(मिहिर सरकार की कविता बाघ। मिहिर सरकार का जन्म १० नवम्बर १९५३ को हुआ था. अबतक उनके ७ काव्य संग्रह और कहानियों की किताब भी प्रकाशित हो चुकी हैं। उनका संपर्क सूत्र : ०९८३०३४७८७५)
बाघ
हो सके तो बाघ पालिए
घर में अगर बाघ हो तो देनदार नहीं आते
तंग नहीं करते छोटे-मोटे जानवर
नाप-तौलकर, हंसकर बातें करेंगे
शत्रु-मित्र सभी
इसीलिए अब बाघ पाल सकते हैं
समाज के सारे बघा ऐसे ही जीते हैं.
अनुवाद : सुशील कान्ति
Monday, November 29, 2010
Wednesday, November 24, 2010
निकानोर पार्रा की कवितायेँ
चिली के अनिवार्य कवि निकानोर पार्रा की इन चार कविताओं का अनुवाद 'मनोज पटेल' का है। मनोज ने थोड़े ही समय में अनुवाद की दुनिया में एक अच्छा मुकाम हासिल कर लिया है। अनुवादों में भाव को मूल कथ्य के बेहद करीब तक पहुंचाते हुए, उनकी कड़ी मेहनत साफ़ झलकती है। दूसरी अनेक भाषाओं से बहुतेरी रचनाओं के अनुवाद के लिए मनोज का ब्लॉग http://www.padhte-padhte.blogspot.com देख सकते हैं।
निकानोर पार्रा के बारे में अधिक जानकारी के लिए इस हाइपर लिंक पर क्लिक करें।
ताकीद
अगर यह चुप्पी को पुरस्कृत करने का मामला है
जैसा कि यहाँ मुझे लग रहा है
तो किसी और ने नहीं बनाया है खुद को इतना काबिल
सबसे कम फलदायी रहा हूँ मैं
सालों साल छपाया नहीं कुछ भी
आदी मानता हूँ खुद को
कोरे कागजों का
उसी जान रुल्फो की तरह
जिसने लिखा नहीं उससे ज्यादा एक भी लफ्ज़
जितना कि था बहुत जरूरी.
* *
शांतिपूर्ण रास्ते पर आस्था नहीं मेरी
हिंसक रास्ते पर आस्था नहीं है मेरी
होना चाहता हूँ किसी चीज पर आस्थावान
लेकिन नहीं होता
आस्थावान होने का मतलब है आस्था ईश्वर में
ज्यादा से ज्यादा
झटक सकता हूँ अपने कंधे
माफ़ करें मुझे इतना रूखा होने की खातिर
मुझे तो भरोसा नहीं आकाशगंगा में भी.
* *
पखाने पर मक्खियाँ
इन कृपालु सज्जन से - पर्यटक से - क्रांतिकारी से
करना चाहता हूँ एक सवाल :
क्या देखी है कभी आपने मक्खियों की एक सेना
पखाने के ढेर पर चक्कर लगाती
उतरती फिर काम को जाती पखाने पर ?
क्या देखी हैं आपने पखाने पर मक्खियाँ आज तक कभी ?
क्योंकि मैं पैदा और बड़ा हुआ
पखाने से घिरे घर में मक्खियों के साथ.
* *
ईश्वर से प्रार्थना
परमपिता जो विराजते हैं स्वर्ग में
हैं तरह-तरह की मुश्किलों में
त्योरी से तो लगता है उनकी
कि हैं वो भी एक आम इंसान.
ज्यादा फ़िक्र न करें आप हमारी प्रभु.
हमें पता है कि हैं आप कष्ट में
क्योंकि घर अपना व्यवस्थित नहीं कर पा रहे आप.
पता है हमें कि शैतान नहीं रहने देता आपको चैन से
बरबाद कर देता है आपकी हर रचना को.
वो हंसता है आप पर
मगर रोते हैं हम आपके साथ.
परमपिता आप जहां हैं वहां हैं
गद्दार फरिश्तों से घिरे.
सचमुच
हमारे लिए कष्ट मत उठाइए ज्यादा.
आखिर समझना चाहिए आपको
कि अचूक नहीं होते ईश्वर
और हम माफ़ कर देते हैं सबकुछ.
निकानोर पार्रा के बारे में अधिक जानकारी के लिए इस हाइपर लिंक पर क्लिक करें।
ताकीद
अगर यह चुप्पी को पुरस्कृत करने का मामला है
जैसा कि यहाँ मुझे लग रहा है
तो किसी और ने नहीं बनाया है खुद को इतना काबिल
सबसे कम फलदायी रहा हूँ मैं
सालों साल छपाया नहीं कुछ भी
आदी मानता हूँ खुद को
कोरे कागजों का
उसी जान रुल्फो की तरह
जिसने लिखा नहीं उससे ज्यादा एक भी लफ्ज़
जितना कि था बहुत जरूरी.
* *
शांतिपूर्ण रास्ते पर आस्था नहीं मेरी
हिंसक रास्ते पर आस्था नहीं है मेरी
होना चाहता हूँ किसी चीज पर आस्थावान
लेकिन नहीं होता
आस्थावान होने का मतलब है आस्था ईश्वर में
ज्यादा से ज्यादा
झटक सकता हूँ अपने कंधे
माफ़ करें मुझे इतना रूखा होने की खातिर
मुझे तो भरोसा नहीं आकाशगंगा में भी.
* *
पखाने पर मक्खियाँ
इन कृपालु सज्जन से - पर्यटक से - क्रांतिकारी से
करना चाहता हूँ एक सवाल :
क्या देखी है कभी आपने मक्खियों की एक सेना
पखाने के ढेर पर चक्कर लगाती
उतरती फिर काम को जाती पखाने पर ?
क्या देखी हैं आपने पखाने पर मक्खियाँ आज तक कभी ?
क्योंकि मैं पैदा और बड़ा हुआ
पखाने से घिरे घर में मक्खियों के साथ.
* *
ईश्वर से प्रार्थना
परमपिता जो विराजते हैं स्वर्ग में
हैं तरह-तरह की मुश्किलों में
त्योरी से तो लगता है उनकी
कि हैं वो भी एक आम इंसान.
ज्यादा फ़िक्र न करें आप हमारी प्रभु.
