छब्बीस जनवरी के अवसर पर भाषासेतु के विशेष अनुरोध पर वरिष्ट कवि भगवत रावत ने अपनी यह कविता हमारे लिए प्रकाशनार्थ उपलब्ध कराई। भाषासेतु की तरफ से उनका आभार। भगवत जी फिलहाल भोपाल में रहते हैं। हाल ही में 'सुराजे हिंद' और 'कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबोहवा और' नामक लम्बी कविताएँ विशेष रूप से चर्चित हुई हैं। लम्बी कविताओं को उन्होंने जिस खूबी के साथ साधने का दुष्कर कार्य किया है, दर्शनीय है। उम्मीद है आगे भी हम उनकी कविताएँ 'भाषासेतु' के पाठकों के लिए उपलब्ध कराते रहेंगे।
देश एक राग है
इस बार छब्बीस जनवरी पर
मैं देश के नाम सन्देश देना चाहता था
राष्ट्र के नाम नहीं
देश के नाम
जानता हूँ ऐसे सन्देश केवल
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समय समय पर देते रहे हैं
जो राष्ट्र के नाम प्रसारित किये जाते हैं
इन संदेशों की कोइ विवशता होगी
तभी तो उनकी भाषा ऐसी तयशुदा होती है की
उनमें कहीं कोई उतार-चढ़ाव नहीं होता
न कहीं मार्मिक स्पर्श
होश संभालने के बाद पिछले पचास वर्षों से
सुनता आ रहा हूँ ऐसे सन्देश और किसी का कोई एक
वाक्य भी ठीक से याद नहीं
मजेदार बात यहाँ है कि 'देशवासियों'-जैसे
आत्मीय संबोधनों से प्रारंभ होने वाले ये सन्देश
देश को भूलकर राष्ट्र-राष्ट्र कहते नहीं थकते
राष्ट्र की मजबूती, राष्ट्र की गरिमा
राष्ट्र की संप्रभुता, रार्ष्ट्रोत्थान जैसे विशेषण वाची
अलंकरणों से से मंडित
ये आत्ममुग्धता और आत्मश्लाघा
के उदाहरण बनकर रहा जाते हैं
मुझे कुछ समझ में नहीं आता
मेरी उलझन बढ़ती ही जाती है
कि देश के भीतर राष्ट्र है या राष्ट्र के भीतर देश
दोनों में कौन किससे छोटा, बड़ा
सर्वोपरि या गौण है
इस विवाद में न पड़ें तो भी
दोनों एक ही हैं यह मानने का मन नहीं करता
अव्वल तो कोई किसी का पर्याय नहीं होता
फिर भी सुविधा के लिए मान ही लें तो
देश का पर्याय राष्ट्र कैसे हो गया
अर्थात देश में सेंध लगाकर काबा राष्ट्र घुस आया
इसका पुख्ता कोई ना कोई कारण और इतिहास
होगा ही, परा मेरा कवी मन आज ताका
उसको स्वीकार नहीं कर पाया
और यदि इसका उलटा ही माना लें,
कि सबसे पुराना राष्ट्र ही है तो
हज़ारों सालों से कहाँ गायब हुआ पड़ा था
तत्सम शब्दावली की कहीं कहीं पोथियों- पुराणों के अलावा
देश-देशान्तरों की मार्मिक कथाओं से भरा पडा है
सारी दुनिया का इतिहास
राष्ट्रों की कहानियां कौन सुनता-सुनाता है
अब आप ही बताइये
कि क्या कोई ठीक-ठीक बता सकता है कि कब
देश कि जगह राष्ट्र और राष्ट्र की जगह देश
कहा जा सकता है
हमारे जवान देश की सीमानों की रक्षा करते हैं
हम देश का इतिहास और भूगोल पढ़ते-पढ़ाते हैं
सना सैंतालीस में हमारा देश आजाद हुआ था
मैं भारत देश का नागरिक हूँ
