ? गुलजार जी की कलम से तो ज़िंदगी जन्मती है ।
गुलजार का जवाब नहीं... कल आज और कल कभी नहीं...
वे अपनी तरह के अकेले रचनाकार हैं...
जब गुलजार साहिब की यह नज्म पहली बार पढ़ी थी तब भी काफी समय तक इसकी गिरफ्त से नहीं निकल पाया था। आज आपने इसे पुन: पढ़ने पर विवश कर दिया। हाल मेरा वही पहले जैसा है। गुलजार साहिब की नज्मों में मेरी यह बेहद पंसदीदा नज्म है! उनकी कलम को चूम लेने को दिल करता है। बहुत खूब, बहुत सुन्दर, भीतर तक उतरती जाती नज्म !
NAJM BAHUT ACHI HAI.
BLOG PAR ISE DEKAR BAHUT ACHA KIYA. KYA MUJHE BLOG EDITORS KA CONTACT NOS MIL SAKTA HAI.
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