हमें पता है कि हैं आप कष्ट में
क्योंकि घर अपना व्यवस्थित नहीं कर पा रहे आप.
पता है हमें कि शैतान नहीं रहने देता आपको चैन से
बरबाद कर देता है आपकी हर रचना को.
वो हंसता है आप पर
मगर रोते हैं हम आपके साथ.
परमपिता आप जहां हैं वहां हैं
गद्दार फरिश्तों से घिरे.
सचमुच
हमारे लिए कष्ट मत उठाइए ज्यादा.
आखिर समझना चाहिए आपको
कि अचूक नहीं होते ईश्वर
और हम माफ़ कर देते हैं सबकुछ.
Sunday, November 21, 2010
गौरव सोलंकी की कविताएँ
अभिव्यक्ति की राह में, शब्द दर शब्द, दूर से दूर तक की यात्राओं को सहज ही पूरा करते चलने वाले विरले कवि हैं गौरव सोलंकी। बिलकुल नया कवि होना इनके परिचय में कहा जाने वाला दूसरा वाक्य है। कहानियाँ भी लिखते हैं। 'भाषासेतु' पर उनकी दो कवितायें... जिनमें से एक, ‘सौ साल फिदा’, उनके पहले काव्य संग्रह का भी नाम होने जा रहा है। ‘सौ साल फिदा’ की पांडुलिपि लगभग तैयार है। भाषासेतु की तरफ से गौरव को ढेर सारी शुभकामनाएँ....
सौ साल फ़िदा
तुम अचानक अँधेरे का बटन दबाओ
पट्टियाँ उतारो, पहनो कपड़े
हम अपने भविष्य पर न फेंके चबे हुए नाखून
देर से जगें तो पछताएं नहीं
इधर कुछ दिन, जब भूख उतनी पुख़्ता नहीं लगती
हम दीवारों में सूराख करना सीखें
एक रंग पर होना सौ साल फ़िदा
एक ज़िद पर रहना आत्मघाती होने की हद तक कायम
जब मैं तुम्हारे बारे में बता रहा होऊँ
तब मेरी आँखें खुली रहें
मैं पानी मांगूं और हंसूं, खनखनाऊं
फिर मांगूं पानी, भर लूं आँख
और रोशनी हो जब डरने के नाटक के बीच
तब हम किसी फ़साद में अपने नामों के साथ मारे जा रहे हों
नाम चिढ़ाने के हों तो बेहतर है
शहादत महसूस हो ग़लतफ़हमी की तरह
जैसा उसे अक्सर बताया जाता है
बच्चों को बचाने के इंतज़ाम करते हुए न चला जाए सारा बचपना
दर्द इतना ही हो कि ख़त्म हो जाए कहानियों में
पिंजरे इतने छोटे पड़ें कि पैदा होते ही उनसे खेला जा सके बस
शहर इतने बड़े हों, लोग इतने ज़्यादा कि उम्र बीते उन्हें भुलाने में
बर्फ़ इतनी थोड़ी हो कि उसे माँगते हुए झगड़े हों, पहले मिन्नतें और शर्म आए
शरबत की ख़्वाहिश में कटे पूरा जून
नहर के किनारे बैठी हो मौत
उसकी उम्मीद में तकते हुए लड़कियाँ
हम अपना डरपोक होना जानें
खिड़कियों की नाप लेते हुए
जरूरी है कि हम खुलकर साँस ले रहे हों
जब जीतें तो हौसले की बातें न करें
करोड़ों साल बाद की किसी रेलगाड़ी की सुबह के चार बजे
काँपते हुए सर्दी, बाँधते हुए बिस्तर
याद आएं तुम्हारे सोने के ढंग
सोना आदत न बने।
उसके पीछे हमारी पागल गायें
हम सुबह से सोचते थे कि मारे जाएंगे
बिजली भागती थी
उसके पीछे हमारी पागल गायें
और इस तरह हम अनाथ होते थे
बाड़ में कुछ फूल उग आए थे
जिनका नाम रखा गया इंदिरा गाँधी के नाम पर
होते गए हमारे नाक बन्द मरते गए डॉक्टर
एक गाली लगातार तैरती थी क्रिकेट मैचों के बीच
मेरी बहन ने पहले हमारे खेल देखना
फिर रस्सी कूदना छोड़ा
खुले दरवाजे से बिस्किट खाते हुए आए पिता
और पीली दीवार के सामने फेरे हुए
जिस पर से शाहरुख ख़ान की तस्वीर सुबह हटाई गई थी
मुझे लगी थी भूख और सारी तस्वीरें उदास आईं
एलबम बाँधकर हमने सोचा कि तीन हजार में खरीदा जा सकता था कूलर
बाद में तीन अच्छी लड़कियों की एक-एक रात
पहले कभी पिताजी के लिए नौकरी
या कभी भी साढ़े चार पुलिस वाले
शोर जब खूब होता था
मैंने तुम्हारे गले पर रखा अपना चुभने वाला हाथ
और यूँ तुम्हारी आवाज को खा गया बिल्कुल मासूम
पापा जब बिस्किट खरीद रहे थे खुश
तब मैंने खोला था दरवाजा
और तुम बन्द हो गई थी
हम सबने शुरु से तय किया था
कि तुम्हारी हर चिट्ठी पढ़ा करेंगे
खूब था गोंद और खोलकर चिपकाते थे
उत्सव हुआ जैसे थी आदत
फिर पीछे फूल और चांदी फेंकी गई
जब सब लौटे
तब दूर से हमें रोते हुए दिखाई देना था
वीडियो कैसेट में हम गोरे लग रहे थे
नए थे गाने
तुम अचानक अँधेरे का बटन दबाओ
पट्टियाँ उतारो, पहनो कपड़े
हम अपने भविष्य पर न फेंके चबे हुए नाखून
देर से जगें तो पछताएं नहीं
इधर कुछ दिन, जब भूख उतनी पुख़्ता नहीं लगती
हम दीवारों में सूराख करना सीखें
एक रंग पर होना सौ साल फ़िदा
एक ज़िद पर रहना आत्मघाती होने की हद तक कायम
जब मैं तुम्हारे बारे में बता रहा होऊँ
तब मेरी आँखें खुली रहें
मैं पानी मांगूं और हंसूं, खनखनाऊं
फिर मांगूं पानी, भर लूं आँख
और रोशनी हो जब डरने के नाटक के बीच
तब हम किसी फ़साद में अपने नामों के साथ मारे जा रहे हों