ऐसे सैकड़ों वाक्य पढ़ते पढ़ाते बीत गयी उम्र
जब-जब, जहां-जहां तक आँखें फैलाई
दूर दूर तक देश ही देश नजर आया
राष्ट्र कहीं दिखा नहीं
आज भी बड़े-बड़े शहरों से मेहनत-मजदूरी करके जब
अपने-अपने घर-गाँव लौटते हैं लोग तो एक दूसरे से
यही कहते हैं कि वे अपने देश जा रहे हैं
वे अपने पशुओं-पक्षियों, खेतों-खलिहानों
नदियों-तालाबों, कुओं-बावडियों, पहाड़ों-जंगलों,
मैदानों-रेगिस्तानों,
बोली- बानियों, पहनावों-पोशाकों, खान-पान
रीति-रिवाज और नाच गानों से इतना प्यार करते हैं
किकुछ न होते हुए गाँठ में
भागे चले जाते हैं हज़ारों मेला ट्रेन में सफ़र करते
बीडी फूंकते हुए
वे सच्चे देश भक्त हैं
वे नहीं जानते राष्ट्र-भक्त कैसे हुआ जाता है
आजादी की लड़ाई में हंसते-हँसते फांसी के फंदों पर
झूलने वाले देश-भक्ति के गीत गाते-गाते
शहीद हो जाते थे
ऊपर कही गही बातों में से देशा की जगह राष्ट्र रखकर
कोई बोलकर तो देखे
राष्ट्र-राष्ट्र कहते-कहते जुबान न लडखडाने लगे
तो मेरा नाम बदल देना
वहीं एक वाक्य में दस बार भी आये देश तो
मीठा ही लगेगा शहद की तरह
देश एक राग है
सुवासित-सुभाषित सा फैलता हुआ धीरे-धीरे
स्नेहित तरंगों की तरह बाहर से भीतर तक
भीतर से बाहर तक
स्वयं अपनी सीमाएं लांघता
सुगन्धित मंद-मंद पवन की तरह
सारी दुनिया को शीतल करता धीरे धीरे
सारी दुनिया का हिस्सा हो जाता है
कितना भी पुराना और पवित्र रहा हो राष्ट्र शब्द का इतिहास
पर आज पता नहीं क्यों बार-बार
यह शब्द एक भारी भरकम बनायी गयी ऐसी अस्वाभाविक
डरावनी आवाज लगता है जो सत्ता और शक्ति के
अहंकार में न जाने किसको
ललकारने के लिए उपजी है
अपना बिगुल खुद बजाती जिससे एक ही शब्द
ध्वनित होता सुनायी देता है
सावधान!
सावधान!
सावधान!
मैं देश के नाम सन्देश देने के बारे में कह रहा था
और कहाँ से कहाँ निकल गया
यह सही है कि मैं न देश का राष्ट्रपति हूँ
न प्रधानमंत्री, नाकोई सांसद, न विधायक
यहाँ तक कि किसी नगरपालिका का कोई
निर्वाचित सदस्य तक नहीं हूँ
पर सभी ये कहते हैं कि ये जो अच्छे-बुरे जो भी हैं
सब मेरे ही कारण हैं
मैंने ही बनाया है उन्हें
तो इसी नागरिक अधिकार के साथ मेरा देश के नाम सन्देश
क्यों प्रसारित नहीं किया जा सकता
की स्वतन्त्र भारत न गढ़ पाने की कोई दबी-छिपी रह गयी
गुलाम मानसिकता
या परायों के तंत्र से मुक्त न हो पाए की कोई
विवशता
आप जो भी कहें
और आप पूरी तरह मुझे गलत भी साबित कर दें
और जो आप कर भी सकते हैं
कहाँ-कहाँ से पुरानो और पोथियों से प्रमाण
खोजकर ला सकते हैं और मुझे चारो खाने चित्त कर सकते हैं
पर जो सामजिक इतिहास मुझे दिखाई देता है
राष्ट्रों का वह कतई आत्मीय नहीं है
अपने ही भारत देश के बारे में सोचकर देखिये
