Thursday, May 20, 2010

फिलिस्तीनी कविता


बहुत दिनों के बाद 'भाषासेतु' के पाठकों से रू ब रू हुआ जा रहा है। दरअसल इन कुछ दिनों पढाई लिखी को लेकर कुछ व्यस्तता रही और हमारे दूसरे संपादक सुशील जी ने कलकत्ते में नयी नयी नौकरी संभाली है तो इत्तेफकान वे भी व्यस्त ही रहे।
बहरहाल, देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पे इस बार पेश है फिलिस्तीन के कवि ताहा मुहम्मद अली की कविता। इसका अनुवाद किया है मेरी एक 'प्राचीन' दोस्त विजया सिंह ने। विजया कलकत्ता विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रही हैं। खुश्कमिजाज़ (खुशमिजाज़ पढने की गलती मत कीजियेगा) विजया खुद बहुत अच्छी कवयित्री हैं। तो आइए पढ़ते हैं ताहा मुहम्मद अली की कविता। -कुणाल सिंह

ताहा मुहम्मद अली
अनुवाद : विजया सिंह

पेट्रोलियम की नसों में जमा खून
मैं बचपन में अतल गड्ढे में गिर पड़ा लेकिन
मैं नहीं मरा
जवानी में पोखर में डूब कर भी मैं नहीं मरा
और अब ईश्वर हमारी मदद करें-
मेरी आदतों का एक विद्रोही सैनिक
सीमा से लगे ज़मीनी विस्फोटकों की पलटन में दौड़ रहा है
जैसे मेरे गीत
मेरे युवा काल के दिन
तितर-बितर हो गए हैं
यहाँ एक फूल है, वहां एक चीख
और फिर भी मैं नहीं मरा

उन्होंने मेरी हत्या कर दी
दावत के लिए काटे गए मेमने की तरह-
पेट्रोलियम की नसों में जमा खून
ईश्वर का नाम लेकर उन्होंने मेरा गला चीरा
एक कान से दूसरे कान तक
हज़ारों बार
और हर बार गिरती रक्त की बूँदें
पीछे से आगे तक छलछला पड़ीं
जैसे फांसी लगे इंसान का आगे पीछे झूलता पैर
जो तभी स्थिर होता है
जब बड़े, रक्तिम औषधि वृक्ष पर फूल लग जाते हैं-
उसी आकाशदीप की भांति
जो भटके जलयानों को रास्ता दिखाता है
और राजभवनों तथा दूतावासों की
स्थिति चिह्नित करता है

और कल
ईश्वर हमारी मदद करें-
फोन नहीं बजेगा
फिर चाहे वह वेश्यालय में हो या किले में
या एकाकी पड़े बादशाह के पास
वह मेरे पूर्ण विनाश का इच्छुक है
लेकिन
जैसा कि औषधि वृक्ष ने बताया है
और जैसा सरहदें भी जानती हैं
मैं नहीं मरूँगा! मैं कभी नहीं मरूँगा!
मैं सतत रहूँगा-
हथगोलों में छर्रों की तरह
गर्दन पर टिके चाकू की तरह
मैं हमेशा रहूँगा-
रक्त के एक धब्बे में
एक बादल के आकार में
इस संसार की कमीज़ पर!
(तस्वीर विजया की है)

9 comments:

girirajk said...

tumharee is 'pracheen' kavitai dost ko main janta hoon shayad, kabhee unse baat hui hai. khud unki kavitayen lagao ya hamein bhej do.

Kunal Singh said...

han giriraj bhai, ye wahi vijaya singh hain jinki kavitaen kav 'kavitaee' men publish hui thin. jaldi hi unki kuchh kavitaen post karne ki koshish karunga. pata nahin ab v wo likhti hain ki nahin.baharhal, koshish karne men kya harj hai
kunal singh

Anonymous said...

very good, kavita ka chayan achha raha

shesnath pandey said...

कविता में एक उद्विग्न खींचाव है... जैसे घर के दुख के साथ बार-बार लौटना होता है...कविता अपने भावों से संवेदना की अलग जमीन तैयार कर रही है...जहाँ किसी अनावश्यक विमर्श से जादा आदमी के होने की बात है... कविता पढ़्ते हुए उदय प्रकाश की कहानी टेपचू याद आती रही... भाषासेतु ने इस कविता को लाकर अच्छा काम किया है... अनुवाद के लिए विजया जी को भी बधाई...

सोनू said...

विजयाजी ने यह अनुवाद अरबी से किया है या अंग्रेज़ी से?

कुणालजी आप जेएनयू में ही हैं तो वहाँ से कोई विदेशी भाषा सीखने का विचार किया है कभी?

Kunal Singh said...

vijaya ji ne ye anuvad english se kiya hai.
han, ek bar zid chadhi thi ki marqez ko sidhe spanish men padhun. spanish sikhna shuru v kiya tha. 2-3 maheene tak gaya v, but kafi mahanga hone ki wajah se, aur roji-roti ke chakkar men padhai adhbich hi chhod deni padi. 'como te llamas' aur 'que tal' se aage kuchh hath nahin aaya. kabhi kabhi 'thank u very much' ki jagah 'muchas grasias' ya 'very good' ki jagah 'mue biyen' kah k santosh kar leta hun.but kabhi jaroor sikhunga spanish. filhal to apko muchas grasias ki apne ye janne ki ichha jatai
kunal singh

सोनू said...
This comment has been removed by the author.
सोनू said...

पिछली टिप्पणी में प्रभाती नौटियाल का लिंक छूट गया।

http://www.apnauttarakhand.com/prabhati-nautiyal/

सोनू said...

और भारतीय भाषा ज्योति का लिंख भी नहीं आ पाया

http://www.ciil-ebooks.net/html/bbjbengali/coverpage.html