नाम चिढ़ाने के हों तो बेहतर है
शहादत महसूस हो ग़लतफ़हमी की तरह
जैसा उसे अक्सर बताया जाता है
बच्चों को बचाने के इंतज़ाम करते हुए न चला जाए सारा बचपना
दर्द इतना ही हो कि ख़त्म हो जाए कहानियों में
पिंजरे इतने छोटे पड़ें कि पैदा होते ही उनसे खेला जा सके बस
शहर इतने बड़े हों, लोग इतने ज़्यादा कि उम्र बीते उन्हें भुलाने में
बर्फ़ इतनी थोड़ी हो कि उसे माँगते हुए झगड़े हों, पहले मिन्नतें और शर्म आए
शरबत की ख़्वाहिश में कटे पूरा जून
नहर के किनारे बैठी हो मौत
उसकी उम्मीद में तकते हुए लड़कियाँ
हम अपना डरपोक होना जानें
खिड़कियों की नाप लेते हुए
जरूरी है कि हम खुलकर साँस ले रहे हों
जब जीतें तो हौसले की बातें न करें
करोड़ों साल बाद की किसी रेलगाड़ी की सुबह के चार बजे
काँपते हुए सर्दी, बाँधते हुए बिस्तर
याद आएं तुम्हारे सोने के ढंग
सोना आदत न बने।
उसके पीछे हमारी पागल गायें
हम सुबह से सोचते थे कि मारे जाएंगे
बिजली भागती थी
उसके पीछे हमारी पागल गायें
और इस तरह हम अनाथ होते थे
बाड़ में कुछ फूल उग आए थे
जिनका नाम रखा गया इंदिरा गाँधी के नाम पर
होते गए हमारे नाक बन्द मरते गए डॉक्टर
एक गाली लगातार तैरती थी क्रिकेट मैचों के बीच
मेरी बहन ने पहले हमारे खेल देखना
फिर रस्सी कूदना छोड़ा
खुले दरवाजे से बिस्किट खाते हुए आए पिता
और पीली दीवार के सामने फेरे हुए
जिस पर से शाहरुख ख़ान की तस्वीर सुबह हटाई गई थी
मुझे लगी थी भूख और सारी तस्वीरें उदास आईं
एलबम बाँधकर हमने सोचा कि तीन हजार में खरीदा जा सकता था कूलर
बाद में तीन अच्छी लड़कियों की एक-एक रात
पहले कभी पिताजी के लिए नौकरी
या कभी भी साढ़े चार पुलिस वाले
शोर जब खूब होता था
मैंने तुम्हारे गले पर रखा अपना चुभने वाला हाथ
और यूँ तुम्हारी आवाज को खा गया बिल्कुल मासूम
पापा जब बिस्किट खरीद रहे थे खुश
तब मैंने खोला था दरवाजा
और तुम बन्द हो गई थी
हम सबने शुरु से तय किया था
कि तुम्हारी हर चिट्ठी पढ़ा करेंगे
खूब था गोंद और खोलकर चिपकाते थे
उत्सव हुआ जैसे थी आदत
फिर पीछे फूल और चांदी फेंकी गई
जब सब लौटे
तब दूर से हमें रोते हुए दिखाई देना था
वीडियो कैसेट में हम गोरे लग रहे थे
नए थे गाने
Monday, November 15, 2010
बनारस : होर्खे लुइस बोर्खेस की कविता!
दर्शन के लिये दृश्य की भौतिक मौजूदगी कतई अनिवार्य नहीं. बल्कि कल्पना के सहारे भी उसका विधान किया जा सकता है. और द्रष्टा जब ‘समय और भूगोल’ से परे के समय और भूगोल को देख सकने की सलाहियत रखता हो, तो यथार्थ के दृश्य और कल्पना के दृश्य के बीच भेद की गुंजाइश ऐसे ही न्यूनतम हो जाती है. बनारस शहर पर, लिखने वालों ने यूँ तो बहुत कुछ लिखा है, वहाँ रहकर और वहाँ से जाकर भी, लेकिन बोर्खेस ने यह कविता उस बनारस पर लिखी है, जिसे उन्होंने अपनी आँखों से कभी नही देखा...
बनारस
कोई भ्रम, कोई तिलिस्म
जैसे आईने में उगता किसी उपवन का बिंब,
इन आँखों से अदेखा
एक शहर, शहर मेरे ख्वाबों का,
जो बटता है फासलों को
रेशों से बटी रस्सी की मानिंद
और करता रहता है परिक्रमा
अपने ही दुर्गम भवनों की.
मंदिरों, कूडे के पहाडों, चौक और कारागारों तक से
अंधेरे को खाक करती
चटकार धूप
चढ आती है दीवारों के ऊपर तक
और चमकती रहती है
पावन नदी के छ्ल छल पानी में.
गहरी उसाँसें भरता शहर,
जो बिखेर देता है समूचे क्षितिज पर
सितारों का घना झुंड,
नींद और चहलकदमी से सनी
एक उनींदी सुबह में
रोशनी उसकी गलियों को
खोलती है
मानो खोलती हो अपनी बाहें.
ठीक तभी उठता है सूर्य,
पूर्व में देखती चीजों के कपाट पर
डालता है अपने उजाले की दृष्टि.
मस्जिदों के शिखर से उठती अजान
हवा को गंभीर बनाती
करने लगती है जय-जयकार
एकांत के देवता की
अन्यान्य देवों के उस नगर में।
बनारस
कोई भ्रम, कोई तिलिस्म
जैसे आईने में उगता किसी उपवन का बिंब,
इन आँखों से अदेखा
एक शहर, शहर मेरे ख्वाबों का,
जो बटता है फासलों को
रेशों से बटी रस्सी की मानिंद
और करता रहता है परिक्रमा
अपने ही दुर्गम भवनों की.
मंदिरों, कूडे के पहाडों, चौक और कारागारों तक से
अंधेरे को खाक करती
चटकार धूप
चढ आती है दीवारों के ऊपर तक
और चमकती रहती है
पावन नदी के छ्ल छल पानी में.
गहरी उसाँसें भरता शहर,
जो बिखेर देता है समूचे क्षितिज पर
सितारों का घना झुंड,
नींद और चहलकदमी से सनी
एक उनींदी सुबह में
रोशनी उसकी गलियों को
खोलती है
मानो खोलती हो अपनी बाहें.
