विमलेश त्रिपाठी कलकत्ते में रहते हैं। एक ज़माने में खूब कविताएँ व कहानियां लिखीं। रवीन्द्र कालिया ने २००४ में 'वागर्थ' का जो ऐतिहासिक नवलेखन अंक निकला था, उसमें राकेश मिश्र, मनोज पाण्डेय, चन्दन पाण्डेय, कुणाल सिंह, विमलचंद्र पाण्डेय आदि के साथ विमलेश की भी कहानी छपी थी। आजकल बीवी बच्चों और नौकरी में कुछ इतना व्यस्त हैं कि मित्रों के बार बार कहने पर ही कुछ लिखते है। भाषासेतु उन्हें कुछ और टोकने वाले मित्र प्रदान करे, इसी उम्मीद में ये कविता पोस्ट की जा रही है। प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।
विमलेश त्रिपाठी
कविता से लंबी उदासी
कविताओं से बहुत लंबी है उदासी
यह समय की सबसे बड़ी उदासी है
जो मेरे चेहरे पर कहीं से उड़ती हुई चली आई है
मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ
मेरे पास शब्दों की जगह
एक किसान पिता की भूखी आंत है
बहन की सूनी मांग है
कपनी से निकाल दिया गया मेरा बेरोजगार भाई है
राख की ढेर से कुछ गरनी उधेड़ती
मां की सूजी हुई आँखें हैं
मैं जहाँ बैठकर लिखता हूँ कविताएँ
वहाँ तक अन्न की सुरीली गंध नहीं पहुंचती
यह मार्च के शुरूआती दिनों की उदासी है
जो मेरी कविताओं पर सूखे पत्ते की तरह झर रही है
जबकि हरे रंग हमारी जिंदगी से गायब होते जा रहे हैं
और चमचमाती रंगीनियों के शोर से
होने लगा है नादान शिशुओं का मनोरंजन
संसद में वहस करने लगे हैं हत्यारे
क्या मुझे कविता के शुरू में इतिहास से आती
लालटेनों की मद्धिम रोशनियों को याद करना चाहिए
मेरी चेतना को झंकझोरती
खेतों की लंबी पगडंडियों के लिए
मेरी कविता में कितनी जगह है
कविता में कितनी बार दुहराऊँ
कि जनाब हम चले तो थे पहुँचने को एक ऐसी जगह
जहाँ आसमान की ऊँचाई हमारे खपरैल के बराबर हो
और पहुँच गए एक ऐसे पाताल में
जहाँ से आसमान को देखना तक असंभव
(वहाँ कितनी उदासी होगी
जहाँ लोग शिशुओं को चित्र बनाकर
समझाते होंगे आसमान की परिभाषा
तोरों को मान लिया गया होगा एक विलुप्त प्रजाति)
कविता में जितनी बार लिखता हूँ आसमान
उतनी ही बार टपकते हैं माँ के आँसू
उतनी ही बार पिता की आंत रोटी-रोटी चिल्लाती है
जितने समय में लिखता हूँ एक शब्द
उससे कम समय में
मेरा बेरोजगार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय में
बहन औरत से धर्मशाला में तब्दील हो जाती है
क्या करूँ कि कविता से लंबी है समय की उदासी
और मैं हूँ समय का सबसे कम जादुई कवि
क्या आप मुझे क्षमा कर सकेंगे ??
6 comments:
वाकई, कविता से लंबी उदासी एक मुकम्मल कविता है। इसमें कविता के इपने अंतर्द्वन्द के साथ ही सभ्यता और संस्कृति का द्नन्द्व भी अंतर्निहित है।
मैने विमलेश की कविता अन्य पत्रिकाओं में भी पढा है..लेकिन बीच में उनकी कविताएँ आनी बंद हो गई थी। इतने अच्छे कवि को पुन: पढ़कर सुखद अनुभूति हो रही है।
भाषा सेतु का आभार और कवि को शुभकामनाएँ
-- नगेन्द्र सिंह, लोनावाला
अच्छी कविता...
यूं ही लिखते रहो विमलेश।।
महेन्द्र कंचन, बलिया
विमलेश भईया प्रणाम..
आपकी यह कविता उस दिन सुनी थी दिस दिन आप उदय प्रकाश, अशोक चक्रधर और राजकिशोर के साथ मंच पर उपस्थित थे। मुझे याद है कविता सुनकर उदय प्रकाश ने खड़े होकर आपका स्वागत किया था..बाद में मुझसे कृष्ण मोहन झा कहने लगे कि विमलेश को कविताएं लिखनी चाहिए...। अगर कविता इतनी जबरदस्त न होती तो मैं कृष्ण मोहन से सहमत नहीं होता..क्यूंकि उस दिन से पहले मुझे कहानीकार विमलेश ही आकर्षित करता था।.. लेकिन कुणाल भाई भी अक्सर चमत्कार करते रहते हैं...
बहुत अच्छा लग रहा है...
आपका ही..
रघुराई जोगड़ा, कोलकाता
बहुत दिन बाद एक बहुत अच्छी कविता पढ़ने को मिली..
भाषासेतु का आभार...
-- शेषनाथ, भोजपुर
Dear Vimalesh Tripathi jee
क्या मुझे कविता के शुरू में इतिहास से आतीलालटेनों की मद्धिम रोशनियों को याद करना चाहिएमेरी चेतना को झंकझोरतीखेतों की लंबी पगडंडियों के लिएमेरी कविता में कितनी जगह है
कविता में कितनी बार दुहराऊँकि जनाब हम चले तो थे पहुँचने को एक ऐसी जगहजहाँ आसमान की ऊँचाई हमारे खपरैल के बराबर होऔर पहुँच गए एक ऐसे पाताल मेंजहाँ से आसमान को देखना तक असंभव
kuchh nahin kahunga....can say... Wah!!! Wah!!! Jeeyo....
-- NAVIN SINGH, DUBAI
BLOG की दुनिया में बिमलेश जी आप तो छा गये।पहले अनहद फिर दोपहर और अब भाषा-सेतु।बधाई हो.... बहुत-बहुत बधाई हो।
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