की भारत में महाभारत कभी नहीं होता
यदि उसका सम्राट ध्रितराष्ट्र न होता जिसे
अपने सिंहासन के अलावा
कुछ भी दिखाई नहीं देता था
इतना ही नहीं उसकी रानी ने भी आँखों पर
पट्टी बाँध राखी थी ताकि उसे भी कुछ दिखाई न दे अपने पुत्रों के मोह के अलावा
भारत में महाभारत कुछ अतापता नहीं लगा आपको
और क्या ध्वनी निकलती है इस वाक्य से सत्ता के आतंक, दंभ, हिंसा और
युद्ध के अलावा
जिस-जिस शब्द से जुदा यह 'महा' उपसर्ग
शब्द की सूरत बदल कर रख दी
उदाहरण देने से क्या लाभ
आप ही जोड़कर देख ले सीधे-सादे शब्दों
के आगे यह उपसर्ग
मैं किसी 'शब्द और 'नाम'' का अपमान नहीं
कर रहा हूँ
और 'महाभारत' जैसे आदिग्रंथ का तो बिलकुल नहीं
वह न लिखा गया होता तो
युद्ध की विभीषिका और निरर्थकता का कैसे पता चलता
कैसे पता चलता की युद्ध में हार ही हार होती है
कोइ जीतता नहीं
'राष्ट्र' ही सर्वोपरि है तो एक ही राष्ट्र के भीतर
कई राष्ट्रेयाताओं की धारणा से आज भी
मुक्त नहीं हुए आप
व्यर्थ गयी हजारों वर्षों की यात्रा आपकी
बर्बर तंत्र से प्रजातंत्र तक की
तो फिर जाइए वापस अपने-अपने
राष्ट्रों में
लौट जाइए अंधेरी खाइयों-गुफाओं में
यही तो चाहते हैं आज भी
नए चेहरों वाले आपके पुराने विस्तारवादी
माई-बाप
कभी जो नेशन का सिद्धांत लेकर आये थे और बढाते रहे
अपना साम्राज्य
इतने वर्षों की दासता से कुछ सबक सीखा नहीं आपने
धर्म के नाम परा बांटा गया
खुशी-खुशी बाँट गए
भाषाओं के नाम पर अलग-अलग किया गया
अलग-अलग हो लिए
अब अपनी-अपनी जातियों के नाम पर भी बना लीजिये अपने- अपने, अलग-अलग राष्ट्र
और अब इस बार डूबे तो कोइ किसी को
नहीं बचा पाएगा
मैं फिर कहता हूँ की मैं किसी शब्द और किसी
नाम का अपमान नहीं कर रहा हूँ
केवल उस मानसिकता की तरफ संकेत कर रहा हूँ
जो अपनी कुलीनता के दंभ में अपने ही देश में
अपने ही बर्चस्व का
अलग राष्ट्र हो जाना चाहती है
और धीरे धीरे सारे देश को
इकहरा राष्ट्र बनाना चाहती हैं
आज भी इक्कीसवीं सदी में
ज्ञान-विज्ञान सब एक तरफ रख कर ताक में
रक्त की शुद्धता, पवित्रता की दुहाई देकर
भोले-भाले लोगों को जिन गुफाओं में ले जाकर
ज़िंदा दफन कर देना चाहते हैं वे
इतिहास गवाह है उन गुफाओं से नकलने में
सदियाँ बीत जाती हैं
आप समझ ही गए होंगे बात महज शब्दों की नहीं, प्रवृत्तियों की है
और कठिनाई यही है की उनके बारे में
शब्दों को छोड़कर बात की नहीं जा सकती
भाषा में इस प्रवृत्ति को
'तद्भव' को 'तत्सम' में जबरदस्ती रूपांतरित
करने का शीर्षासन कह सकते हैं
सभी जानते हैं की यह अस्वाभाविक प्रक्रिया है
'फज़ल' ने किस सादगी से कहा था
'पहाड़ तक तो कोइ भी नदी नहीं जाती'
यह मानसिकता देश की बहुरंगी संस्कृति को
पहले राष्ट्र की संस्कृति कहकर इकहरा बनाती है