ठीक तभी उठता है सूर्य,
पूर्व में देखती चीजों के कपाट पर
डालता है अपने उजाले की दृष्टि.
मस्जिदों के शिखर से उठती अजान
हवा को गंभीर बनाती
करने लगती है जय-जयकार
एकांत के देवता की
अन्यान्य देवों के उस नगर में।
(और जबकि मैं खेल रहा हूँ
उसके अस्तित्व की ख़ालिश कल्पनाओं से,
वह शहर अब भी आबाद है
दुनिया के तयशुदा कोने में,
अपने निश्चित भूगोल के साथ
जिसमें मेरे सपनों की तरह भरे लोग हैं,
और हैं अस्पताल, बैरक और पीपल के छाँव वाली
सुस्त गलियाँ
और पोपले होंठों वाले लोग भी
जिनके दाँत हमेशा कठुआए रहते हैं)।
प्रस्तुति तथा (मूल स्पैनिश से) अनुवाद : श्रीकांत दुबे
Thursday, November 11, 2010
उपन्यास अंश
देह
मिलान कुन्देरा
अनुवाद : कुणाल सिंह
मिलान कुन्देरा मेरे प्रिय उपन्यासकार रहे हैं। पिछले दिनों उनके शुरुआती उपन्यासों में से एक Immortility को फिर से पढ़ रहा था। मिलान में ऐसा क्या है जो उन्हें जितनी बार पढ़ो मन नहीं भरता। वे एक ऐसे लेखक हैं जिनसे मुझे ईर्ष्या होती है। मार्केस, काल्विनो भी मुझे पसन्द हैं, नये लेखकों में रोबेर्तो बोलान्यो (हालाँकि यदि वे होते तो पचास पार कर गये होते) का भी जवाब नहीं, लेकिन रश्क सिर्फ कुंदेरा से होता है। ‘इम्मॉर्टैलिटी’ वस्तुत: दो बहनों एग्नेस और लॉरा की कहानी है, जो सगी होते हुए भी स्वभाव के दो अतिछोरों पर खड़ी हैं। पेश है इस उपन्यास का एक छोटा सा अंश। प्रसंगवश, इस अंश के शुरुआती हिस्से में दाली दम्पती का जो वर्णन है, मुझे बारहाँ उस पगले बंगाली संत की याद दिलाता है जो श्री रामकृष्ण परमहंस के समकालीन थे और माँ काली के अनन्य भक्त। वे कहते थे कि काली से वे इतना प्रेम करते हैं कि उनका जी करता है वे काली को खा जाएँ— ‘ए बार काली तोमाय खाबो।’
यारो, मेरा भी मन करता है कि मैं कुंदेरा को मार कर खा जाऊँ। कसम से...
अपने बुढ़ापे में मशहूर चित्रकार सल्वादोर दाली और उसकी बीवी गाला ने एक खरगोश को पाला। कुछ ही दिनों में वह खरगोश दाली दम्पती से काफी घुल-मिल गया, उन्हीं के बिस्तर में सोता, वे जहाँ कहीं जाते पीछे-पीछे लग लेता। पति-पत्नी भी उससे बहुत प्यार करते थे, बल्कि कहें कि उनकी जान बसती थी उस खरगोश में।
एक बार लम्बे अरसे के लिए उन्हें कहीं बाहर जाना था। रात में सोने से पेश्तर उनके बीच इस बात को लेकर देर तक बहस हुई कि इस दौरान खरगोश का क्या किया जाए। उसे साथ लिये जाना मुश्किल था और उतना ही मुश्किल यह भी था कि इस बीच के लिए उसे किसी और को सिपुर्द कर दिया जाए, क्योंकि अजनबियों के साथ उस खरगोश की क्या हालत होती थी, पति-पत्नी से यह छिपा न था। दूसरे दिन निकलने से पहले गाला ने भोजन तैयार किया। निहायत ही सुस्वाद भोजन था और दाली ने खूब चाव से खाया। इस बात का उसे बाद में पता चलना था कि वह जो खा रहा है, कुछ और नहीं उसी खरगोश का गोश्त है। जब गाला ने बताया, वह मेज़ से उठकर बाथरूम की तरफ भागा, कै करने लगा। सामने बेसिन में उस अजीज खरगोश के चन्द लोथड़े पड़े थे।
दूसरी तरफ गाला खुश थी। वह खुश थी कि उसने जिस खरगोश को इतना प्यार दिया था, उस लाडले ने कहीं और नहीं, अन्तत: उसके पेट में शरण पायी। अब वह खुद उसकी देह का हिस्सा है, अमर्त्य होकर शिराओं-धमनियों में उसके लहू के साथ बहता हुआ, उसके हृदय में धड़कता हुआ। कहना न होगा, गाला के लिए प्यार की इससे बढ़कर और कोई तृप्ति न थी कि जिसे प्यार किया जाए उसे खा लिया जाए, पूरी तरह अपने अमाशय में पचा लिया जाए। दो देहों का यह जो एकमेक होना था, उसे फिलवक्त वैसे ही गुदगुदा रहा था जैसे वह संसर्ग कर रही हो।
लॉरा का स्वभाव गाला की तरह था, जबकि एग्नेस की तबीयत दाली से मिलती-जुलती थी। यह ठीक था कि लोगों से मिलना, बातें करना, दोस्ती इत्यादि की शमूलियत एग्नेस की पसन्द में थी, लेकिन वह सोचती थी कि एक बार अगर किसी व्यक्ति से उसकी प्रगाढ़ता हो गयी तो इस मैत्री की पूर्वशर्त है कि आइन्दा वह उस व्यक्ति की सेवाटहल करे, मसलन उसे उसकी बहती हुई नाक को पोंछना होगा। इसलिए वह इस झंझट से दूर ही रहना चाहती थी। दूसरी तरफ लॉरा के लिए यह सब सहज स्वीकार्य था। वह देह को, अपनी और उस ‘दूसरे’ की देह को नकारना नहीं जानती थी। वह एग्नेस से पूछा करती थी : जब तुम्हें कोई आकर्षित करे तो तुम्हारे लिए इसका क्या मतलब होगा? ऐसी भावनाओं को महसूस करते वक्त तुम देह को, देह की शर्तों को क्यों दरकिनार कर देती हो? एक व्यक्ति, जिसकी देह की स्मृतियों को तुम पूरी तरह से मिटा दो, वह एक व्यक्ति के तौर पर आखिर कितना बचा-खुचा रह सकेगा?
हाँ, लॉरा एकदम गाला की तरह थी। वह अपनी देह को अपनी पहचान में शामिल रखती थी। देह उसके लिए एक घर था जहाँ उसकी आत्मा की रहनवारी होती थी और वह बखूबी जानती थी कि आईने के आगे खड़े होने से उसमें जो अक्स दिखता है, महज उतने भर के आयतन में ही देह नहीं होती, देह जितनी बाहर छलकी पड़ रही होती है उतनी भीतर भी धँसी हुई। इसी वजह से उसकी दैनन्दिन बातचीत में आंगिक प्रत्ययों और सन्दर्भों की भरमार होती है। अगर उसे कहना हो कि गयी रात उसे उसके प्रेमी ने निराश किया तो वह कहेगी कि वह मेरे अंग-अंग में आग लगाकर चला गया। यहाँ तक कि वह अक्सर उल्टी या दस्त के बारे में बेधड़क बातें छेड़ देती, भले (एग्नेस को लगता था) उसे उन दिनों उल्टियाँ आती हों या नहीं। उल्टी आये या नहीं, क्या फर्क पड़ता है! लॉरा के लिए कै करने के बारे में कहना कै करने की सचाई का मुहताज नहीं, उसके लिए यह ‘तथ्य’ नहीं, ‘काव्य’ है, एक रूपक है, उसकी पीड़ा और घृणा जैसी भावनाओं की एक प्रगीतात्मक छवि है।
एक बार दोनों बहनें एक दुकान में गयीं जहाँ उन्हें अपने लिए कुछ अधोवस्त्र खरीदने थे। एग्नेस ने देखा कि लॉरा उस ब्रेसरी को बहुत दुलार से सहला रही है जिसे दुकान पर बैठी हुई औरत दिखा रही थी। यह उन कुछ दुर्लभ क्षणों में से एक था जब एग्नेस को, उसकी बहन और उसमें क्या अन्तर है, प्रत्यक्षत: दिख जाता है। एग्नेस के लिए ब्रेसरी एक ऐसी चीज है जिसका आविष्कार औरतों की देह में किसी कुदरती कमी को दुरुस्त करने के लिए हुआ है— मसलन घाव के लिए बैंडेज या किसी लँगड़े के लिए नकली पाँव, मसलन नजर का चश्मा या गरदन में मोच आने के बाद लोगों द्वारा पहना जाने वाला मोटा कॉलर। एग्नेस यह मानती थी कि ब्रेसरी को महज इसलिए पहनना चाहिए कि वे उस अंग को सँभाले रखे जो भूलवश अपना प्राकृतिक आकार विद्रूप कर चुका है, ठीक वैसे जैसे किसी गलत तरीके से निर्मित परछत्ती को सँभाले रखने के लिए मेहराबों की जरूरत पड़े।
देह के मामले में एग्नेस को अपने पति पॉल से ईर्ष्या होती थी। पुरुष होने के नाते उसे दफ्फातन अपनी देह की फिक्र में जुते नहीं रहना पड़ता था। वह बेलौस अपने फेफड़ों में साँसें भरता था, जम्हुआई लेता था, कहें खुशी-खुशी अपनी देह को भूले रहता था। न ही एग्नेस ने उसके मुँह से कभी सुना कि उसे कोई शारीरिक तकलीफ है। उसका स्वभाव भी कुछ ऐसा था कि वह बीमारी को किसी शारीरिक अपूर्णता की तरह लेता था। वर्षों से उसके पेट में अल्सर था लेकिन एग्नेस को इस बाबत तब पता चला जब एक दिन उसके दुआर पर एम्बुलेंस आकर रुका। एग्नेस को प्रतीत होता था कि यद्यपि इस मामले में पॉल को दूसरे मर्दों के बनिस्पत अपवाद माना जाए, फिर भी उसका यह ‘अभिमान’ बहुत कुछ जतला देता है कि एक मर्द और स्त्री की देहों के विभेद क्या और कैसे हैं! एक स्त्री अपनी दैहिक तकलीफों के बारे में अक्सर बतियाती रहती है, उसे यह वरदान नहीं मिला कि एक क्षण के लिए भी वह अपनी देह को बिसार सके। वय:सन्धि से ही इस चौकन्नेपन की शुरुआत हो जाती है जब पहली बार अपनी देह का खून उसे लिजलिजे सन्दर्भ से रिसता दिखता है। वहीं से देह अपनी विकरालता के साथ उसके समक्ष उपस्थित हो जाता है और उसकी हालत उतनी ही दयनीय हो उठती है जितनी किसी उस मरियल मजदूर की हो जिसे अकेले ही एक कारखाना चलाने के लिए छोड़ दिया जाए। हर महीने पट्टियों को बदलते रहना, गर्भ निरोधक गोलियों को निगलना, ब्रेसरी को सुव्यवस्थित रूप से गाँठना, बच्चे जनने के लिए तैयार होना। शायद इसी वजह से एग्नेस बूढ़े लोगों को ईर्ष्या की नजरों से देखती है। उसे लगता है कि बूढ़े किसी और जहान में रहते हैं। खुद उसके पिता बढ़ती उम्र के साथ अपनी ही प्रतिछाया में सिमट कर रह गये थे। यह किसी भौतिक का अभौतिक में रूपान्तरित हो जाना था, यह कुछ वैसे था जैसे दुनिया में एक आत्मा विचर रही हो जिससे उसकी देह का विसर्जन हो चुका हो। इसके विपरीत, औरतें जैसे-जैसे बुढ़ाती जाती है वैसे-वैसे उनकी आत्मा में देहतत्त्व और से और चस्पाँ होता जाता है। उसकी देह भारी और बोझिल होती जाती है—जैसे कोई पुराना कारखाना अपनी विनष्टि के कगार पर है और विडम्बना देखिए कि खुद उस औरत को किसी केयरटेकर की मानिन्द उस कारखाने का समूल उजडऩा देखना होता है—अन्त तक।
मिलान कुन्देरा
अनुवाद : कुणाल सिंह
मिलान कुन्देरा मेरे प्रिय उपन्यासकार रहे हैं। पिछले दिनों उनके शुरुआती उपन्यासों में से एक Immortility को फिर से पढ़ रहा था। मिलान में ऐसा क्या है जो उन्हें जितनी बार पढ़ो मन नहीं भरता। वे एक ऐसे लेखक हैं जिनसे मुझे ईर्ष्या होती है। मार्केस, काल्विनो भी मुझे पसन्द हैं, नये लेखकों में रोबेर्तो बोलान्यो (हालाँकि यदि वे होते तो पचास पार कर गये होते) का भी जवाब नहीं, लेकिन रश्क सिर्फ कुंदेरा से होता है। ‘इम्मॉर्टैलिटी’ वस्तुत: दो बहनों एग्नेस और लॉरा की कहानी है, जो सगी होते हुए भी स्वभाव के दो अतिछोरों पर खड़ी हैं। पेश है इस उपन्यास का एक छोटा सा अंश। प्रसंगवश, इस अंश के शुरुआती हिस्से में दाली दम्पती का जो वर्णन है, मुझे बारहाँ उस पगले बंगाली संत की याद दिलाता है जो श्री रामकृष्ण परमहंस के समकालीन थे और माँ काली के अनन्य भक्त। वे कहते थे कि काली से वे इतना प्रेम करते हैं कि उनका जी करता है वे काली को खा जाएँ— ‘ए बार काली तोमाय खाबो।’
यारो, मेरा भी मन करता है कि मैं कुंदेरा को मार कर खा जाऊँ। कसम से...