फिर देश को एक तरफ फेंक
सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का नारा लगाती है
मैं किसकी कसम खाऊँ
मुझे भाषा के किसी शब्द से चिढ़ नहीं है
चिढ़ है तो उस मानसिकता से जो शब्दों को
मनुष्य के विरुद्ध खड़ा कर देती है
जो सिर्फ मनुष्य को दिए गए नामों से पहचानती है
उनकी जातियों से पहचानती है,
उनके रंगों से पहचानती है
और उनकी भाषा में कभी दिए गये ‘ईश्वर’
के नाम के लिए उनके अलग-अलग शब्दों से
पहचानती है
देश देशजों से बनता है
उनकी बहुरंगी छटा देशों का इन्द्रधनुष बनती है
जो सबको अपने-अपने आसमान में दिखाई देता है
कौन होगा जिसका मन इन्द्रधनुष देखकर
इन्द्रधनुष जैसा न हो जाए
मान लिया
मान लिया कि अंग्रेजी के ‘नेशन’ शब्द के लिए हिंदी में
फिर से पैदा हुआ ‘राष्ट्र’
तो ‘नेशन’ शब्द में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं
पश्चिमी दुनिया की लगभग सभी भाषाओं में
कितना प्यारा है ‘कन्टरी’ शब्द अर्थात ‘देशज’
कब और कैसे दबोच लिया
‘कन्टरी’ जैसे आत्मीय शब्द को ‘नेशन’ ने
यह खोज का विषय होना चाहिए
जरूर उसके पीछे कोई बर्बरता छिपी होगी
इस सबके बाद भी
आपको अपना राष्ट्र मुबारक
मुझे तो अपना देश चाहिए
आपको इक्कीस तोपों की सलामी मुबारक
मुझे आसमान में मेरा लहराता तिरंगा चाहिए
बुरा लगा हो तो माफ करना
मैं तो अपने लोकतंत्र में अपनी छोटी सी
नागरिक इच्छा पूरी करना चाहता था
कि इस बार छब्बीस जनवरी पर
मैं देश के नाम सन्देश देना चाहता था
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विवरणात्मक होने के बावजूद यह कविता अपने सवालो से न सिर्फ़ छद्म राष्ट्रीयता को अतिक्रमित करती है हमारी नागरिकता की उपस्थिति को भी कटघरे में खड़ी करती है... यह पैरा अपने आप में महत्वपूर्ण है..."कितना भी पुराना और पवित्र रहा हो राष्ट्र शब्द का इतिहास
पर आज पता नहीं क्यों बार-बार
यह शब्द एक भारी भरकम बनायी गयी ऐसी अस्वाभाविक
डरावनी आवाज लगता है जो सत्ता और शक्ति के
अहंकार में न जाने किसको
ललकारने के लिए उपजी है
अपना बिगुल खुद बजाती जिससे एक ही शब्द
ध्वनित होता सुनायी देता है
सावधान!
सावधान!
सावधान!करती है..."
bahut sundar rachnaa .. bagwat rawat ji ki .. sach desh aur raastr me aisa farak lagta hai jaise ghar aur makaan me... aapki yah post umda hai... isey mai kal charcha manch par rakhungi... http://charchamanch.uchcharan.com... aap vaha par apne vichaar rakh kar hame abhibhut karen.. Dhanyvaad
हकीकत का आइना लिये हुये ये कविता.... अति प्रभाशाली है...
atyant prabhavshali kavita.
long but effective poem. CONGRATS.
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