कुणाल सिंह
अपने बुढ़ापे में मशहूर चित्रकार सल्वादोर दाली और उसकी बीवी गाला ने एक खरगोश को पाला। कुछ ही दिनों में वह खरगोश दाली दम्पती से काफी घुल-मिल गया, उन्हीं के बिस्तर में सोता, वे जहाँ कहीं जाते पीछे-पीछे लग लेता। पति-पत्नी भी उससे बहुत प्यार करते थे, बल्कि कहें कि उनकी जान बसती थी उस खरगोश में।
एक बार लम्बे अरसे के लिए उन्हें कहीं बाहर जाना था। रात में सोने से पेश्तर उनके बीच इस बात को लेकर देर तक बहस हुई कि इस दौरान खरगोश का क्या किया जाए। उसे साथ लिये जाना मुश्किल था और उतना ही मुश्किल यह भी था कि इस बीच के लिए उसे किसी और को सिपुर्द कर दिया जाए, क्योंकि अजनबियों के साथ उस खरगोश की क्या हालत होती थी, पति-पत्नी से यह छिपा न था। दूसरे दिन निकलने से पहले गाला ने भोजन तैयार किया। निहायत ही सुस्वाद भोजन था और दाली ने खूब चाव से खाया। इस बात का उसे बाद में पता चलना था कि वह जो खा रहा है, कुछ और नहीं उसी खरगोश का गोश्त है। जब गाला ने बताया, वह मेज़ से उठकर बाथरूम की तरफ भागा, कै करने लगा। सामने बेसिन में उस अजीज खरगोश के चन्द लोथड़े पड़े थे।
दूसरी तरफ गाला खुश थी। वह खुश थी कि उसने जिस खरगोश को इतना प्यार दिया था, उस लाडले ने कहीं और नहीं, अन्तत: उसके पेट में शरण पायी। अब वह खुद उसकी देह का हिस्सा है, अमर्त्य होकर शिराओं-धमनियों में उसके लहू के साथ बहता हुआ, उसके हृदय में धड़कता हुआ। कहना न होगा, गाला के लिए प्यार की इससे बढ़कर और कोई तृप्ति न थी कि जिसे प्यार किया जाए उसे खा लिया जाए, पूरी तरह अपने अमाशय में पचा लिया जाए। दो देहों का यह जो एकमेक होना था, उसे फिलवक्त वैसे ही गुदगुदा रहा था जैसे वह संसर्ग कर रही हो।
लॉरा का स्वभाव गाला की तरह था, जबकि एग्नेस की तबीयत दाली से मिलती-जुलती थी। यह ठीक था कि लोगों से मिलना, बातें करना, दोस्ती इत्यादि की शमूलियत एग्नेस की पसन्द में थी, लेकिन वह सोचती थी कि एक बार अगर किसी व्यक्ति से उसकी प्रगाढ़ता हो गयी तो इस मैत्री की पूर्वशर्त है कि आइन्दा वह उस व्यक्ति की सेवाटहल करे, मसलन उसे उसकी बहती हुई नाक को पोंछना होगा। इसलिए वह इस झंझट से दूर ही रहना चाहती थी। दूसरी तरफ लॉरा के लिए यह सब सहज स्वीकार्य था। वह देह को, अपनी और उस ‘दूसरे’ की देह को नकारना नहीं जानती थी। वह एग्नेस से पूछा करती थी : जब तुम्हें कोई आकर्षित करे तो तुम्हारे लिए इसका क्या मतलब होगा? ऐसी भावनाओं को महसूस करते वक्त तुम देह को, देह की शर्तों को क्यों दरकिनार कर देती हो? एक व्यक्ति, जिसकी देह की स्मृतियों को तुम पूरी तरह से मिटा दो, वह एक व्यक्ति के तौर पर आखिर कितना बचा-खुचा रह सकेगा?
हाँ, लॉरा एकदम गाला की तरह थी। वह अपनी देह को अपनी पहचान में शामिल रखती थी। देह उसके लिए एक घर था जहाँ उसकी आत्मा की रहनवारी होती थी और वह बखूबी जानती थी कि आईने के आगे खड़े होने से उसमें जो अक्स दिखता है, महज उतने भर के आयतन में ही देह नहीं होती, देह जितनी बाहर छलकी पड़ रही होती है उतनी भीतर भी धँसी हुई। इसी वजह से उसकी दैनन्दिन बातचीत में आंगिक प्रत्ययों और सन्दर्भों की भरमार होती है। अगर उसे कहना हो कि गयी रात उसे उसके प्रेमी ने निराश किया तो वह कहेगी कि वह मेरे अंग-अंग में आग लगाकर चला गया। यहाँ तक कि वह अक्सर उल्टी या दस्त के बारे में बेधड़क बातें छेड़ देती, भले (एग्नेस को लगता था) उसे उन दिनों उल्टियाँ आती हों या नहीं। उल्टी आये या नहीं, क्या फर्क पड़ता है! लॉरा के लिए कै करने के बारे में कहना कै करने की सचाई का मुहताज नहीं, उसके लिए यह ‘तथ्य’ नहीं, ‘काव्य’ है, एक रूपक है, उसकी पीड़ा और घृणा जैसी भावनाओं की एक प्रगीतात्मक छवि है।
एक बार दोनों बहनें एक दुकान में गयीं जहाँ उन्हें अपने लिए कुछ अधोवस्त्र खरीदने थे। एग्नेस ने देखा कि लॉरा उस ब्रेसरी को बहुत दुलार से सहला रही है जिसे दुकान पर बैठी हुई औरत दिखा रही थी। यह उन कुछ दुर्लभ क्षणों में से एक था जब एग्नेस को, उसकी बहन और उसमें क्या अन्तर है, प्रत्यक्षत: दिख जाता है। एग्नेस के लिए ब्रेसरी एक ऐसी चीज है जिसका आविष्कार औरतों की देह में किसी कुदरती कमी को दुरुस्त करने के लिए हुआ है— मसलन घाव के लिए बैंडेज या किसी लँगड़े के लिए नकली पाँव, मसलन नजर का चश्मा या गरदन में मोच आने के बाद लोगों द्वारा पहना जाने वाला मोटा कॉलर। एग्नेस यह मानती थी कि ब्रेसरी को महज इसलिए पहनना चाहिए कि वे उस अंग को सँभाले रखे जो भूलवश अपना प्राकृतिक आकार विद्रूप कर चुका है, ठीक वैसे जैसे किसी गलत तरीके से निर्मित परछत्ती को सँभाले रखने के लिए मेहराबों की जरूरत पड़े।
देह के मामले में एग्नेस को अपने पति पॉल से ईर्ष्या होती थी। पुरुष होने के नाते उसे दफ्फातन अपनी देह की फिक्र में जुते नहीं रहना पड़ता था। वह बेलौस अपने फेफड़ों में साँसें भरता था, जम्हुआई लेता था, कहें खुशी-खुशी अपनी देह को भूले रहता था। न ही एग्नेस ने उसके मुँह से कभी सुना कि उसे कोई शारीरिक तकलीफ है। उसका स्वभाव भी कुछ ऐसा था कि वह बीमारी को किसी शारीरिक अपूर्णता की तरह लेता था। वर्षों से उसके पेट में अल्सर था लेकिन एग्नेस को इस बाबत तब पता चला जब एक दिन उसके दुआर पर एम्बुलेंस आकर रुका। एग्नेस को प्रतीत होता था कि यद्यपि इस मामले में पॉल को दूसरे मर्दों के बनिस्पत अपवाद माना जाए, फिर भी उसका यह ‘अभिमान’ बहुत कुछ जतला देता है कि एक मर्द और स्त्री की देहों के विभेद क्या और कैसे हैं! एक स्त्री अपनी दैहिक तकलीफों के बारे में अक्सर बतियाती रहती है, उसे यह वरदान नहीं मिला कि एक क्षण के लिए भी वह अपनी देह को बिसार सके। वय:सन्धि से ही इस चौकन्नेपन की शुरुआत हो जाती है जब पहली बार अपनी देह का खून उसे लिजलिजे सन्दर्भ से रिसता दिखता है। वहीं से देह अपनी विकरालता के साथ उसके समक्ष उपस्थित हो जाता है और उसकी हालत उतनी ही दयनीय हो उठती है जितनी किसी उस मरियल मजदूर की हो जिसे अकेले ही एक कारखाना चलाने के लिए छोड़ दिया जाए। हर महीने पट्टियों को बदलते रहना, गर्भ निरोधक गोलियों को निगलना, ब्रेसरी को सुव्यवस्थित रूप से गाँठना, बच्चे जनने के लिए तैयार होना। शायद इसी वजह से एग्नेस बूढ़े लोगों को ईर्ष्या की नजरों से देखती है। उसे लगता है कि बूढ़े किसी और जहान में रहते हैं। खुद उसके पिता बढ़ती उम्र के साथ अपनी ही प्रतिछाया में सिमट कर रह गये थे। यह किसी भौतिक का अभौतिक में रूपान्तरित हो जाना था, यह कुछ वैसे था जैसे दुनिया में एक आत्मा विचर रही हो जिससे उसकी देह का विसर्जन हो चुका हो। इसके विपरीत, औरतें जैसे-जैसे बुढ़ाती जाती है वैसे-वैसे उनकी आत्मा में देहतत्त्व और से और चस्पाँ होता जाता है। उसकी देह भारी और बोझिल होती जाती है—जैसे कोई पुराना कारखाना अपनी विनष्टि के कगार पर है और विडम्बना देखिए कि खुद उस औरत को किसी केयरटेकर की मानिन्द उस कारखाने का समूल उजडऩा देखना होता है—अन्त तक।
Monday, November 08, 2010
हिंदी कविता
विपिन चौधरी
हिंदी की चर्चित युवा कवयित्री। दिल्ली में रहनवारी। मीडियाकर्मी। 'भाषासेतु' पर पहली बार प्रकाशित हो रही हैं।
एक रिश्ता
एक रिश्ता जिसके पायदान पर कदम रखने से ही तस्वीर अपना पुराना अक्स खोने लगी
निश्चित समय के बाद वह रिश्ता डसने लगा बार- बार
हर बार जैसे मैं अजगर के मुँह से घायल हो कर बाहर निकली
बदलाव से इंकार करते हुये मै बदली
ठीक वैसे ही जैसे
पानी में जमा धूल-मिटटी तलछटी में जमा हो जाती है
मेरा भीतर भी पाक-साफ हो कर
मुझे मरियम की तरह बेधडक हो कर
जीना एक बार तो सीख ही गयी
इंसान बनने की प्रक्रिया में
किसी रिश्ते ने शैतान बनने पर मजबूर किया
तो किसी ने देवत्व की राह दिखाई
सिर्फ आदमी ही रिश्ते बना सकता है
यह धारणा पक्की होने से पहले ही धूमिल हो गयी
जब पेड-पौधों, हवा-पानी से भी बेनाम सा रिश्ता सहजता से बना
इसी क्रम में सबसे नज़दीक का रिश्ते को सबसे दूर जाते हुए भी देखा
एक रिश्ता जो हमने बडे मनोयोग से बनाया
उनमें नमक कुछ ज्यादा था
जब वो रिश्ता टूटा
तो दिल में ही नहीं, आँखों तक में
नमक उतर आया
जिन रिश्तों में खाली जगह थी
झाडियाँ बेशुमार उग आयी
बारिश के मोसम मै खरपतवारें बढती गयी
और हमारे नजदीक आने की संभावना
कम होती गई
एक वक्त था जब मैं रिश्ते जोड सकती थी
आज सिर्फ तोड सकती हूँ
सावधानी वश कुछ पुराने रिश्ते
दीमक और सीलन से बचने के लिये धूप में सुखाने के लिये रख दिए
और कुछ को दुनिया की टेढी नज़र से बचाने के लिये ऐयर टाईट डिब्बे में कस के बंद कर दिये
रिश्तो की इसे उहापोह में
एक अनोखे रिश्ते की डोर मेरे हाथ से छूट कर पंतग की तरह आसमान में जा अटकी
उसी को तलाशती मै आज तक आकाश मै गोते लगा रही हूँ।
Sunday, November 07, 2010
गाब्रिएल गार्सिया मार्केस
1) कोई भी इस लायक नहीं होता जिसकी वजह से तुम्हारी आँखों में आंसू आ जाएँ। जो इस लायक हैं वे कभी भी तुम्हारी आँखों को आंसुओं से भरने नहीं देंगे।
2) वह जो ज्यादा इंतज़ार करता है, उसे उतनी ही कम अपेक्षाएँ पालनी चाहिए।
3) शादी के साथ सबसे बड़ी दिक्क़त यह है कि यह रोजाना रात में सम्भोग के बाद ख़त्म हो जाती है और हमें रोजाना सुबह नाश्ते से पहले उसे शुरू करना पड़ता है।
4) मैं ईश्वर में यकीन नहीं करता, बल्कि उससे डरता हूँ।
5) किस्सागोई की शुरुआत तब हुई जब एक बार जोनस घर लौटा और अपने तीन दिन बाद लौटने की सफाई में उसने अपनी पत्नी से कहा कि उसे एक व्हेल ने निगल लिया था।
6) अनिवार्यता के पास किसी कुत्ते का चेहरा होगा।
मिलान कुन्देरा
1) प्रेम हमारे उस अर्धांग की तलाश है जिसे हमने कहीं गुमा दिया था।
2) शक्ति के विरुद्ध आदमी का संघर्ष वस्तुतः भूल गए के विरुद्ध याद आने का संघर्ष है।
3) देखे जाने की मधुर अनुपस्थिति को हम चाहें तो एकांत कह सकते हैं।
4) शारीरिक संसर्ग हिंसा के बगैर संभव नहीं।
5) सुख हमेशा दुहराव का आकांक्षी होता है।
इतालो काल्विनो
1) झूठ का निवास शब्दों में नहीं, चीज़ों में होता है।
2) मैं इस उद्घोषणा के साथ इस शाम की शुरुआत करना चाहता हूँ : फैंटेसी एक ऐसी जगह का नाम है जहाँ बारिश होती है।
हारुकी मुराकामी
1) सुनो- ऐसा कोई युद्ध नहीं जो दुनिया के तमाम युद्धों को ख़त्म कर सके।
2) सुबह की रौशनी हमारे आसपास की समस्त चीज़ों को विखंडित कर देती है।
3) समुद्र और आकाश के बीच क्या अंतर है, यह कहना बहुत कठिन है।
4) व्हिस्की, किसी सुन्दर स्त्री की तरह आपका ध्यान आकर्षित करना चाहती है, इसलिए पीने से पहले आपको उसे कुछ देर तक निहारना चाहिए।
1) कोई भी इस लायक नहीं होता जिसकी वजह से तुम्हारी आँखों में आंसू आ जाएँ। जो इस लायक हैं वे कभी भी तुम्हारी आँखों को आंसुओं से भरने नहीं देंगे।
2) वह जो ज्यादा इंतज़ार करता है, उसे उतनी ही कम अपेक्षाएँ पालनी चाहिए।
3) शादी के साथ सबसे बड़ी दिक्क़त यह है कि यह रोजाना रात में सम्भोग के बाद ख़त्म हो जाती है और हमें रोजाना सुबह नाश्ते से पहले उसे शुरू करना पड़ता है।
4) मैं ईश्वर में यकीन नहीं करता, बल्कि उससे डरता हूँ।
5) किस्सागोई की शुरुआत तब हुई जब एक बार जोनस घर लौटा और अपने तीन दिन बाद लौटने की सफाई में उसने अपनी पत्नी से कहा कि उसे एक व्हेल ने निगल लिया था।
6) अनिवार्यता के पास किसी कुत्ते का चेहरा होगा।
मिलान कुन्देरा
1) प्रेम हमारे उस अर्धांग की तलाश है जिसे हमने कहीं गुमा दिया था।
2) शक्ति के विरुद्ध आदमी का संघर्ष वस्तुतः भूल गए के विरुद्ध याद आने का संघर्ष है।
3) देखे जाने की मधुर अनुपस्थिति को हम चाहें तो एकांत कह सकते हैं।
4) शारीरिक संसर्ग हिंसा के बगैर संभव नहीं।
5) सुख हमेशा दुहराव का आकांक्षी होता है।
इतालो काल्विनो
1) झूठ का निवास शब्दों में नहीं, चीज़ों में होता है।
2) मैं इस उद्घोषणा के साथ इस शाम की शुरुआत करना चाहता हूँ : फैंटेसी एक ऐसी जगह का नाम है जहाँ बारिश होती है।
हारुकी मुराकामी
1) सुनो- ऐसा कोई युद्ध नहीं जो दुनिया के तमाम युद्धों को ख़त्म कर सके।
2) सुबह की रौशनी हमारे आसपास की समस्त चीज़ों को विखंडित कर देती है।
3) समुद्र और आकाश के बीच क्या अंतर है, यह कहना बहुत कठिन है।
4) व्हिस्की, किसी सुन्दर स्त्री की तरह आपका ध्यान आकर्षित करना चाहती है, इसलिए पीने से पहले आपको उसे कुछ देर तक निहारना चाहिए।
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